मशहूर फिल्म अभिनेता और संस्कृतिकर्मी बलराज साहनी, 1972 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में आमंत्रित थे। समारोह में उपस्थित विद्यार्थियों, शोधार्थियों, शिक्षकों और शिक्षाविदों के सामने अपने संबोधन में उन्होंने जो विचार रखे, प्रस्तुत आलेख उसकी अविकल प्रस्तुति है। कला, साहित्य और संस्कृति के आइने में उन्होंने उस भारत की तस्वीर खींची, जिसे मात्र 25 वर्ष पहले राजनीतिक आजादी हासिल हुई थी। आज हम अपनी आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, पर तस्वीर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। आइए, बलराज साहनी के शब्दों में आधी सदी पहले के भारत की एकयात्रा करें। – सं.
मुझे अपने विद्यार्थी जीवन की एक घटना याद आ रही है, जिसे मैं कभी भुला नहीं सका, जिसने मेरे मन पर बहुत गहरा असर डाला। मैं अपने परिवार के साथ गर्मियों की छुट्टियां मनाने रावलपिंडी से कश्मीर जा रहा था। भारी बारिश होने के कारण रास्ते में पहाड़ का एक हिस्सा टूटकर गिर गया था, जिसके कारण सड़क बंद हो गयी थी। दोनों तरफ मोटरों की लंबी कतारें लग गयीं। न खाने-पीने का इंतजाम था, न सोने का। पीडब्ल्यूडी के कर्मचारी सड़क की मरम्मत करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे थे, फिर भी ड्राइवर और यात्री उनके पीछे पड़े हुए थे, उन्हें सुस्त और निकम्मा कहकर कोस रहे थे। इसमें काफी समय लगा।
आखिरकार रास्ता खुलने का ऐलान हुआ और ड्राइवरों को हरी झंडी दिखा दी गयी, पर तभी एक अजीब-सी बात हुई। कोई भी ड्राइवर पहले अपनी गाड़ी बढ़ाने को तैयार ही नहीं था। न इस तरफ से और न ही उस तरफ से। सभी खड़े एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। इसमें शक नहीं कि रास्ता कच्चा था और खतरनाक भी। एक तरफ पहाड़ था और दूसरी तरफ खाई व हिलोरे मारता झेलम दरिया। आधा घंटा बीत गया। कोई टस से मस न हुआ। ये वही लोग थे, जो अब तक पीडब्ल्यूडी के कर्मचारियों को आलसी और अकर्मण्यता के लिए कोस रहे थे। इतने में पीछे से एक छोटी-सी हल्के रंग की स्पोट्र्स कार आती दिखायी दी। एक अंग्रेज उसे चला रहा था। इतने सारे वाहनों और भीड़ को देखकर वह हैरान हुआ। मैं कोट-पतलून पहने जरा बन-ठनकर खड़ा था। उसने मुझसे पूछा, ‘क्या हुआ है?’ मैंने उसे सारी बात बतायी, तो वह जोर से हंसा और उसी क्षण हार्न बजाता हुआ बिना किसी डर के कार चलाते हुए आगे बढ़ गया।
उसके बाद तो नजारा और भी देखने लायक था। कहां तो कोई माई का लाल गाड़ी स्टार्ट करने के लिए तैयार नहीं था, और अब वे हॉर्न पर हॉर्न बजाते हुए एक साथ वह हिस्सा पार करने लगे। इतनी भगदड़ मची कि रास्ता फिर काफी देर के लिए बंद हो गया। तब मैंने अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देखा कि एक आज़ाद देश में पले-बढ़े आदमी और एक गुलाम देश में पले-बढ़े आदमी में क्या फर्क होता है। आज़ाद आदमी के अंदर कुछ सोचने, फैसला करने और अपने फैसले पर अमल करने की दिलेरी होती है। गुलाम आदमी यह दिलेरी खो चुका होता है। वह हमेशा दूसरे के विचारों को अपनाता है, घिसे-पिटे रास्तों पर चलता है। इस सबक को मैंने अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बना लिया। अपने जीवन में जब भी मैं कोई कठिन निर्णय ले पाया, मैं बहुत खुश हुआ। तब मैं खुद को आज़ाद महसूस करता, मुझे अपना जीवन सार्थक लगा।
फिर भी साफ-साफ कहूं तो ऐसे मौके बहुत कम आए। किसी कठिन निर्णय के समय मैं अक्सर हिम्मत खो देता था और दूसरे लोगों के आसरे हो जाता। अंतत: मैंने सुरक्षित रास्ता चुना। मैंने वही फैसले लिए, जो मेरा परिवार मुझसे चाहता था। जो वह बुर्जुआ वर्ग चाहता था, जिससे मैं आता हूं। मेरे ऊपर मूल्यों का एक बोझ-सा डाल दिया गया था। मैं सोचता कुछ और था और करता कुछ और था। इस कारण मुझे बाद में काफी बुरा भी लगता।
मैंने अपने और आपके सामने एक अंग्रेज का उदाहरण रखा है। कोई ये सोच सकता है कि यह मेरे हीनभाव का सबूत है। मैं सरदार भगत सिंह का उदाहरण दे सकता था, जो उसी जमाने में फांसी पर चढ़े थे। मैं महात्मा गांधी का उदाहरण दे सकता था, जिन्होंने पूरा जीवन अपनी ही शर्तों पर जिया। मुझे याद है कि कैसे मेरे कॉलेज के प्रोफेसर, शहर के सम्मानीय और बुद्धिमान लोग गांधी की बातों पर हंसा करते थे कि वह केसे बिना हथियार के सिर्फ सत्य-अहिंसा से अंग्रेज सरकार को हरा देंगे और देश को आज़ाद करा लेंगे! मेरे शहर के लोग ये सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि अपने जीवनकाल में वे देश को आज़ाद हुआ देख सकेंगे। पर गांधीजी को खुद पर, अपने विचारों और अपने देशवासियों पर भरोसा था। शायद आप में से किसी ने नंदलाल बोस द्वारा चित्रित गांधीजी का चित्र देखा होगा। वह एक ऐसे व्यक्ति का चित्र है, जिसमें सोचने का साहस था और उस सोच पर अमल करने की हिम्मत थी। मेरे कॉलेज के समय मुझ पर भगत सिंह या गांधीजी का प्रभाव नहीं था। मैं पंजाब प्रांत के लाहौर में स्थित प्रसिद्ध गवर्नमेंट कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में एमए कर रहा था। इस कॉलेज में सिर्फ सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थियों का चयन होता था। उस समय कॉलेज में दाखिला लेते समय हमें लिखकर देना पड़ता था कि हम राजनीतिक आंदोलनों में हिस्सा नहीं लेंगे। उस समय राजनीतिक आंदोलन का मतलब देश में चल रहे आज़ादी के आंदोलन से था।
इस साल हम आज़ादी की रजत जयंती मना रहे हैं, पर क्या हम कह सकते हैं कि गुलामी और हीनता का भाव हमारे मन से बिल्कुल दूर हो चुका है? क्या हम दावा कर सकते हैं कि व्यक्तिगत, सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर हमारे विचार, हमारे फैसले और हमारे काम मूलतः हमारे अपने हैं और हमने दूसरों की नकल करनी छोड़ दी है? क्या हम स्वयं अपने लिए फैसले लेकर उन पर अमल कर सकते हैं या फिर हम यूं ही इस नकली स्वतंत्रता का दिखावा करते रहेंगे?
इस बारे में मैं आपका ध्यान फिल्म इंडस्ट्री की तरफ ले जाना चाहूंगा, जहां से मैं आता हूं। एक पढ़े-लिखे बुद्धिमान आदमी के लिए हमारी फिल्मेंं तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं हैं। उनकी कहानियां बचकानी, असलियत से दूर और तर्कहीन होती हैं। और ये बात तो आप भी मानेंगे कि उनकी कहानी, तकनीक और यहां तक कि नाच-गाने भी पश्चिम की फिल्मों की अंधी नकल होते हैं। कई बार तो पूरी की पूरी फिल्म ही किसी विदेशी फिल्म की नकल होती है। कोई हैरानी की बात नहीं है कि आप नौजवान लोग इन फिल्मों पर हंसते हैं, पर साथ ही कुछ ऐसे भी हैं जो फिल्म-स्टार बनने के सपने भी देखते होंगे। अच्छी फिल्में, अच्छे नाटक, अच्छा अभिनय, अच्छी चित्रकला आदि सब यूरोप और अमेरिका में ही संभव हैं। हिंदुस्तान के लोग भाषा, संस्कृति आदि कलात्मक भावनाओं के लिहाज से अपरिष्कृत और पिछड़े हुए हैं। ये सब सुनकर हमें बुरा लगता और हम गुस्सा भी हो जाते, पर अंदर से हम ये बात मानने को मजबूर हैं।
आज़ादी के बाद भारतीय कलाओं ने बहुत प्रगति की है। फिल्मों की बात करें तो सत्यजीत रे और बिमल रॉय ऐसे नाम हैं, जो विश्व प्रसिद्ध हो चुके हैं। कई कलाकारों और टेक्नीशियनों की तुलना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होती है। आज़ादी से पहले हमारे देश में मुश्किल से 10-15 फिल्में ही बनती थीं, जो मशहूर होती थीं। आज हम संसार में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देशों में हैं और इन फिल्मों को सिर्फ हमारे देश की जनता ही नहीं, बल्कि अफगानिस्तान, ईरान, सोवियत यूनियन, मिस्र, अरब, अफ्रीका के अनेक देशों की जनता भी बड़े शौक से देखती है। हमने इस क्षेत्र में हॉलीवुड द्वारा लायी गयी एकरसता को तोड़ा है। अगर सामाजिक जिम्मेदारी के नजरिये से देखा जाए तो हमारी फिल्में नैतिक रूप से अभी उतने निचले स्तर पर नहीं पहुंची हैं; जहां कुछ पश्चिमी देश पहुंच चुके हैं। हिंदुस्तानी निर्माताओं ने अभी लाभ कमाने के लिए अश्लीलता और अपराध का सहारा नहीं लिया है, जैसा अमेरिकी निर्माता सालों से करते आ रहे हैं, बिना ये सोचे कि इससे वे देश में एक गंभीर सामाजिक समस्या को जन्म दे रहे हैं।
इस सबके बावजूद अगर कमी है तो सिर्फ एक बात की कि हम अभी भी नक्काल हैं, इसी एक गलती के कारण हम सभी बुद्धिजीवियों के मजाक का पात्र बनते हैं। हम विदेशों से उधार लिए गए, घिसे-पिटे फॉर्मूले पर फिल्में बनाते हैं। हममें अपने देश के जीवन को अपने ढंग से पेश करने का साहस नहीं है। यह बात मैं सिर्फ हिन्दी या तमिल फिल्मों के बारे में नहीं कह रहा हूं। ये शिकायत तथाकथित प्रगतिवादी और प्रयोगवादी फिल्मों से भी है, चाहे वे बंगाली में हों, हिन्दी में या मलयालम में। मैं सत्यजीत रे, मृणाल सेन, सुखदेव, बासु भट्टाचार्य या राजिंदर सिंह बेदी के काम का बड़ा प्रशंसक हूं। मैं जानता हूं कि वे बहुत ही काबिल और सम्माननीय हैं, लेकिन मैं यह भी कहे बिना नहीं रह सकता कि इनकी फिल्मों पर इटली, फ्रांस, स्वीडन, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया के फैशन की गहरी छाप है। वे नया कदम जरूर उठाते हैं, पर दूसरों के बाद।
मेरा थोड़ा-बहुत संबंध साहित्य की दुनिया से भी है। यही हालत मैं वहां भी देखता हूं। यूरोपीय साहित्य का फैशन भी हमारे उपन्यासकारों, कहानी-लेखकों और कवियों पर झट से हावी हो जाता है। अगर सोवियत यूनियन को छोड़ दें तो शायद पूरे यूरोप में कोई हिंदुस्तानी साहित्य के बारे में जानता तक नहीं है। उदाहरण के लिए मैं अपने प्रांत पंजाब की ही बात करता हूं। मेरे पंजाब में युवा कवियों की नई पौध सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ इंकलाबी जज्बे से ओत-प्रोत है। इसमें भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण को हटाने और एक नई व्यवस्था बनाने की बात की जाती है। हम इसे नकार नहीं सकते, हमें सामाजिक बदलाव की जरूरत है। इन कविताओं में बातें तो बहुत अच्छी कही जाती हैं, पर इनका स्वरूप देसी नहीं होता। इस पर पश्चिम का प्रभाव है। वहीं की तरह ये मुक्त छंद में हैं, कोई तुकांत नहीं है। यदि वहां के कवियों ने लय और छंद का प्रयोग नहीं किया है तो पंजाबी कवियों को भी यही करना है। इसका परिणाम ये होता है कि ये इंकलाब एक छोटे से कागज पर ही रह जाता है, जिसकी तारीफ बस एक छोटे-से साहित्यिक समझ वाले समूह में हो जाती है पर वे किसान और मजदूर जो इस शोषण को झेल रहे हैं, जिन्हें वे इंकलाब की प्रेरणा देना चाहते हैं, इसे समझ ही नहीं पाते हैं। ये उन पर कोई असर नहीं डालती। अगर मैं ये कहूं कि बाकी हिंदुस्तानी भाषाएं भी इसी ‘न्यू वेव’ कविताओं के प्रभाव में हैं, तो गलत नहीं होगा।
आज़ादी के 25 साल बाद भी हम वही शिक्षण-प्रणाली ढो रहे हैं, जो मैकाले ने क्लर्क और मानसिक गुलामों को बनाने के लिए बनाई थी। वे गुलाम जो अपने ब्रिटिश मालिकों के बारे में सोच पाने में भी असमर्थ होंगे, वे, जो अपने मालिकों से नफरत करने के बावजूद भी उनकी हमेशा तारीफ करेंगे, उनके जैसे बोलने, कपड़े पहनने, गाने-नाचने में गर्व महसूस करेंगे। ये गुलाम, जो अपने ही लोगों से नफरत करते हैं और बाकियों को भी नफरत का पाठ पढ़ाने के लिए तैयार रहते हैं। क्या अब भी हमें आश्चर्य होगा कि विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों का अपनी शिक्षा-व्यवस्था से विश्वास उठता जा रहा है। एक और बात बताना चाहूंगा। अगर आज से कुछ साल पहले आप दिल्ली के किसी फैशनेबल विद्यार्थी को पतलून के साथ कुर्ता पहनने के लिए कहते तो वह आप पर हंस देता। पर आज यूरोप से आए हिप्पियों और ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ की संस्कृति की नकल में, पतलून के साथ कुर्ता पहनना सिर्फ फैशन ही नहीं बना, बल्कि कुर्ते का नाम ‘बुशर्ट’ हो गया है।
क्या आप कॉलेज के किसी विद्यार्थी से सिर के बाल और दाढ़ी-मूंछें मुंडवाने के लिए कह सकते हैं, जबकि फैशन इसे बढ़ाने का है? पर अगर कल योग के प्रभाव में आकर यूरोप के विद्यार्थी ऐसा करने लगें तो मैं दावे से कह सकता हूं कि अगले ही दिन कनाट प्लेस पर आपको गंजे सिर ही दिखेंगे। योग को इसकी जन्मभूमि में प्रचलित होने के लिए यूरोप से ही सर्टिफिकेट लेना होगा! मैं एक और उदहारण देता हूं। मैं हिन्दी फिल्मों में काम करता हूं और सभी जानते हैं कि इन फिल्मों के गीत और संवाद ज्यादातर उर्दू में लिखे जाते हैं। मशहूर उर्दू लेखक और कवि- कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, केए अब्बास, गुलशन नंदा, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी जैसे नाम इस काम से जुड़े रहे हैं। जब उर्दू में लिखी हुई फिल्म को हिन्दी फिल्म कहते हैं तो ये माना जा सकता है कि हिन्दी और उर्दू एक ही हैं। पर नहीं! क्योंकि हमारे ब्रिटिश मालिकों ने अपने समय पर इन्हें दो अलग भाषाएं कहा था इसलिए ये अलग हैं, पर आज़ादी के बाद भी हमारी हुकूमत, हमारे विश्वविद्यालय और हमारे विद्वान हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग भाषाएं माने हुए हैं।
क्या आपने कभी संसार के किसी और देश के बारे में भी ये सुना है कि वहां लोग बोलते एक भाषा हैं, पर लिखते समय वह दो भाषाएं कही जाती हों? कोई भी भाषा किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है। मेरी मातृभाषा पंजाबी के लिए दो लिपियां कबूल की गयी हैं। हिंदुस्तान में गुरुमुखी और पाकिस्तान में फारसी। दो लिपियों में लिखी जाने पर भी वह भाषा तो एक ही रहती है। पंजाबी तो दो लिपियों में लिखी जाने के बावजूद एक ही हैं, फिर हिन्दी और उर्दू अलग-अलग भाषाएं कैसे हो गयीं? मैं पूछता हूं कि आज हमारे देश के शासक किस भाषा को अपने प्रतिनिधित्व को मजबूत करने लायक समझते हैं? राष्ट्रभाषा हिन्दी? यहां मेरा अनुमान ये कहता है कि उनके उद्देश्यों की पूर्ति सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी ही कर सकती है। पर चूंकि उन्हें अपनी देशभक्ति का दिखावा भी करना है, इसलिए वे राष्ट्रभाषा हिन्दी की रट लगाए रहते हैं, जिससे जनता का ध्यान भटका रहे। पूंजीपति भले ही हजारों भगवानों में विश्वास करे पर वह पूजता सिर्फ एक को ही है- मुनाफे का भगवान। इस दृष्टिकोण से उसके लिए आज भी अंग्रेजी ही फायदेमंद है। औद्योगीकरण और तकनीकी विकास के इस दौर में अंग्रेजी ही फायदेमंद है। शासक वर्ग के लिए तो अंग्रेजी गॉड-गिफ्ट ही है।
अंग्रेजी भारत के आम मेहनतकश लोगों के लिए एक मुश्किल भाषा है। पहले के समय में फारसी और संस्कृत इन मेहनतकशों की पहुंच से दूर थीं, इसीलिए शासक वर्ग ने उन्हें राजभाषा का दर्जा दिया था, जिससे वे जनसाधारण में असभ्य, अशिक्षित होने की हीनता व आत्मग्लानि की भावनाएं पैदा करती रहें और वे खुद को कभी शासन के योग्य ही न बना पाएं। आज यही रोल अंग्रेजी भाषा अदा कर रही है। यही आज भारत का शासक वर्ग कर रहा है। वह देश में इंकलाब नहीं चाहता, कोई बुनियादी तब्दीली नहीं चाहता। अंग्रेजों से मिली हुई व्यवस्था को उसी प्रकार कायम रखने में उसका फायदा है। पर वह खुलेआम अंग्रेजी को अंगीकार नहीं कर सकता। राष्ट्रीयता का कोई न कोई आडंबर खड़ा करना उसके लिए जरूरी है। इसीलिए वह संस्कृतवादी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने का ढोंग करता है। उसे पता है कि संस्कृत शब्दों के बोझ तले दबी नकली और बेजान राष्ट्रभाषा अंग्रेजी के मुकाबले में खड़ी होने का सामर्थ्य अपने अंदर कभी भी पैदा नहीं कर सकेगी।
कोई भी देश तभी उन्नति कर सकता है, जब वह अपने अस्तित्व से पूरी तरह वाकिफ हो। इसे अपने लिए सोचना-सीखना होगा। इसे अपनी समस्याओं का समाधान खुद तलाशना होगा। पर मैं जिस ओर भी देखता हूं, मुझे लगता है कि हमारी हालत अभी भी उस पक्षी जैसी है, जो लंबी कैद के बाद पिंजरे से आज़ाद तो हो गया हो, पर उसे नहीं पता कि इस आज़ादी का करना क्या है। उसके पास पंख हैं पर वह खुले आसमान में उड़ने से डरता है। वह सिर्फ उस सीमा में ही रहना चाहता है, जो उसके लिए निर्धारित की गयी है। व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से हम वॉल्टर मिटी (एक उपन्यास का काल्पनिक चरित्र, जो एक काल्पनिक दुनिया में ही रहता है) जैसी ज़िंदगी ही जी रहे हैं। हमारे अंदर की ज़िंदगी बाहर की ज़िंदगी से बिलकुल उलट है। हमारी सोच और कामों में जमीन-आसमान का अंतर है। हम बदलाव तो चाहते हैं पर बरसों से चली आ रही लीक से हटकर सोच पाने का साहस नहीं जुटा पाते।
१९३० में जब महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन के लिए इंग्लैंड गए थे, तो उन्होंने इंग्लैंड के पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा था, ‘हिंदुस्तान के लोग ब्रिटिश सरकार की बंदूकों और मशीनगनों को उसी तरह देखते हैं, जिस तरह दीवाली के दिन उनके बच्चे पटाखों को देखते हैं।’ यह दावा वे क्यों कर सके? इसलिए कि उन्होंने हिंदुस्तानियों के दिलों में से अंग्रेज शासकों का डर निकाल दिया था। आम लोग अंग्रेज शासकों को इज्जत की जगह नफरत से देखने और उनके साथ असहयोग करने लगे थे। यह साहस महात्मा गांधी ने निहत्थे हिंदुस्तानियों के दिलों में भरा था।
आज अगर हम सचमुच चाहते हैं कि हमारे देश में समाजवाद (समानता, स्वावलंबन) आए, तो जनसाधारण को पैसे और रुतबे की छाया से आज़ाद कराने की जरूरत है। पर इस समय असलियत क्या है? हर तरफ पैसे और रुतबे का बोलबाला है। समाज में इज्जत उसकी ही है, जिसके पास मोटरें हैं, बंगले हैं, दौलत का दरिया बहता है। क्या कभी ऐसी हालत में बराबरी या समाजवाद आ सकता है? समाजवाद से पहले हमें वह माहौल लाना होगा, जहां सिर्फ धन-दौलत का होना ही सम्मान देने का पैमाना न बने। हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहां सबसे ज्यादा सम्मान उस गरीब या मजदूर को मिले जो चाहे शारीरिक मेहनत करता हो या मानसिक। अपने कौशल के साथ मेहनत करता हो या प्रतिभा के साथ। अपनी कला से देश की सेवा कर रहा हो या किसी आविष्कार से। इसके लिए पुरानी सोच को छोड़कर एक नई सोच लाने की जरूरत होगी। क्या हम कहीं से भी खुद में उस क्रांति या परिवर्तन को लाने के लिए तैयार हैं?
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