इकतीस दिसम्बर दो हजार उन्नीस को डब्ल्यूएचओ को नोटीफाई किया गया कि वुहान में एक अनजान तरह के न्यूमोनिया से लोग बीमार हो रहे हैं। वैज्ञानिक एकमत हुए कि यह एक वायरसजन्य बीमारी है, जो शायद किसी जंगली चमगादड़ प्रजाति से आई है, पर एचआईवी वायरस की खोज के लिए नोबल पुरस्कृत ल्यूक मॉनटैनियर कहते हैं कि संभवतः वुहान की एक अति आधुनिक प्रयोगशाला में एचआईवी की वैक्सीन पर काम चल रहा था। इस वायरस की वैक्सीन बनाने के लिए एक अन्य वायरस को जीन स्तर पर काटा छांटा जा रहा था।
यहां वैक्सीन के विषय में थोड़ा जान लेना उचित होगा,मोटे तौर पर किसी शरीर में किसी बीमारी से लड़ने की क्षमता पैदा करने के लिए उसी बीमारी के कीटाणु या विषाणु का ऐसा हिस्सा या टाक्सिन शरीर में डाला जाता है, जो बीमारी से लड़ने वाले एंटीबाडीज़ को बनने की तो प्रेरणा दे, पर स्वयं बीमारी न पैदा करे।
एचआईवी के जीनोम का एक छोटा हिस्सा कोरोना से मिलता जुलता है, इससे भी मॉनटेनियर की बात सही लगती है। वे कहते हैं कि एचआईवी का या कोई अन्य वायरस, जिसे वैक्सीन बनने के लिए तराशा जा रहा था, अनायास ही वैज्ञानिकों के कंट्रोल से बाहर निकल गया और एक नयी तरह की बीमारी का कारक बन गया।
पहला शिकार हुईं उसी लैब की एक टेक्नीशियन और दूसरा उसका पुरुष मित्र। फिर उनसे स्थानीय मछली बाजार में एक नयी अनोखी बीमारी फैल गयी। वुहान को तत्काल प्रभाव से सील कर दिया गया, पर प्रकृति क्रोध में थी। उसने मनुष्य का अधिकार मानने से विद्रोह कर दिया और यह सूक्ष्म जीव किन्हीं रास्तों से निकलकर पूरे विश्व में कहर बरपा करने लगा।
भारत सरकार ने चौबीस मार्च को लॉकडाउन की घोषणा की, तब तक यह अनुमान नहीं था कि इस कहर की उम्र क्या है? कब तक और किस हद तक यह मानव को प्रभावित करेगा, यह अभी काल के गर्त में था। सामान्य मनुष्य को वैश्विक महामारी के बारे में ही जानकारी न थी, तो कोरोना तो था ही एकदम से अचकचा देने वाला नया नकोर वायरस। वैज्ञानिकों को इसकी संरचना का आकार प्रकार जानने में जितना समय लगा, उतने में तो यह दूर दूर तक पहुंच गया।
आज से सौ साल पहले का नागरिक इन अनायास आने वाली विपदाओं के लिए कुछ हद तक तैयार रहता था। बिजली गिरने, बाढ़ आने और सूखा पड़ने की ही तरह चेचक या किसी और महामारी की जिम्मेदारी ईश्वरीय प्रकोप पर रख छोड़ना सुगम उपाय था या कहें कि तब कोई चारा ही नहीं था चुपचाप स्वीकार करने के सिवाय। पर पिछले कई दशकों से हमने ऐसी महामारी नहीं देखी थी, जो हमारे सबसे विश्वसनीय डॉक्टर को भी डरा रही थी। समानांतर अन्वेषण जैसी कोई चीज़ होती है, हम भूल चुके थे। हम भूल चुके थे हैजा, प्लेग, स्मॉल पॉक्स से उत्पन्न अपनी असहायावस्था को। हम भूल चुके थे कि विश्व की पहली वैक्सीन बनने में सालों नहीं, सदियां लगी थीं। हम भूल चुके थे कि पहले भी महामारी फैलती थी तो घरों में क़ैद हो जाने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं होता था।
लॉकडाउन तक तो मजबूरी रही, पर लॉकडाउन हटते ही हम अदबदा के बाहर निकले और शादियां, मेले, रैलियां, जलसे और उत्सव शुरू हो गये। ऐसा नहीं था कि ये सिर्फ हमारे देश में हुआ, बल्कि सभी जगह मनुष्य एक ही तरह व्यवहार करता रहा और इस प्रलय को बढ़ने का मौका देता रहा।
बीच के कुछ महीनों में केस की दर घटने से हम निश्चिंत हो गये, सरकारें और वैज्ञानिक भी कुछ हद तक स्थिति नियंत्रित समझने लगे, लेकिन फिर ये वायरस रूप बदलकर आ गया। इस बार निश्चित रूप से कई स्ट्रेन के वायरस हवा में घूम रहे थे। इनमें से कुछ सहृदय थे तो कुछ अत्यंत घातक। कुछ स्ट्रेन दिनों में क्या, घंटों में फेफड़ों को चूहे की रफ्तार से कुतर कर रख देते।
अप्रैल दो हजार इक्कीस तो एक महीने लंबी कयामत की रात थी। अस्पतालों में बिस्तर नहीं, आक्सीजन नहीं, डॉक्टर नहीं, स्टाफ नहीं और मृत्यु दर इतनी ऊंची कि शायद ईश्वर भी हक्का बक्का खड़ा देखता रह गया।
वैक्सीन बन चुकी थी और महामारी की विभीषिका के दौरान वैक्सीन नहीं लगाई जानी चाहिए, पर लगाई जाती रही। कुछ उसी तरह, जैसे डूबता हुआ इंसान हाथ पैर मारता है।
मई के आखीर तक महामारी उतार पर दिखने लगी और अब शुरू हुआ दोषारोपण का खेल। सरकार स्थिति से निपटने में नाकाम रही थी, पर इसे सर झुका कर मानने को कैसे तैयार होती। स्वास्थ्य कर्मी हमेशा की तरह ढ़ाल की तरह बरते गये। सारी जिम्मेदारी डॉक्टरों और अस्पतालों पर डाल दी गयी।
जनता के कई प्रश्न थे, जैसे पहले ये दवा दी गयी, अब मना हो गयी, तब पहले क्यों दी गयी? यह अब करने लगे, पहले जब मेरे संबंधी की मृत्यु हुई, तब क्यों नहीं किया?
नयी बीमारी का इलाज उसके आने के बाद ही ढ़ूंढा जा सकता है। पहले इलाज और वैक्सीन मिल जाये, बाद में महामारी आये, ऐसा संभव नहीं। किसी भी दवा की कामयाबी स्थापित करने के आंकड़े जुटाने में समय लगता है। ये अजीब लगने वाली बातें त्रस्त और दुखी जनता सुनने को तैयार नहीं थी और डाक्टर अपने घरवालों को ही बचा सकने में असमर्थ, इन सवालों का जवाब देने मे कतई उत्सुक न थे।
महामारी की लहर को एक दिन गुजरना था, गुजरी पर ब्लेम गेम की बीमारी स्थाई थी। पूरे विश्व में तरह तरह से एक दूसरे पर दोषारोपण किया गया। इन्हीं दिनों जब स्वास्थ्य सेवाओं को समृद्ध और उत्साहित किया जाना चाहिए था,भारत में एक अलग ही विमर्श चलने लगा, ऐलोपैथी बनाम आयुर्वेदिक का।
शुरुआत में तो शायद हताशा में स्वयं ही कुछ उपाय सोचने की बेचैनी में यह हुआ, लेकिन बाद में एक आयुर्वेदिक दवा निर्माता ने यह मुद्दा अपने हित साधन के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। आयुर्वेद के बहाने तरह तरह के आहार और घरेलू नुस्खे भी एलोपैथी से बेहतर बताये जाने लगे। आयुर्वेद के एक व्यवसायी ने तो सीधे आरोप लगा दिया कि ऐलोपैथी की वजह से यह बीमारी फैली। मज़ा यह कि उक्त दवा व्यवसायी ने आयुर्वेद की विधिवत पढ़ाई कभी नहीं की।
इस पूरी जंग में आयुर्वेदिक डाक्टरों और आयुर्वेदिक दवा कंपनियों को नेपथ्य में भेज दिया गया। बात उड़ी तो ऐसे उड़ी कि रातों-रात आयुर्वेदिक पद्धति हिंदू और आधुनिक दवा पद्धति ईसाई हो गयी। सच यह है कि जिसे हम आम बोल चाल में ऐलोपैथी कहते हैं, वह कोई जड़ विचार नहीं है, इसमें लगातार परिवर्तन आते हैं। इसे दर असल साक्ष्य आधारित पद्धति या इविडेंस बेस्ड मेडिसिन कहना चाहिए।
जब हम यह समझना शुरू करते हैं कि माडर्न शब्द का अर्थ कभी किसी स्थाई वस्तु या व्यवस्था से नहीं निकाला जा सकता, तब हम समझ पाते हैं कि आयुर्वेद और नयी साक्ष्य आधारित पद्धति में अंतर बहुत कम है। बल्कि कहना चाहिए कि दुनिया की पहली इविडेंस बेस्ड मेडिसिन प्रणाली आयुर्वेद ही थी। यह तब तक नहीं समझा जा सकता, जब तक हम हल्दी चूना लगाने को ही आयुर्वेद समझते रहेंगे।
आयुर्वेद कोई धार्मिक ग्रंथ नहीं है। बौद्ध प्रभाव से आयुर्वेद पर कई तरह के प्रतिबंधों की वजह से हिंदू राजाओं का आश्रय लेना प्राचीन आयुर्वेदिक चिकित्सकों की मजबूरी थी। पर संगठित धर्मानुसार हिंदू ने कभी आयुर्वेदिक चिकित्सकों को उनका समुचित स्थान, सम्मान नहीं दिया।
ऊपर जो कहा है कि आयुर्वेद विश्व की पहली इविडेंस आधारित चिकित्सा प्रणाली थी,वैसा कहने का आधार है सुश्रुत द्वारा विश्व में सबसे पहले किये गये शव परीक्षण और शल्य चिकित्सा के प्रयोग। आयुर्वेद के बहाने सुश्रुत को आज हिंदुत्व का प्रतिनिधि कहने वाले संभवतः नहीं जानते कि सुश्रुत कभी समाज में न रह सके, उन्हें शव परीक्षण के अपराध में शिष्यों सहित श्मशान में ही अथवा ग्राम की सीमा पर झोंपड़ी बना कर रहना पड़ा था।
भारतीय आयुर्वेद ने सातवीं शताब्दी में स्माल पॉक्स के लिए वैरियोलेशन की तकनीक प्रयोग में लाई थी। इस तकनीक में चमड़ी पर चीरा लगाकर स्मॉल पॉक्स के छालों का पानी सुखाकर बनाया चूर्ण छिड़का जाता था, जिससे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता आ जाती थी। माडर्न इविडेंस बेस्ड मेडिसिन प्रणाली और आयुर्वेद में मात्र इतना अंतर है कि आयुर्वेद पर मठाधीशों ने कब्जा कर लिया और आधुनिक चिकित्सा प्रणाली सबके लिए उपलब्ध रही।
सुश्रुत और चरक को ईश्वर बनाकर स्थापित कर देने मात्र से अगर स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हो पातीं, तो किसी को भी क्या आपत्ति होगी? मगर अफसोस कि ऐसा होगा नहीं। आवश्यकता है सम्यक और सहयोगी अनुसंधान की, जिससे नये नये वायरस और बीमारियों पर विजय पाई जा सके, न कि दीमक लगी पोथियों या लोकोक्तियों के आधार पर ‘मैं अच्छा, तू बुरा’ की लड़ाई लड़ने की। जहां तक दोनो पद्धितियों में आर्थिक अंतर की बात है तो हमें समझना पड़ेगा कि जहां नये अनुसंधान हो रहे होंगे, जहां विश्व स्तरीय संसाधन जुटाये जायेंगे,जहां अधिक मैन पावर की जरूरत होगी, वहीं पैसा भी लगेगा। जहां सिर्फ मीठी बातों से काम चलाया जा रहा होगा, वहां क्या खर्च!
दूसरे अगर संस्थान या व्यक्ति जमाखोरी या भ्रष्टाचार कर रहा है, तो इसमें चिकित्सा प्रणाली दोषी कैसे हो गयी? प्राचीन महानता और धार्मिक उन्माद पर आधारित इस शोशेबाजी से आखिर किसका फायदा होगा? सामान्य जन का तो बिल्कुल फायदा नहीं है।
आज स्वास्थ्य सेवाओं को और अधिक मजबूत किये जाने की आवश्यकता है, जो इस तरह के विवादों से और कमजोर ही पड़ेंगी। आमूल चूल परिवर्तन न भी किया जा सके, तो कम से कम ढीले पड़े नट बोल्ट तो कसे जायें!
सरकारी सुविधाएं बढ़ाने की सख्त जरूरत है, पर केवल वेलफेयर स्टेट से भी काम नहीं चलता। इसके बुरे नतीजे विश्व के कई देश भुगत चुके हैं। सामाजिक बीमा आधारित सरकार द्वारा संचालित अस्पताल बढ़ाने चाहिए और सरकारी अस्पतालों और प्राइवेट अस्पतालों के बीच की दूरी पाटनी चाहिए। भारतीय चिकित्सा पद्धति पर पूरा ध्यान देना चाहिए, पर हम विश्व नागरिक भी हैं, यह भी याद रखना पड़ेगा।
सामान्य जनता को अपने अधिकारों के प्रति अवश्य सचेत होना चाहिए, पर अब समय है कि जनता अपने कर्तव्यों के प्रति भी चेते। हमारा सामान्य ज्ञान, तत्परता, सावधानी और सहसंवेदना ही हमें इन महामारियों के पार ले जा सकती है।
-डॉ. ज्योत्सना मिश्रा
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