Economy

पूर्वांचल में खामोश हैं बुनकरों के करघे

न तो उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार और न ही केन्द्र सरकार ने अब तक सैकड़ों-हजारों बुनकरों और उनके परिवारों की दुर्दशा के प्रति कोई संवेदनशीलता दिखायी है और न ही कोविड-19 से पैदा हुई भयावह स्थिति का किसी भी तरह से जवाब देने में सफल रही है। लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद के दौर में पूर्वी उत्तर प्रदेश के हस्तशिल्प, हथकरघा और पावरलूम व्यवसाय को एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 3000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।

डॉ. मुनीजा खान

सरकारों द्वारा अपनाई गई प्रतिकूल और शत्रुतापूर्ण नीतियों के चलते बुनकर समुदाय पिछले कई दशकों से करघा उद्योग और इसके साथ ही जरदोजी उद्योग के गंभीर संकट के चलते बुरी स्थिति में जीने के लिए मजबूर थे, लेकिन कोविड काल में अनियोजित तरीके से लगाये गये इस लॉकडाउन की कार्यवाही के चलते, उन्हें और भी ज्यादा निराशा और बदहाली का सामना करना पड़ रहा है। लॉकडाउन ने बुनकरों के जीवन को गंभीर रूप से आर्थिक और संरचनात्मक झटका दिया है। जिसके चलते बुनकर समाज में गंभीर संकट मसलन कर्ज, भुखमरी और भीख मांगने तक की नौबत पैदा हो गयी है। ऐसे संकट के लिए किसी भी समाज और राज्य को शर्मसार होना चाहिए।

इस बीच न तो उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार और न ही केन्द्र सरकार ने अब तक सैकड़ों-हजारों बुनकरों और उनके परिवारों की दुर्दशा के प्रति कोई संवेदनशीलता दिखायी है और न ही कोविड-19 से पैदा हुई भयावह स्थिति का किसी भी तरह से जवाब देने में सफल रही है। लॉकडाउन के दौरान और उसके बाद के दौर में पूर्वी उत्तर प्रदेश के हस्तशिल्प, हथकरघा और पावरलूम व्यवसाय को एक अनुमान के मुताबिक तकरीबन 3000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है।

एक सर्वे के मुताबिक 89 प्रतिशत बुनकरों ने कहा कि विश्वास की कमी के कारण वे विभिन्न प्रकार के राहत उपायों जैसे कि खाद्य राशन सामग्री, आर्थिक सहायता, बढ़े हुए बिजली के बिल, सीवेज संबंधित और इसी तरह की अन्य नागरिक समस्याओं के लिए स्थानीय और राज्य सरकार से वे संपर्क नहीं कर सके या नहीं किया। बाकी बचे 11 प्रतिशत लोग भी सरकार या प्रशासन के द्वारा किये गये कामों से असंतुष्ट थे।
केन्द्र सरकार की योजनाओं तक पहुंच का अभाव
केन्द्र सरकार की बहुप्रचारित स्कीम प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, जमीन स्तर पर लोगों तक नहीं पहुंची है। हमारे सर्वे में शामिल 10 प्रतिशत ऐसी महिलाएं ऐसी थीं, जिनको इस योजना के तहत उज्ज्वला गैस प्राप्त करने के लिए पंजीकृत किया गया था; बाकी आवेदकों के बार-बार प्रयास करने के बावजूद भी उन्हें इस योजना के लाभ से बाहर रखा गया। एक बड़े हिस्से ने स्वीकारा कि केन्द्र द्वारा चलायी गयी प्रधानमंत्री जनधन योजना का लाभ उन तक नहीं पहुंच सका। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि 52 प्रतिशत उत्तरदाताओं के पास अपना कोई खाता ही नहीं था और बचे हुए बाकी 48 प्रतिशत उत्तरदाताओं, जिनके पास खाता था, उनमें से केवल 58 प्रतिशत ही ऐसे लोग थे, जिन्होंने एक या एक से अधिक बार नकद हस्तातंरण या लेनदेन किया।
जिनके पास कुछ एक करघे ही हैं, ऐसे अधिकांश बुनकर मुस्लिम अंसारी, दलित, ओबीसी जैसे समुदायों से संबंधित हैं और कुछ ऐसे मुसलमान बुनकर भी हैं, जिनका संबंध विशेषाधिकार प्राप्त जातियों से है। आज इस हस्तशिल्प उद्योग से जुड़ा एक बड़ा वर्ग पूरी तरह से गरीबी और बदहाली में जीवन जीने के लिए मजबूर है। ऐसी स्थिति में, इन सवालों को न केवल राजनीतिक रूप से, बल्कि आर्थिक नीति और निर्णय लेने वाले विधान को प्रभावित करने के लिए भी जरूरी है कि सही सूचना और तर्कपूर्ण सार्वजनिक संवाद को बल दिया जाय।
महिलाएं इस उद्योग की रीढ़ हैं। ये महिलाएं बुनाई से लेकर इससे जुड़ी अन्य संबद्ध गतिविधियों, जैसे स्पूल फीडिंग, साड़ी की साज सज्जा और सजावट से लेकर उसे अंतिम रूप देने जैसे अनेकों कामों में शामिल हैं। यहां तक कि इस दौर में इन लोगों का ज्यादातर काम अवैतनिक रहता है, क्योंकि यह सारा काम उनके घर के कामों के हिस्से के रूप में देखा जाता है। इन महिलाओं और लड़कियों का बयान उनकी गरीबी, भूख और घरेलू शोषण के अलावा कुपोषण और स्वास्थ्य मुद्दों की अनकही उदासीन कहानियों को बयान करता है। इस दौर में कई लड़कियों को स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।
पिछले तीन दशकों में योजनाबद्ध तरीके से की जाने वाली लक्षित सांप्रदायिक हिंसा और राजनीति के क्रूर रूप से समग्र प्रभाव का भी महिलाओं, खासतौर से मुस्लिम महिलाओं पर बेहद बुरा असर पड़ा है। धर्म आधारित लैंगिक पहचान ने पारंपरिक लिंग-आधारित एकजुटता को गहराई से प्रभावित किया और महिला एकजुटता को गंभीर रूप से तोड़ने का काम किया है। नि:संदेह इस तरह की तोड़-फोड़ और विभाजन अक्सर एकजुटता को खंडित करती है। ऐसी ही विभाजनकारी घटनाएं कोविड-19 महामारी के दौरान पूरे भारत को अपने आगोश में बहाकर ले गयीं।
कमर्शियल मीडिया की भूमिका, विशेष रूप से टेलीविजन महज विभाजनकारी प्रवचन को आगे बढ़ाने के रूप में काम करता रहा है। इसने न केवल तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है, बल्कि इसके अलावा इसने खुद को संविधान विरपोधी एजेंडे को लागू करने के लिए तैयार किया थ और अल्पसंख्यकों के सभी वर्गों की पीड़ा को, यहां तक कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के बुनकर समुदाय के जीवन को और भी ज्यादा अपमानित करने और विकट बनाने का काम किया है। वायरस के फैलने के बाद के काफी दिनों और हफ्तों तक उनके कामों का आर्थिक बहिष्कार सा किया गया। एक समुदाय विशेष को जानबूझकर कोरोना-जिहाद, वायरस के सुपरस्प्रेडर्स जैसे शब्दों के रूप में चिन्हित किया गया।


सरकारी और व्यापारिक निगमों के लिए सिफारिशें
केन्द्र और राज्य, दोनों ही सरकारों से सिफारिश करते कि नीतियां बनाने और बजटीय आवंटन (पिछले सात-आठ वर्षों में घटते बजट को देखते हुए) से पहले इस उद्योग से जुड़े सभी हित धारकों से परामर्श किया जाये। गांव, तालुका और राज्य स्तर पर पेशेवर सहकारी समितियों के लिए राज्य द्वारा इसके संचालन को प्रोत्साहन देने पर भी जोर दिया जाना जरूरी है। अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी योजनाओं और अभियानों का लाभ अंतिम बुनकर और कारीगर तक पहुंचे।
हम व्यवसाय और मानवाधिकार पर संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों का आह्वान करते हुए इस समृद्ध व पारंपरिक कला तथा शिल्प के आधार पर पनपने वाले निगमों, निर्यातक घरानों और ब्रांडों से सम्मानजनक वेतन और सामाजिक सुरक्षा के मानकों का सम्मान करने का भी आग्रह करते हैं, क्योंकि उत्पादक/निर्माता ही दरअसल निर्मित उत्पादों के केन्द्र में हैं।
बनारसी साड़ी और ब्रोकेड के निर्माता ही इस बौद्धिक संपदा के मालिक हैं, इसलिए इसके इर्द-गिर्द जन जागरूकता पैदा करने की जरूरत है। यह एक ऐसा तथ्य है, जिससे ज्यादातर बुनकर और कारीगर अनिभिज्ञ हैं।
राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अभियान के लिए आह्वान
एक ऐसे स्थायी और अनुकूल राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय अभियान की तत्काल आवश्यकता है, जो इन बिन्दुओं पर रोशनी डालता हो।
* ग्रामीण-शहरी आजीविका और भारत की सांस्कृतिक विरासत से इतने नजदीक से जुड़े इस उद्योग और शिल्प का निरंतर पुनरुद्धार होना चाहिए।
* नीतिगत, आर्थिक और व्यापारिक प्रथाओं को स्वीकार करने, उभारने या प्रोत्साहन देने से पहले सरकार द्वारा लोकतांत्रिक जुड़ाव के प्रोत्साहन को सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
* महिलाओं पर विशेष जोर देने के साथ-साथ शिल्पकारों, कारीगरों और बुनकरों के विभिन्न स्तरों पर काम करने वाले सभी के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाएं सुनिश्चित की जानी चाहिए।
* उत्पादों के निर्माताओं के साथ व्यवहार करते समय सामाजिक जिम्मेदारी और मानवाधिकारों के एक घटक के रूप में निगमों और व्यवसायों तक पहुंच बनाने को सुनिश्चित करना चाहिए।
* यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि निर्वाचित प्रतिनिधि भी इन मांगों का जवाब दें।
* सभी भारतीयों, इन उत्पादों के उपभोक्ताओं और अन्य लोगों को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह महत्त्वपूर्ण पारंपरिक उद्योग है।
(सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस की एक रिपोर्ट पर आधारित)

Co Editor Sarvodaya Jagat

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