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आलोचनाओं में नहीं, गांधी अपने विचारों में प्रकट हैं

-डॉ. रवीन्द्र कुमार

गाँधीजी को विश्वभर में एक राजनेता, एक समाज सुधारक एवं एक महात्मा के रूप में
स्वीकार किया जाता है. राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में गाँधीजी के विचार
और कार्य समालोचना के विषय रहे हैं, उनके सांस्कृतिक विचारों से स्वयं उनके जीवनकाल
में उन्हीं के निकट साथियों-सहयोगियों सहित अनेक अन्य लोग भी असहमत रहे, ऐसा
होना स्वाभाविक था. वैचारिक मतभेद और कार्यपद्धति से असहमति होना कोई
अस्वाभाविक स्थिति नहीं है. यह सदा से विद्यमान स्थिति है. इतना ही नहीं, संसार भर में
हजारों की संख्या में गाँधीजी पर उन्हीं के जीवनकाल में और उनके निधन के बाद भी उनके
जीवन, कार्यों तथा विचारों को केन्द्र में रखकर ग्रन्थ लिखे गए. उन पर शोधकार्य हुए, अभी
भी हो रहे हैं. विश्व भर में अनेक विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों में गाँधी-
अध्ययन व शोध केन्द्र स्थापित हैं. इसके बाद भी शिक्षा-जगत उन्हें विधिवत विद्वान मानने
को तैयार नहीं है. स्वयं भारत में गाँधीजी के राजनीतिक और सामाजिक विचारों, उनके
सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक दृष्टिकोण तथा आर्थिक सोच की अनेक द्वारा आलोचना की गई
तथा अभी भी की जाती है. उनके विचारों और कार्यो के अति तीखे आलोचक आज भी हैं,
जो विशेषकर उनके राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विचारों पर, उनके आमजन
केन्द्रित होने के बाद भी प्रश्नचिह्न लगाते हैं.
गांधी जी अपने राष्ट्रवाद, समाजवाद और संस्कृति-सम्बन्धी विचारों के लिए
समाजशास्त्रियों की आलोचना के शिकार हुए. उनकी पुस्तक हिन्द स्वराज, इसीलिए तीव्र

आलोचना की पात्र बनी. आलोचकों ने गाँधीजी के राष्ट्रवाद में वृहद् मानवतावाद के स्थान
पर आँखें मूंदकर एकांगिता देखी. उनके कथन, “मेरे लिए देशप्रेम और मानव-प्रेम में कोई
भेद नहीं है; दोनों एक ही हैं; मैं देशप्रेमी हूँ, क्योंकि मैं मानव-प्रेमी हूँ” की जाने-अनजाने
अनदेखी कर उनके राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचारों को पश्चिम के राष्ट्रवाद के दृष्टिकोण के ही
सामान मानकर उनकी भी आलोचना की. यही नहीं, गाँधीजी के स्पष्ट और अति
प्रगतिशील कथन “वृहद् मानव कल्याण-भावना को हृदय में रखकर सजातियों के वृहद्
सहयोग, सहकार और सौहार्द्र के साथ विकासपथ पर निरन्तर आगे बढ़ना होगा. आगे नहीं
बढ़े, तो पीछे गिरना होगा” को आलोचकों ने अनदेखा कर, उनके विचारों में रूढ़िवादिता
देखी.
विशेषकर गांवों के देश भारत में आम जन को आजीविका की प्रत्याभूति प्रदान करते,
लोगों की आत्मनिर्भरता को सुनिश्चित करते और देश की अर्थव्यवस्था में अति महत्त्वपूर्ण
भूमिका का निर्वहन करते लघु उद्योगों और कृषि से जुड़े कुटीर उद्योगों को गाँधीजी द्वारा
भारी उद्योगों की अपेक्षा प्राथमिकता दिया जाना बड़े उद्योगों के समर्थक अर्थशास्त्रियों,
उद्योगपतियों-पूंजीपतियों, पश्चिम के समाजवाद समर्थकों, साम्यवादियों आदि को रास
नहीं आया.
स्वानुभूति द्वारा सर्व समानता की सार्वभौमिक सत्यता को स्वीकार करते हुए सबके
कल्याण में ही अपना कल्याण देखते हुए, नैतिकता का आलिंगन करते हुए संसाधनों, भूमि,
धन-सम्पदा – पूंजी आदि का अपने को ट्रस्टी समझते हुए प्राप्तियों का व्यक्ति द्वारा व्यापक
जनहित में सदुपयोग गाँधीजी के संरक्षकता सिद्धान्त की मूल भावना थी.
इसके माध्यम से उन्होंने अंत्योदय व सर्वोदय –सर्वोत्थान का आह्वान किया, जिसका
विशुद्ध उद्देश्य प्रत्येक जन को, किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना, समान रूप से समुचित
अवसर सुलभ कराकर, उसके चहुँमुखी विकास हेतु सक्षम बनाना था. लेकिन व्यक्तिवादियों,
गुण-सर्वोच्चता की मानसिकता पालने वालों अथवा सम्पन्नता को अपना जन्मजात
एकाधिकार मानने वालों को महात्मा गाँधी का ऐसा विचार पसन्द क्यों आए?
शिक्षा-जगत में उन्हें विधिवत विद्वान न माने जाने की बात मैं पहले ही कह चुका हूँ,
यद्यपि मेरे दृष्टिकोण से गाँधीजी के शिक्षा-सम्बन्धी विचार अद्वितीय हैं. अपने शैक्षणिक
विचारों के आधार पर वे एक श्रेष्ठ शिक्षाविद के रूप में स्थापित होते हैं. चार पक्षीय शिक्षा-
व्यवस्था-सम्बन्धी उनका दृष्टिकोण व्यक्तित्व के चहुँमुखी विकास का श्रेष्ठ मार्ग है. उनका
बुनियादी शिक्षा-सम्बन्धी विचार आज भी न केवल प्रासंगिक है, अपितु शिक्षा की मूल
भावना और उद्देश्य-प्राप्ति हेतु कारगर है और इसीलिए वह अनुकरणीय है.
गाँधी-विचार आलोचनात्मक विश्लेषण के बाद अपने बड़े-से-बड़े आलोचक के अंतर को
गहराई तक झकझोरता है. मार्टिन लूथर किंग जूनियर, जो प्रारम्भ में गाँधीजी के अहिंसा-

केन्द्रित विचार के यदि पूर्णतः आलोचक नहीं थे, तो उससे सहमत भी नहीं थे. गाँधी-विचार
के मूल में जाने के बाद की स्वीकारोक्ति इस वास्तविकता का एक उत्कृष्ट उदहारण है कि
आलोचनात्मक विश्लेषण विचार को सुदृढ़ बनाता है और उसकी महत्ता को निखारता है.
इसीलिए, मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था, “गाँधी के अहिंसक प्रतिरोध दर्शन में
मैंने केवल नैतिकता से भरपूर और व्यावहारिक दृष्टि से सुदृढ़ वह उपाय पाया है, जो सताए
हुए लोगों को अपनी स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए सुलभ है.”
अपने सार्वजनिक जीवन के पूर्वार्द्ध में नेल्सन मण्डेला गाँधी-विचार से पूर्णतः सहमत
नहीं थे. दक्षिण अफ्रीका के मण्डेला से जुड़े घटनाक्रमों और उनके संघर्ष वृतान्त से
परिचितजन, विषय-विशेषज्ञ और इतिहासकार यह जानते हैं कि एक समय ऐसा भी आया,
जब वे इससे बहुत दूर चले गए थे. लेकिन अन्ततः जीवन के उत्तरार्द्ध में स्वतंत्रता के ध्येय-
प्राप्ति के द्वार पर खड़े मण्डेला ने यह स्वीकार किया कि अहिंसा-मार्ग का वास्तव में कोई
विकल्प नहीं है.
ये दो स्वीकारोक्तियाँ अनायास ही नहीं थीं. दोनों ने दमन व अत्याचारों के शिकार
लोगों के लिए संयुक्त राज्य अमरीका और दक्षिण अफ्रीका में सतत संघर्ष किए थे. यह
निस्सन्देह उनके द्वारा शुद्ध हृदय से गाँधी-विचार की मूल भावना को समझने, तदनुरूप की
गई कार्यवाहियों और संघर्षों में हुए अनुभवों से प्राप्त उपलब्धियों का ही परिणाम था.
गाँधी-विचार के मूल में सार्वभौमिक एकता की सत्यता विद्यमान है. सार्वभौमिक
एकता, सर्व-समानता और सर्व-कल्याण का आह्वान करती है. वैसे तो सर्व-समानता की
वृहद् अवधारणा में प्राणिमात्र सम्मिलित हैं. लेकिन इसमें सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में
मनुष्य प्राथमिकता पर है. महात्मा गाँधी के विचारों की यह मूल भावना उन्हें महात्मा के
रूप में स्थापित करती है.
प्राणिमात्र को केन्द्र में रखते हुए गाँधीजी कहा, ‘मैं न केवल मनुष्य के नाम से पहचाने
जाने वाले प्राणियों के साथ भ्रातृत्व और एकात्मकता सिद्ध करना चाहता हूँ, अपितु समस्त
प्राणियों के साथ उसी प्रकार एकात्मकता सिद्ध करना चाहता हूँ. कारण, हम सब उसी एक
सृष्टा की सन्तति होने का दवा करते हैं और इसलिए प्राणी, उसका रूप कुछ भी हो, मूलतः
एक ही हैं.’ उनका मिशन केवल भारतीयों के भ्रातृत्व तक ही सीमित नहीं है, उनका मिशन
केवल भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति तक ही नहीं है, बल्कि भारत की स्वतंत्रता की प्राप्ति के
माध्यम से वे सारे संसार में मानवीय भ्रातृत्व के अपने मिशन को साकार करने की दिशा में
आगे बढ़ने की आशा करते हैं। अपने विचारों को और आगे बढ़ाते हुए तथा विशेष रूप से
देशभक्ति को केन्द्र में रखते हुए गाँधीजी ने कहा, “मेरा देशप्रेम कोई बहिष्कारशील वस्तु
नहीं है. यह अतिशय व्यापक वस्तु है और मैं उस देशप्रेम को वर्ज्य मानता हूँ, जो दूसरे राष्ट्रों
को कष्ट देकर या उनके शोषण से अपने देश को ऊँचा उठाना चाहता है. देशप्रेम की मेरी

कल्पना यह है कि वह सदैव बिना किसी अपवाद के प्रत्येक स्थिति में मानव-जाति के
विशालतम हित के साथ सुसंगत होना चाहिए.
1939 में गाँधीजी ने द्वितीय विश्व युद्ध में सरदार वल्लभभाई पटेल, पण्डित
जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे वरिष्ठ नेताओं और अपने
निकटवर्ती साथियों की इच्छा के विरुद्ध जाकर, भारत को स्वाधीनता दिए जाने की
प्रत्याभूति की शर्त पर भी, साम्राज्यवादियों को सहयोग देने से मना कर दिया. कारण
महायुद्ध में मानवता का कुचला जाना था. निर्दोषजन का रक्त बहना था. लेशमात्र भी
कल्याण नहीं, विनाश होना था, और वह हुआ. हम सब इस वास्तविकता से परिचित हैं.
उन्होंने इसीलिए साम्राज्यवादियों को सहयोग देने के स्थान पर उनसे भारत छोड़ने को
कहा. 1940 का व्यक्तिगत सत्याग्रह और 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन उनकी उसी
पुकार का परिणाम थे.
1925 में उन्होंने यह स्पष्टतः कहा था, “मैं भारत का उत्थान इसलिए चाहता हूँ कि
सारा संसार उससे लाभ उठा सके. मैं यह कदापि नहीं चाहता कि भारत का उत्थान दूसरे
देशों के नाश की नींव पर हो.” (यंग इण्डिया, 12 मार्च, 1925) एवं, “मैं भारत को स्वतंत्र
और बलवान बना हुआ देखना चाहता हूँ, क्योंकि मैं चाहता हूँ कि वह संसार के भले के
लिए स्वेच्छापूर्वक अपनी पवित्र आहुति दे सके.” (यंग इण्डिया, 17 सितम्बर, 1925)
गाँधीजी के के कथनों में विशुद्ध मानव-कल्याण की भावना थी. यही उनके विचारों का
मूल है और स्वयं उनकी साधुता –पुण्यता की पहचान है. इसी के आधार पर उनके विचारों
और कार्यों को आज समस्त पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर भारत ही नहीं, विश्व भर में सभी आम
और खास जन द्वारा समझे जाने की नितान्त आवश्यकता है. देशकाल की परिस्थितियों की
माँग के अनुसार गाँधी-विचार व मार्ग को परिमार्जित कर उसकी मूल भावना को यथावत
रखते हुए अपनाए जाने की आवश्यकता है.

-पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ. रवीन्द्र कुमार शिक्षाशास्त्री
एवं मेरठ विश्वविद्यालय, के पूर्व कुलपति हैं।

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