सरकारी और संगठित क्षेत्र में बहुत सीमित रोज़गार है, इसलिए ज़रूरी है कि जो जहां पैदा हुआ, जहां उसका घर है,उसे वहीं उसके दर पर कोई सम्माजनक रोज़गार मिले। यह सम्भव है अगर हम अपनी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था का विकेंद्रीकरण करें। अलग अलग भौगोलिक,आर्थिक, सांस्कृतिक क्षेत्र के अनुसार स्वायत्तशासी इलाक़े अपनी बुनियादी ज़रूरतों के अनुसार कृषि, बागवानी, पशुपालन, कपड़ा, भवन निर्माण और स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की नीतियां बनाएं, जिनमें स्थानीय भूमि, जल, खनिज और अन्य कच्चे माल की उपलब्धता के अनुसार पारम्परिक अनुभूत ज्ञान व हुनर के आधार पर इन्सान और पशु मिलकर उत्पादन करें।
बच्चे के जन्म लेते ही माँ बाप को यह चिंता सताने लगती है कि उसे रोज़गार कहाँ मिलेगा? ऐसा इसलिए कि टेक्नोलोजी, पूँजी और श्रम के रिश्ते लगातार बदलते जा रहे हैं। अब जो नयी टेक्नोलोजी प्रचलित है, उसमें मशीन आदमी की सहूलियत या मदद के लिए नहीं, बल्कि उसका स्थान लेने को तत्पर है। रिसर्च और डिज़ाइन एक जगह होगी, कच्चा माल दूसरी जगह से आएगा, सामान बनेगा तीसरी जगह, जहाँ मज़दूरी कम होगी और बिकेगा पूरी दुनिया में, जहां लोगों की जेब में पैसा होगा।इस बाज़ार के विस्तार के लिए बड़ी सड़कों और इंटरनेट का जाल फैलाया जा रहा है। मुनाफ़े का सबसे ज़्यादा हिस्सा उसका होगा, जो पूँजी लगाएगा। जिन लोगों की जेब में पैसा नहीं होगा, उनको न्यूनतम बेसिक आमदनी या मुफ़्त का अनाज, घर, चूल्हा, रसोई गैस आदि की सुविधा देने की बात कही जा रही है, ताकि वे व्यवस्था के ख़िलाफ़ बग़ावत न करें।
लेकिन क्या निठल्ले बैठकर आमदनी अथवा खुराक मात्र से आदमी संतुष्ट हो जाएगा?
रोज़गार क्या केवल पेट भरने के लिए ज़रूरी है, अथवा उसका सम्बन्ध इंसान के दिलोदिमाग़ और आत्मसम्मान से भी है? दूसरे, रोज़गार क्या सिर्फ़ अपने लिए है या उसमें अपने आश्रित लोगों की सामाजिक सुरक्षा अर्थात् माँ बाप की देखभाल और सेवा भी शामिल है? बहुत से लोग सुदूर देशों में रोज़गार तो पा जाते हैं, लेकिन उनके बच्चे अपने बुज़र्गों के स्नेह और अनुभवजन्य ज्ञान से वंचित रह जाते हैं और बुजुर्ग भी तड़पकर एकाकी जीवन बिताते हैं। अभी कोरोना काल में यह भी देखने में आया कि जो लोग कमाने खाने के लिए गाँव से महानगरों में गए, लॉकडाउन लागू होने पर उन्हें किराए के मकान छोड़कर रोते बिलखते पैदल अपने गाँवों को वापस आना पड़ा। गाँव, घर वापस आकर कुछ दिन गुजर बसर हो पाया और फिर मजबूरी में काम, वेतन की नौकरियों या फुटपाथ पर रोज़गार के लिए वापस उन्हीं शहरों की मलिन बस्तियों की ओर रुख़ करना पड़ा।
सरकारी और संगठित क्षेत्र में बहुत सीमित रोज़गार है, इसलिए ज़रूरी है कि जो जहाँ पैदा हुआ, जहां उसका घर है, उसे वहीं उसके दर पर कोई सम्माजनक रोज़गार मिले। यह सम्भव है अगर हम अपनी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था का विकेंद्रीकरण करें। अलग अलग भौगोलिक, आर्थिक, सांस्कृतिक क्षेत्र के अनुसार स्वायत्तशासी इलाक़े अपनी बुनियादी ज़रूरतों के अनुसार कृषि, बागवानी, पशुपालन, कपड़ा, भवन निर्माण और स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की नीतियां बनाएं, जिनमें स्थानीय भूमि, जल, खनिज और अन्य कच्चे माल की उपलब्धता के अनुसार पारम्परिक अनुभूत ज्ञान व हुनर के आधार पर इन्सान और पशु मिलकर उत्पादन करें। अभी स्थानीय उत्पादन न के बराबर रह गए हैं, सब बाहर से आयात होता है. केवल वही वस्तुएँ बाहर से आयें, जो वहां नहीं बन सकती हों और वही माल बाहर जाये, जिसकी ज़रूरत या खपत वहां न हो. इन इलाक़ों की शिक्षा, यहां की स्थानीय भाषा-बोली में हो और यहां रोज़गार की ज़रूरतें पूरी करे.
पुरानी ग्रामीण तकनीकी में सुधार की ज़रूरत है, लेकिन नयी तकनीक टिकाऊ और आदमी की सहायता करने वाली हो, न कि उसे बेकार करने वाली. मसलन खेतों की जुताई और फसल काटने आदि के लिए बैल या दूसरे पशु का इस्तेमाल हो, न कि ट्रैक्टर अथवा हार्वेस्टर का इस्तेमाल हो. कपड़ा तैयार करने और सिलने, जूते-चप्पल आदि बनाने के लिए बड़ी मशीनों, कारख़ानों के बजाय स्थानीय दर्ज़ी या अन्य कारीगरों का इस्तेमाल हो. प्लास्टिक की जगह मिट्टी के बर्तनों और पत्तों से दोना पत्तलों का इस्तेमाल हो. भवन निर्माण के लिए भी सीमेंट, लोहा और शीशे के बजाय, मिट्टी बांस खर पतवार आदि लोकल मैटीरियल लगें.
आजकल दवाई पर बहुत पैसा खर्च होता है. ज़रूरी है कि स्थानीय परम्परागत ज्ञान और वनस्पतियों का इस्तेमाल हो. इससे इन वनस्पतियों को उगाने वालों को भी रोज़गार मिलेगा. यह केवल कुछ उदाहरण मात्र हैं, तात्पर्य यह है कि उत्पादन का विकेंद्रीकरण हो और उसमें अधिक से अधिक लोगों की भागीदारी हो. हर स्वायत्तशासी इलाक़े में मानव संसाधन का नियोजन इस तरह हो कि केवल वहां की ज़रूरत से अधिक लोगों को ही उच्च शिक्षा के लिए जाने के अवसर हों, जो देश और समाज की बाक़ी ज़रूरतों को पूरी करें.
अगर हम लोगों को दर पर यानी उनके घर के क़रीब सम्मानजनक रोज़गार सृजित कर सकें, तो शहरों में अनावश्यक पलायन और उससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं में कमी आयेगी. जब लोगों को अपने घर के पास, अपने दर पर रोज़गार मिलेगा तो मन प्रसन्न रहेगा और न केवल लोग डिप्रेशन का शिकार होने से बचेंगे, बल्कि बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल भी बेहतर होगी.
सवाल वाजिब है कि यह होगा कैसे ? इसके लिए ज़रूरी है कि हमारी नीतियां बनाने वाला शासक वर्ग पूंजीपतियों के चंगुल से मुक्त हों और उनमें न केवल भारत, बल्कि भारत के लोगों को भी आत्मनिर्भर बनाने की दृढ़ इच्छाशक्ति हो.
-राम दत्त त्रिपाठी