झारखंड की पत्रकार जेसिंता केरकेट्टा ने ठुकराया पुरस्कार का प्रस्ताव
जेसिंता केरकेट्टा ने न केवल एक बड़ा अवार्ड लेने से मना कर दिया है, बल्कि आज के मौजूदा दौर में जबकि लेखक और पत्रकार अपनी रीढ़ की हड्डी के साथ-साथ अपनी आत्मा तक का सौदा करने को आतुर हैं, जेसिंता ने बड़े सधे हुए लहजे में पूरी ईमानदारी से बता दिया है कि लेखकों, पत्रकारों की भी आत्मा होती है औऱ हर कोई बिकाऊ नहीं होता। इस सम्बन्ध में उन्होंने जो लिखा है, उसे हमें ध्यान से पढ़ना चाहिए और इस पर विचार भी करना चाहिए कि क्या हमारी देह में भी आत्मा है? क्या मानवता से इतर भी कोई जाति-धर्म है?
जेसिंता केरकेट्टा पत्रकारिता करती हैं और उरांव आदिवासी समुदाय से आती हैं. वे पश्चिमी सिंहभूम जिले के मनोहरपुर प्रखंड में खुदपोश गांव की रहने वाली हैं. अपने स्कूल के दिनों से ही वे कविताएं लिख रही हैं. पत्रकारिता में आने के बाद उनके कविता सृजन में थोड़ा ठहराव आ गया था, जिसे उन्होंने एक बार फिर गति दी है. जेसिंता की कविताओं में झारखंड और यहां के लोग हैं. जहाँ एक तरफ उनकी कविताओं में आदिवासी समाज की लूट और दोहन है, वहीं दूसरी तरफ गैर आदिवासी समाज के पाखंड और षड्यंत्र पर प्रहार भी है. आज जेसिंता केरकेट्टा की चर्चा इसलिए कि उन्होंने उनके नाम घोषित एक बड़े संगठन का एक बड़ा अवार्ड लेने से मना कर दिया है. न केवल मना कर दिया है, बल्कि आज के मौजूदा दौर में, जबकि लेखक और पत्रकार अपनी रीढ़ की हड्डी के साथ-साथ अपनी आत्मा तक का सौदा करने को आतुर हैं, जेसिंता ने बड़े सधे हुए लहजे में पूरी ईमानदारी से बता दिया है कि लेखकों, पत्रकारों की भी आत्मा होती है औऱ हर कोई बिकाऊ नहीं होता। इस सम्बन्ध में उन्होंने जो लिखा है, उसे हमें ध्यान से पढ़ना चाहिए और इस पर विचार भी करना चाहिए कि क्या हमारी देह में भी आत्मा है? क्या मानवता से इतर भी कोई जाति-धर्म है?
जेसिंता लिखती हैं कि पिछले दिनों मुझे एक अवार्ड के लिए फोन आया। यह अवार्ड इंडियन कैथोलिक प्रेस एसोसिएशन और कैथोलिक बिशप्स कांफ्रेंस ऑफ इंडिया द्वारा संयुक्त रूप से आदिवासियों से जुड़े मामलों पर लेखन के लिए देश के किसी एक पत्रकार को दिया जाता है। इस अवार्ड के लिए फोन आने के बाद मैंने उनकी वेबसाइट पढ़ी और यह जाना कि यह अवार्ड केवल ईसाई पत्रकारों को दिया जाता है। मैंने उन्हें एक मेल भेजा, यह कहते हुए कि मैं खुद को किसी धर्म के दायरे में नहीं रखती। मेरे माता-पिता से अपने आप जो संगठित धर्म मुझे मिला, होश संभालने के बाद मैंने खुद को उससे बाहर कर लिया है।
संगठित धर्म ने आदिवासियों को जोड़ने के बजाय, उनके बीच विभाजन पैदा किया है। समय है कि उस भेद को मिटाकर लोग आदिवासियत के नाम पर एक साथ आएं। गांवों में हमारा यही प्रयास है। मैं बतौर आदिवासी, अपनी जड़ें तलाश रही हूं और यूनिवर्सल वैल्यू को ही केन्द्र में रखकर आदिवासियों की बात करती हूं। मुझे किसी धर्म के खेमे में रखे बिना जनपक्षधर लेखन के लिए कोई सम्मान दिया जाए तो मुझे खुशी होगी। उन्होंने दूसरे दिन मेरी स्पष्टता की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह अवार्ड सिर्फ़ ईसाई पत्रकारों के लिए ही है और हम नियम से बंधे हुए हैं।
बाद में मैं देर तक सोचती रही कि जो खुद ही बंधे हुए हैं, वे दूसरों की मुक्ति की बात कैसे करते हैं? वह ईश्वर, जो उन्हें मुक्त नहीं कर पा रहा, वह शेष लोगों को किस तरह मुक्त करेगा? आदिवासियों के मुद्दों पर लेखन करने वाले आदिवासी क्यों सम्मानित नहीं किए जा सकते? उनका किसी संगठित धर्म से ही होना क्यों जरूरी है? मुझे खुशी और संतोष है कि समय रहते मैं अपनी बात कह सकी। यह अनुभव मैं सिर्फ़ इसलिए साझा कर रही हूं कि मानवता, व्यापकता की बात करते हुए भी कोई धर्म कैसे अपने आप में संकुचित होता जाता है, यह लोगों को समझना चाहिए।
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