Spiritual

देहासक्ति से अवरुद्ध जीवन

यह देह साध्य नहीं, साधन है। यदि हमारा यह भाव दृढ़ हो जाये, तो फिर शरीर का जो वृथा आडंबर रचा जाता है, वह न रहेगा। जीवन हमें निराले ही ढंग का दीखने लगेगा। फिर इस देह को सजाने में हमें गौरव का अनुभव नहीं होगा।

मैं देह ही हूँ, यह जो भावना सर्वत्र फैल रही है, इसके फलस्वरूप मनुष्य ने बिना विचारे ही देह-पुष्टि के लिए नाना प्रकार के साधन निर्माण कर लिये हैं। उन्हें देखकर बड़ा भय मालूम होता है। मनुष्य को सदैव लगता रहता है कि यह देह पुरानी हो गयी, जीर्ण-शीर्ण हो गयी, तो भी येन-केन प्रकारेण इसे बनाये ही रखना चाहिए; परंतु आखिर इस देह को, इस छिलके को आप कब तक टिकाकर रख सकेंगे? मृत्युतक ही न? जब मौत की घड़ी आ जाती है तो क्षण भर भी शरीर टिकाये नहीं रख सकते। मृत्यु के आगे सारा गर्व ठंडा पड़ जाता है। फिर भी इस तुच्छ देह के लिए मनुष्य नाना प्रकार के साधन जुटाता है। दिन-रात इस देह की चिंता करता है। कहते हैं कि देह की रक्षा के लिए मांस खाने में कोई हर्ज नहीं है। मानो मनुष्य की देह बड़ी कीमती है! उसे बचाने के लिए मांस खाओ। तो पशु की देह क्या कीमत में कम है? और है, तो क्यों? मनुष्य देह क्यों कीमती मानी गयी? क्या कारण है? पशु चाहे जिसे खाते हैं, सिवा स्वार्थ के वे दूसरा कोई विचार ही नहीं करते! मनुष्य ऐसा नहीं करता, वह अपने आसपास की सृष्टि की रचना करता है। अतः मानव-देह का मोल है, इसलिए वह कीमती है. परन्तु जिस कारण मनुष्य की देह कीमती साबित हुई, उसी को तुम मांस खाकर नष्ट कर देते हो!

भले आदमी, तुम्हारा बड़प्पन तो इसी बात पर अवलंबित है न कि तुम संयम से रहते हो, सब जीवों की रक्षा के लिए उद्योग करते हो, सबकी सार-संभाल रखने की भावना तुममें है। पशु से भिन्न जो यह विशेषता तुममें है, उसी से न मनुष्य श्रेष्ठ कहलाता है? इसी से मानव-देह ‘दुर्लभ’ कही गयी है। परंतु जिस आधार पर मनुष्य बड़ा, श्रेष्ठ हुआ है, उसी को यदि वह उखाड़ने लगे, तो फिर उसके बड़प्पन की इमारत टिकेगी कैसे? साधारण पशु अन्य प्राणियों का मांस खाने की जो क्रिया करते हैं, वही क्रिया यदि मनुष्य निःसंकोच होकर करने लगे, तो फिर उसके बड़प्पन का आधार ही खींच लेने जैसा होगा। यह तो जिस डालपर मैं बैठा हूं, उसी को काटने का प्रयत्न करने जैसा हुआ।

आजकल वैद्यक शास्त्र नाना प्रकार के चमत्कार दिखा रहा है। पशु की देह पर शल्यक्रिया करके उसके शरीर में रोग-जंतु उत्पन्न करते हैं और देखते हैं कि उन रोगोंका उस पर क्या असर होता है। सजीव पशु को इस तरह अत्यधिक कष्ट देकर जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उसका उपयोग इस क्षुद्र मानव-देह को बचाने के लिए किया जाता है। और यह सब चलता है ‘भूत-दया’ के नाम पर। पशु के शरीर में जंतु पैदा करके उसकी लस निकालकर मनुष्य के शरीर में डालते हैं। ऐसे नाना प्रकार के भीषण कृत्य हो रहे हैं। जिस देह के लिए हम यह सब करते हैं, वह तो कच्चे काँच की तरह है, जो पल भर में ही फूट सकती है। वह कब फूटेगी, इसका जरा भी भरोसा नहीं। यद्यपि मानव-देह की रक्षा के लिए ही ये सारे उद्योग हो रहे हैं, फिर भी अंत में अनुभव क्या आता है? ज्यों-ज्यों इस नाजुक देह को सँभालने का प्रयत्न किया जाता है, त्यों त्यों इसका नाश हो रहा है। यह प्रतीति हमें हो रही है, फिर भी इस देह को मोटी-ताजी करने का प्रयत्न जारी है।

हमारा ध्यान कभी इस बात की ओर नहीं जाता कि किस प्रकार का आहार करने से बुद्धि सात्त्विक होगी। मनुष्य देखता भी नहीं कि मन को अच्छा बनानेके लिए क्या करना चाहिए और किस वस्तु की सहायता लेनी चाहिए. वह तो इतना ही देखता है कि शरीर का वजन किस तरह बढ़ेगा. वह इसी की चिंता करता दीखता है कि जमीन की मिट्टी उठकर उसके शरीर पर कैसे चिपक जाये, मिट्टी के लोंदे उसके शरीर पर कैसे लद जायें! जैसे थोपा हुआ गोबर का कंडा सूखने पर नीचे गिर पड़ता है, उसी तरह शरीर पर चढ़ाया यह मिट्टी का लेप, यह चरबी, अंत में गल जाती है और शरीर फिर अपनी असली स्थितिमें आ जाता है। आखिर इसका मतलब कि हम शरीर पर इतनी मिट्टी चढ़ा लें, इतना वजन बढ़ा लें कि शरीर ‘बोझ ही न सह सके? शरीर को इतना थुलथुल बनाया ही क्यों जाये? यह शरीर हमारा एक साधन है, अतः इसे ठीक रखने के लिए जो कुछ आवश्यक है, वह सब हमें करना चाहिए। यंत्र से काम लेना चाहिए, लेकिन क्या कहीं यंत्र का भी अभिमान होता है? फिर इस शरीर रूपी यंत्र के संबंध में भी हम इसी तरह विचार क्यों न करें?

सारांश, यह देह साध्य नहीं, साधन है। यदि हमारा यह भाव दृढ़ हो जाये, तो फिर शरीर का जो वृथा आडंबर रचा जाता है, वह न रहेगा। जीवन हमें निराले ही ढंग का दीखने लगेगा। फिर इस देह को सजाने में हमें गौरव का अनुभव नहीं होगा। वस्तुतः इस देह के लिए एक सादा कपड़ा काफी है। पर नहीं, हम चाहते हैं कि वह नरम हो, मुलायम हो, उसका बढ़िया रंग हो, सुंदर छपाई हो, अच्छे किनारे-बेल-बूटे हों, कलाबत्तू हो आदि। उसके लिए हम अनेक लोगों से तरह-तरह की मेहनत कराते हैं। यह सब क्यों? उस भगवान को क्या अक्ल नहीं थी? यदि इस देह के लिए सुंदर बेल-बूटों और नक्काशी की जरूरत होती, तो जैसे बाघ के शरीर पर उसने धारियाँ डाल दी हैं, वैसे क्या तुम्हारे-हमारे शरीर पर नहीं डाल देता? उसके लिए क्या यह असंभव था? वह मोर की तरह सुंदर पिच्छ हमें भी लगा सकता था। परंतु ईश्वर ने मनुष्य को एक ही रंग दिया है। उसमें जरा-सा दाग पड़ जाता है, तो उसका सौंदर्य नष्ट हो जाता है. मनुष्य जैसा है वैसा ही सुंदर है। परमेश्वर का यह उद्देश्य ही नहीं है कि मनुष्य-देह को सजाया जाये। सृष्टि में क्या सामान्य सौंदर्य है? मनुष्य का काम इतना ही है कि वह अपनी आँखों से इसे निहारता रहे; परंतु वह रास्ता भूल गया है। कहते हैं कि जर्मनी ने हमारे रंग को मार दिया। अरे भाई, तुम्हारे मनका रंग तो पहले ही मर चुका, बाद में तुम्हें बनावटी रंग का शौक लगा! उसी के लिए तुम परावलंबी हो गये। व्यर्थ ही तुम इस शरीर-श्रृंगार के चक्कर में पड़ गये। मन को सजाना, बुद्धि का विकास करना, हृदय को सुंदर बनाना तो एक तरफ ही रह गया।

-विनोबा

Sarvodaya Jagat

Share
Published by
Sarvodaya Jagat

Recent Posts

सर्वोदय जगत – 01-15 मई 2023

  सर्वोदय जगत पत्रिका डाक से नियमित प्राप्त करने के लिए आपका वित्तीय सहयोग चाहिए।…

2 months ago

बनारस में अब सर्व सेवा संघ के मुख्य भवनों को ध्वस्त करने का खतरा

पिछले कुछ महीनों में बहुत तेजी से घटे घटनाक्रम के दौरान जहां सर्व सेवा संघ…

10 months ago

विकास के लिए शराबबंदी जरूरी शर्त

जनमन आजादी के आंदोलन के दौरान प्रमुख मुद्दों में से एक मुद्दा शराबबंदी भी था।…

12 months ago

डॉक्टर अंबेडकर सामाजिक नवजागरण के अग्रदूत थे

साहिबगंज में मनायी गयी 132 वीं जयंती जिला लोक समिति एवं जिला सर्वोदय मंडल कार्यालय…

12 months ago

सर्व सेवा संघ मुख्यालय में मनाई गई ज्योति बा फुले जयंती

कस्तूरबा को भी किया गया नमन सर्वोदय समाज के संयोजक प्रो सोमनाथ रोडे ने कहा…

12 months ago

इतिहास बदलने के प्रयास का विरोध करना होगा

इलाहबाद जिला सर्वोदय मंडल की बैठक में बोले चंदन पाल इलाहबाद जिला सर्वोदय मंडल की…

12 months ago

This website uses cookies.