कोरोना काल में संस्थाओं का क्षरण

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कोविड (कोरोना) महामारी के दो दौर भारत पेâल हो चुका है और तीसरी लहर दस्तक दे रही है। पहली लहर में हमने बिना तैयारी के लॉकडाउन झेला। फलस्वरूप देश भर से मजदूरों का अपने गांव की ओर पैदल ही पलायन के दृश्यों ने हमारी असंवेदनशीलता प्रकट की। ऐसा लगा कि कोरोना से लड़ने की तैयारी में केवल मध्यवर्ग एवं उच्चवर्ग की परेशानियों को ही ध्यान में रखा गया। गरीब मजदूरों के लिए उचित परिवहन व्यवस्था का इंतजाम, सत्ता के नीति-निर्धारण की प्राथमिकता में था ही नहीं। इसी प्रकार उनके भोजन की व्यवस्था की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। केवल खोखले नारे थे तथा टी. वी. में दिखाने के लिए कुछ बड़े शहरों में भोजन वितरण के आयोजन थे। देश भर के 5-6 बड़े शहरों के बाहर कोई इंतजाम नहीं। इसी प्रकार अस्पतालों पर अत्यधिक दबाव तथा तैयारी की कमी आम थी। ये कोरोना के प्रथम दौर के दृश्य थे।

बिना इनसे सबक लिए प्रचारतंत्र द्वारा मोदी जी का गुणगान शुरू हो गया कि उन्होंने दुनिया में सबसे बेहतर तरीके से कोरोना महामारी पर नियंत्रण पा लिया। कोरोना की दूसरी लहर आते ही, तैयारी के सभी दावे खोखले साबित हुए। अस्पतालों में बेड की कमी, आक्सीजन की कमी, गंगा में बिना अंतिम क्रिया के शवों को बालू में दबा देने का सिलसिला। बच्चे अनाथ हो रहे थे।


इस बीच विरोधियों पर पुलिस द्वारा गैर कानूनी कार्यवाई। चुनावों के दौरान कोविड प्रोटोकाल की शीर्षस्थ नेताओं द्वारा धज्जियां उड़ाई गयीं। सत्ता समर्थकों द्वारा जब कभी व्यापक रूप से कोविड प्रोटोकाल का उल्लंघन हुआ, उन पर कोई कार्यवाई नहीं की गयी। उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों के कारण तथा हरिद्वार में कुम्भ के कारण बहुत से लोग कोरोना ग्रसित हो, काल कलवित हो गये। देश भर में श्मशान घाट से प्राप्त मृतकों की संख्या एवं सरकार द्वारा बतायी गयी मृतकों की संख्या में भारी अंतर था।


इन सारी समस्याओं पर ध्यान देने के बजाय सरकार ने ऐसी महामारी के काल में तमाम दूरगामी निर्णय लिये। सरकार को पता था एवं सरकार ने ही ऐसी स्थिति का निर्माण किया था कि इस दौरान व्यापक लोकतांत्रिक ढंग से इन नीतियों पर चर्चा एवं बहस की संभावना नहीं है। शिक्षा नीति, श्रम नीति, कृषि नीति, सार्वजनिक उपक्रमों का विनिवेश, वित्तीय संस्थाओं में भारी पेâरबदल और कारपोरेट घरानों को भारी छूट, इसके कुछ उदाहरण हैं। इस बात का स्पष्टीकरण आज तक नहीं आया कि जब इस महामारी के दौरान पूरी अर्थव्यवस्था में गिरावट आयी, सभी क्षेत्रों में आय घटी तो कुछ कारपोरेट घरानों की आय में अप्रत्याशित वृद्धि वैâसे हुई। इतना ही नहीं, यह भी आरोप है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विचारधारा के लोग सत्ता प्रतिष्ठान की सभी संस्थाओं में गहराई से अपनी पैठ बना चुके हैं, चाहे शैक्षणिक संस्थाएं हों, प्रशासनिक ढांचा हो या यहां तक कि पुलिस एवं इंटेलिजेंस विभाग।


कोविड महामारी का इस परीक्षण के लिए भी इस्तेमाल किया गया जा रहा है कि लोकतंत्र को किस हद तक संकुचित कर अंकुश में रखा जा सकता है तथा पुलिस राज को जनता किस सीमा तक बर्दाश्त कर सकती है। सरकार उस सीमा तक जायेगी। सरकार की असंवेदनशीलता के दो प्रमाण हैं—एक, किसान आंदोलन के प्रति रवैया तथा दूसरा सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट तेजी से खतम करने की प्रतिबद्धता, लेकिन सार्वजनिक निगाहों से छुपा कर, क्योंकि कार्य की प्रगति की फोटो तक खींचने पर रोक लगा दी गयी है।


लेकिन सारा दोष अकेले मोदीजी पर मढ़ने की जरूरत नहीं है। वे स्वयं भारत की पतनशील राजनीतिक प्रक्रियाओं के गर्भ से निकलकर आये हैं। फर्वâ सिर्पâ यह है कि उनके समर्थक लोकतंत्र, नागरिक स्वातंत्र्य, सेक्यूलरिज्म, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सच्चे संघवाद आदि का मुखौटा उतार कर राजनीति कर रहे हैं। प्रशासन के सम्प्रदायीकरण तक को उचित ठहरा रहे हैं। हम एक निर्वाचित निरंकुशता की ओर बढ़ रहे हैं। इसमें मूल मुद्दे से भटका कर अस्मिता आधारित राजनीति (identity politics) को उसके चरम तक बढ़ाया जा रहा है। अहिंसक लोक आंदोलनों को खड़ा करने के अलावा आशा की कोई किरण नहीं है। महामारी को मुक्त बाजार की नीति को बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।

One thought on “कोरोना काल में संस्थाओं का क्षरण

  1. कोरोना काल का सही चित्रण है इसमें । बातें बीत गयी हैं फ़िर इसे व्यापक तौर पर जानना चाहिए सबको । और यह भी जानना चाहिए कि क्या किया जाना चाहिए था सरकार द्वारा और लोगों व लोगों के संगठनों द्वारा ।
    सरकार की नीतिगत समझ की अपरिपक्वता और लोकोभिमुख नियति का अभाव प्रमुख कारण रहा कोरोना काल में जन-जन के दुर्दशा का । आवशयकता है सरकार में जन संवेदनशीलता व जनता में संवेदनशील मुद्दों के प्रति जनता व जनता के समूहों का जागृत रहना जहाँ आवश्यक हो जागृत जनशक्ति द्वारा आवश्यक कार्रवाई करने का ।

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