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पूंजीवाद से जूझती दुनिया और भारत में रोज़गार व राजनीति

आर्थिक बदलाव बिना सामाजिक बदलाव के संभव नहीं है। पक्ष और विपक्ष दोनों की बहसें इस पर हैं कि असंगठित क्षेत्र में रोज़गार कैसे पैदा किए जाएं। ज़रूरत इस बात पर विचार करने की भी है कि संगठित क्षेत्र में रोज़गार कैसे पैदा करें। स्वरोज़गार और आत्मनिर्भरता पर ज़ोर देने से ज़्यादा कारगर होगा कि रोज़गार का सृजन हो। रोज़गार मिलने से ही कोई व्यक्ति आत्मनिर्भर हो सकता है।

 

देश की चालीस से साठ प्रतिशत संपत्ति को एक प्रतिशत अमीर लोगों ने हथियाया हुआ है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ खड़ी हैं, बड़े-बड़े गोरख धंधे हो रहे हैं उद्योग-धंधे के नाम पर। अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और गरीब होता जा रहा है। लेकिन हमें ऐसे मुद्दों में फंसाकर बरगलाया जा रहा है, जिनसे हमारा वास्ता होना ही नहीं चाहिए।

मीर तक़ी मीर का एक शेर है-
‘रोते फिरते हैं सारी-सारी रात,
अब यही रोज़गार है अपना’

ज़ाहिर है कि मीर ने तो यह शेर किसी और ख़याल में लिखा होगा, लेकिन आज यह किसी और ही तरह से मौजूँ है। बेरोज़गारी का आलम यह हो चुका है कि वाक़ई खुद पर और किस्मत पर रोना ही रोज़गार बन गया है। लेकिन क्या यह सारा खेल महज़ किस्मत का ही है? शायद नहीं!
बारह वर्ष की विद्यालयी पढ़ाई और उसके बाद तीन से पाँच वर्ष की विश्वविद्यालयी पढ़ाई के बावजूद नौकरी के आवेदकों को तमाम मानकों पर अयोग्य बताया जा रहा है। सम्भव है कि उनमें से कई अयोग्य हों भी, परंतु इतनी अयोग्यता तो नहीं होगी कि अपने जीवन के लगभग डेढ़-दो दशक पढ़ाई में बिताने के बावजूद कुछ काम न कर सकें।

पूँजीवाद की जब किसी मुल्क़ की राजनीति के साथ दोस्ती हो जाती है, तो यही परिणाम होते हैं। शिक्षा, नौकरी, स्वास्थ्य आदि ज़रूरतें पूँजी से संचालित होने लगती हैं। जिसके पास सबसे अधिक पूँजीबल हो, वह सबसे अधिक ज्ञानी, योग्य और स्वस्थ होता है।
और जनता के दिमाग में पूँजी और अमीरी का रोमांस पैदा कर दिया जाता है, जिससे जनता भी इस शातिर खेल की बल्लेबाज़ भले नहीं, लेकिन क्षेत्ररक्षक तो बन ही जाती है। और एंटोनियो ग्राम्शी यहाँ प्रासंगिक हो जाते हैं।

अकबर इलाहाबादी लिखते हैं-
‘हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए

बीए हुए, नौकर हुए, पेंशन मिली, फिर मर गए’
अकबर साहब आज होते तो सोचते कि चलो ग़नीमत थी कि हमें कम से कम नौकरी और पेंशन तो मिल रही थी!


यह तो बात रही कि हालात क्या हैं, लेकिन असल मुद्दा यह है कि इन हालात में सुधार कैसे लाए जा सकते हैं! हर चुनाव में घोषणाएँ होती हैं। कोई कहता है हम आए तो लाख नौकरी देंगे, दूसरा करोड़ कहता है। भारत की राजनीति में घोषणाओं का ज़मीन से राब्ता बहुत कम होता है। भाषणों में स्पाइसजेट की तरह उड़ती हुई घोषणाएं ज़मीन पर गड़ारी की तरह घिसटती हुई दिखाई पड़ती हैं। नौकरी माँगते नौजवान आंदोलन करते हैं, धरने देते हैं, लेकिन लेकिन निज़ाम पर असर नहीं पड़ता है। याद रखियेगा यह वही निज़ाम है, जिसने नौकरी देने का वायदा किया था, लेकिन कसमें, वादे, प्यार, वफ़ा सब बातें हैं, बातों का क्या!

तमाम प्राइवेट नौकरियों से दुत्कारे जाने के बावजूद आज का युवा हर जगह इंटरव्यू देता है, कुछ दिन नौकरी करता है, सरकारी नौकरी का फॉर्म भरता है, ढाई-तीन साल रिजल्ट का इंतज़ार करता है, खुद के साथ-साथ परिवार को भी संभालता है। यह लगभग हर गरीब और लोअर मिडिल क्लास घर की कहानी है। यहीं से समझ आता है अमीर और गरीब का फ़र्क़। सर्वहारा और बुर्जुआ का वर्ग-संघर्ष तो हमने पढ़ा और समझ लिया, लेकिन सर्वहारा का कल्याण अभी भी नहीं हो पा रहा है।

देश की चालीस से साठ प्रतिशत संपत्ति को एक प्रतिशत अमीर लोगों ने हथियाया हुआ है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ खड़ी हैं, बड़े-बड़े गोरख धंधे हो रहे हैं उद्योग-धंधे के नाम पर। अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और गरीब होता जा रहा है। लेकिन हमें ऐसे मुद्दों में फंसाकर बरगलाया जा रहा है, जिनसे हमारा वास्ता होना ही नहीं चाहिए।

आज आपकी नौकरी इस बात से तय हो रही है कि आप कौन-से कॉलेज और स्कूल से पढ़े हैं। शिक्षा का निजीकरण और उससे भी घातक है नव-उदारवाद की नीति, इसने हमारी पूरी शिक्षा और रोज़गार प्रणाली पर गहरी चोट की है। चोट क्या, बल्कि ध्वस्त कर दिया है। लेकिन कारण केवल यही नहीं है, कारण है कि रोज़गार पैदा ही नहीं हो रहे हैं। नई कम्पनियाँ खुलने के बजाय पुरानी भी बन्द हो रही हैं। ऐसे तो किसी देश का विकास नहीं होता!

एक समस्या “ब्रेन ड्रेन” की है। और सम्भव है कि रहेगी ही। एक पढ़े-लिखे और एलिजिबल व्यक्ति को यदि अपने वतन में ढंग की नौकरी नहीं मिलेगी, तो वह विदेश जाएगा ही। इसमें जितना दोष उसका है, उससे कहीं ज़्यादा दोष हमारे देश की व्यवस्था का है।

पिछड़े, दलित, आदिवासी समुदाय का जीवन-स्तर अभी भी बहुत सुधरा हुआ नहीं है। आरक्षण प्रणाली ने बेशक उनके जीवन-स्तर को ऊपर उठाने में मदद की है, परन्तु अभी भी समाज में छुआछूत और जातिवाद व्याप्त है और इस बात से हम सभी वाकिफ़ हैं। ऊँची जातियों ने नीची जातियों को शुरू से दबाया है। और हम कितनी भी भोंडी हिपोक्रेसी कर लें, लेकिन यह सच है कि ऐसा हुआ है और होता चला आ रहा है।

रोज़गार की अनुपलब्धता के पीछे तमाम कारण हैं। किसी को “नॉट फाउंड सूटेबल” टैग देने के पीछे भी बहुत से कारण हैं। इन कारणों से निजात कैसे पाया जाए? उसके लिए सामाजिक बदलाव की भी ज़रूरत है। आर्थिक बदलाव बिना सामाजिक बदलाव के संभव नहीं है। पक्ष और विपक्ष दोनों की बहसें इस पर हैं कि असंगठित क्षेत्र में रोज़गार कैसे पैदा किए जाएं। ज़रूरत इस बात पर विचार करने की भी है कि संगठित क्षेत्र में रोज़गार कैसे पैदा करें। स्वरोज़गार और आत्मनिर्भरता पर ज़ोर देने से ज़्यादा कारगर होगा कि रोज़गार का सृजन हो। रोज़गार मिलने से ही कोई व्यक्ति आत्मनिर्भर हो सकता है।

महात्मा गांधी का स्वराज तभी मिल सकेगा, जब सभी के पास काम हो और हर छोटे-बड़े काम की बराबर इज़्ज़त हो। स्वरोज़गार की सिर्फ़ पैरवी न की जाए, बल्कि वे अवसर और सुविधाएँ भी दी जाएं, जिनसे मुनाफ़ा सीधे मेहनत करने वाले को पहुँचे। एक आदर्श समाज वही होगा, जहाँ सभी को अपनी मनमर्जी का काम मिले और उस काम का उचित दाम मिले। वर्ग-संघर्ष और जाति-संघर्ष से जूझती इस दुनिया में काम और नौकरी एक बुनियादी ज़रूरत बनी हुई है। वादों को ज़मीन पर उतारने की ज़रूरत है।

सृजन से ही उपलब्धता होती है। रोज़गार की उपलब्धता भी तभी होगी, जब रोज़गार का सृजन होगा। और आज का यह तथ्य है कि नौकरियाँ नहीं हैं। तमाम प्रतियोगी परीक्षाएँ देकर वर्षों तक रिजल्ट की टकटकी लगाए छात्रों को आप क्या दे सकते हैं, यही तय करेगा कि आप और आपकी नीतियाँ कितनी कारगर हैं। वर्षों तक पढ़ाई करने के बाद नौकरी का इंतज़ार करते व्यक्ति को अगर आप स्वरोज़गार के फायदे बताएंगे तो ये काम बेमानी होगा। ऊंट के मुँह में तो फिर भी जीरा था, नौजवान के हाथ में तो आज कुछ भी नहीं है। अभाव से फिर क्रांति पैदा होती है, लेकिन निज़ाम ने अभाव को भी स्वभाव में बदल दिया है। इसे बदलने की ज़रूरत है।

चाट-पकौड़े और पकवान बनाने का विकल्प तभी दिया जाता है, जब व्यवस्था असमर्थ होती है। व्यवस्था का असमर्थ होना घातक है। आदमी की गरीबी को ही सबसे बड़ी हिंसा मानने वाले गांधी आज होते, तो उनका एक आंदोलन आज रोज़गार सृजन के लिए होता। और हमारे निज़ाम के सुझावों पर असलम कोलसरी भी पड़ोसी मुल्क़ में बैठे हुए कहीं दोबारा लिख रहे होते-

‘असलम’ बड़े वक़ार से डिग्री वसूल की
और इस के बाद शहर में ख़्वांचा लगा लिया…
ख़्वाब भले ही हम विश्वगुरु बनने का देखते हों, लेकिन प्रतिद्वंदी भी तो हमने पड़ोसी को ही चुन लिया है। आख़िर क्या कर सकते हैं!

-आयुष चतुर्वेदी

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