6 अप्रैल को 8:30 बजे बापू समुद्र में उतरे,डुबकी लगाई,किनारे आए और एक गड्ढे से नमक का ढेला हाथ में जैसे ही उठाया, सरोजिनी नायडू ने उद्घोष किया, उद्धारकर्ता की जय! स्वयं बापू ने समुद्र गर्जना की, इस ढेले से मैंने ब्रिटिश साम्राज्य की नीव हिला दी है।
अनंत काल से भारत माता के आँचल को थामे मैं अरब सागर के तट पर विद्यमान हूँ। सदियों तक गुमनाम रही। ज्ञात नहीं कि कालयात्रा में कब मैं मछुआरों, पशुचारकों, खेतिहरों और कमेरों की बस्ती बन गयी और कहलाने लगी – दांडी। प्रारंभ में भय होता था सागर की भीषण गर्जना, अनंत जल राशि और उत्ताल तरंगों से। उसकी लहरें जब मेरी ओर लपकतीं, तो मैं सिहर जाती थी। तब बड़े लाड़ से माँ कहती, “अरी, समुद्र से डरती है! वह तो भाई है तेरा, अपनी लहरों से छूना चाहता है तुझको। डर मत, उसके संग खेल और बात कर।” माँ की आश्वस्ति से सागर का डर जाता रहा। अब तो सांझ सबेरे मैं उससे ठिठोली करती हूं और बातें भी करती हूं।
वर्ष 1600 की एक साँझ, बोझिल मन से सागर ने कहा, ‘दांडी, आज तेरे पड़ोस में, सूरत तट पर कुछ फिरंगी उतरे हैं। सूरत से व्यापारी, पर सीरत से अहंकारी प्रतीत होते हैं।’ ‘तो इसमें नया क्या है?’ मैंने कहा, ‘तुम तो हमेशा विदेशियों को लाते हो अपने तट पर। आने दो, धन बटोर कर चला जाएगा।’ किन्तु मैं गलत साबित हुई। व्यापारी फिरंगी सियासत की तिजारत करने लगे और हिंदुस्तान के मालिक बन बैठे। 31 दिसंबर 1929 को लाहौर में रावी तट पर कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज हेतु सविनय अवज्ञा का प्रस्ताव पारित किया। 26 जनवरी 1930 को पूरे भारत वर्ष में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। फिर 14-16 फरवरी को सत्याग्रह आश्रम, अहमदाबाद में संपन्न कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में महात्मा गांधी से अपील की गयी कि वे सविनय अवज्ञा आन्दोलन का नेतृत्व करें। आन्दोलन का मुद्दा,समय और स्थान सब कुछ उनपर छोड़ दिया गया। देश की निगाह गांधी जी पर टिक गयी। कोई कहता, भूमि कर के खिलाफ आन्दोलन करेंगे बापू। कुछ लोग कहते, “नहीं साहब, गांधी जी इस बार नमक क़ानून के खिलाफ आन्दोलन करेंगे। देखते नहीं, आज कल वे नमक क़ानून के विरोध में कितना लिखते और बोलते हैं।” मैं भी रुष्ट थी इस कानून से। मेरे दामन में नमक का अक्षय भण्डार था, पर मेरे लोग वहां से एक ढेला भी नहीं उठा सकते थे, क्योंकि नमक पर ब्रिटिश हुकूमत का एकाधिकार था। इस नमक पर 400 प्रतिशत का कर लगाकर सरकार सबको अंग्रेजी नमक खाने को मजबूर कर रही थी। महात्मा जी पिछले छः वर्षों से नमक नहीं खा रहे थे।
दो मार्च,1930 को गांधीजी ने अपने ‘प्रिय मित्र’ लार्ड इरविन को लम्बा पत्र लिखा कि यदि सरकारी बुराइयों को दूर करने के लिए कोई उपाय नहीं निकाला गया, तो वे आश्रम के साथियों के साथ नमक कानून की धारा तोड़ने के लिए निकल पड़ेंगे। उनका यह पत्र नमक सत्याग्रह की मुनादी थी,जिसे सुनते ही समुद्र तट के सारे गांव कामना करने लगे कि बापू मेरे तट से सत्याग्रह प्रारंभ करें। सरदार पटेल की राय से स्थान चयन का दायित्व गांधी जी ने रविशंकर महाराज और मोहन लाल पांड्या पर डाल दिया। इनकी राय से गांधी जी ने जैसे ही ‘दांडी मार्च’ की घोषणा की, भारत माँ की लाडली और सागर की बहन मैं ,दांडी दुनिया की जुबान पर सवार हो गयी। हर चौक चौराहे पर मेरी चर्चा होने लगी। मैं माता शबरी और देवी अहल्या की भाँति प्रतीक्षा करने लगी अपने महात्मा की,साबरमती के संत की।
12 मार्च, 1930, प्रातः 6:30 बजे सत्याग्रह आश्रम से नमक यात्रा प्रारम्भ हुई। होठों पर शास्वत मुस्कान और हाथ में लाठी लेकर सधे क़दमों से बापू आगे चल रहे थे। पीछे 78 स्वयंसेवकों का जत्था उनका अनुसरण कर रहा था। हजारों नर नारी और बच्चे,जो उनको विदा करने आए थे, पंक्तिबद्ध होकर उनके साथ चल रहे थे। सत्याग्रही यात्रियों पर पुष्प और सिक्कों की वर्षा हो रही थी। भव्य दृश्य था इस यात्रा का। 40 गांवों से होकर 240 मील की यात्रा 25 दिनों में पूरी कर 5 अप्रैल को बापू मेरे तट पर पहुंचे। सरोजिनी नायडू ने मेरी ओर से उनका स्वागत किया। उसी दिन बापू के श्रीमुख से मुझ पर स्नेह की अमृत वर्षा हुई, ‘दांडी का चयन किसी मनुष्य ने नहीं, स्वयं ईश्वर ने किया है। अन्यथा अन्न-जल हीन इस दुर्गम स्थान का चयन हम कैसे कर सकते थे। दांडी हमारे लिए पूण्य भूमि है, जहाँ हमें असत्य और पाप से परहेज करना है।’ 6 अप्रैल को 8:30 बजे बापू समुद्र में उतरे,डुबकी लगाई,किनारे आए और एक गड्ढे से नमक का ढेला हाथ में जैसे ही उठाया, सरोजिनी नायडू ने उद्घोष किया, उद्धारकर्ता की जय! स्वयं बापू ने समुद्र गर्जना की,इस ढेले से मैंने ब्रिटिश साम्राज्य की नीव हिला दी है।
बापू की दांडी यात्रा को गणमाण्य पुरुषों ने ‘श्री राम की लंका यात्रा’, ‘बुद्ध का महाभिनिष्क्रमण’,‘नेपोलियन का पेरिस मार्च’ और ‘मुसोलिनी का रोम मार्च’ की उपमा दी पर बापू ने इसे “अमरनाथ और बद्री-केदार की तीर्थ यात्रा” कहा। सचमुच उनकी कृपा से मैं गांधी तीर्थ बन गयी हूँ! मेरा अथ से इति तक सब कुछ बापू के चरणों में समर्पित है।
-डॉ. सुखचन्द्र झा
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