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बराबर नहीं हर व्यथा की अभिव्यक्ति

हर किसी के लिए कोरोना की आपबीती अलग रही है, इसलिए हर कोई अपने-अपने नजरिये से इसे देखने और समझने का प्रयास कर रहा है। बीते दिनों में सोशल मीडिया पर कई लोगों ने कोरोना काल के अपने-अपने दुःखों को बयान किया। समय तो वाकई विकट ही था, क्योंकि हमने ‘भूमंडलीकरण या ग्लोबलाइजेशन’ के चाहे जितने गुणगान किए हों, सच तो यही है कि अब कोई भी कहीं आने-जाने के काबिल नहीं बचा।
पिछले दिनों जहां कहीं भी देखा, वहां किसी न किसी के बिछड़ जाने की खबरें आती रहीं। ट्विटर, फेसबुक, अथवा अन्य सोशल मीडिया के माध्यम इस दौरान सभी को सहारा देते दिखाई दिए। ‘राइट टू ग्रीव’ के कई रूप हमने देखे। कोई किसी गाने से अपनी व्यथा बयान करता दिखाई पड़ा। कोई आखिरी बार अपने जन्मदिन की फोटो डाल अपने परिजनों को याद करता नजर आया। कोई किसी के पसंदीदा फूल की फोटो से अपने मन के सन्नाटे को शांत करता रहा।


तो कोई गाना गाकर या अपने बिछड़े हुए किसी परिजन या मित्र के पसंदीदा खाने-पीने या किसी भी अन्य चीज की तस्वीर लगाकर उन्हें अपना आखिरी नमन व्यक्त करता रहा। अपने-अपने मानसिक तनाव को लोगों ने अपने ढंग से सोशल मीडिया पर अभिव्यक्त किया। कोई और चारा भी नहीं बचा था। हर कोई अपने अकेलेपन और प्रलयंकारी समय में संवाद के माध्यम ढूंढ़ रहा था। हर किसी के लिए कोरोना की आपबीती अलग रही है और इसलिए हर कोई इसे अपने-अपने नजरिये से देख, समझ, एवं व्यक्त करने का प्रयास कर रहा है।


ऐसा होना स्वाभाविक भी है। आखिर त्रासदी ही ऐसी है, जहां एक- दूसरे का साथ नीरस हो चला है। ऐसे में ‘वर्चुअल’ साथ मिल जाना भी अपने आप में एक ‘लग्जरी ‘ है। कोरोना से पहले भी समाज एक बंद दरवाजे के भीतर सीमित हो चुका था। यानी एक प्रकार की ‘गेटेड कम्युनिटी’ बन चुका था। बस कोरोना के बाद इस ‘गेटेड कम्युनिटी’ का दायरा हमारे घर के पायदान तक आ पहुंचा।


सोशल मीडिया पर व्यक्त होने वाली इन सब व्याकुलताओं के बीच एक ख्याल मन में आता रहा। तमाम चौकीदार जो अस्पतालों की देख-रेख करते रहे, जिनके सामने कई मरीजों ने दम तोड़ दिया होगा, दरवाजे की दहलीज पर ही, वे सारे सफाई कर्मचारी जो अस्पतालों का अहम् हिस्सा हैं, जिनके बिना कोरोना की लड़ाई मुमकिन नहीं, वे सभी ऑटो वाले जिन्होंने नि:स्वार्थ ही अपने-अपने वाहनों की सेवाएं मुफ्त ही उपलब्ध करायीं, स्थानीय पत्रकार जो हर जिले-गांव से रिपोर्टिंग करते रहे, एम्बुलेंस ड्राइवर जो शायद मृतकों एवं मरीजों की गिनती भूल गए, खासतौर पर श्मशान घाट पर काम करने वाले सभी लोग—इन सबकी व्यथा की अभिव्यक्तियों का क्या होता होगा?


एक न्यूज चैनल पर बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिकों के साथ एक न्यूज एंकर चर्चे कर रहे थे कि अपना मानसिक तनाव कम करने के लिए सब को क्या करना चाहिए। किसी ने राय दी, मैडिटेशन कर लो। तो किसी ने अंग्रेजी में फरमाया कि अपनी पसंदीदा किताब पढ़ लो। किसी ने कहा टी वी, मोबाइल सब बंद कर दो और बस मन में शान्ति बनाये रखो।


यह तो हम सभी को याद है कि कैसे पिछले साल तमाम तरह के लॉकडाउन में अपने को व्यस्त रखने के तरीके हमें सिखलाये जा रहे थे। टीवी पर एक एंकर अपने प्रोग्राम पर किसी गायक को ले आते। तो दूसरी तरफ इंस्टाग्राम पर ‘डालगोना कॉफी’ और ‘साड़ी चैलेंज’ होता नजर आता। कई लोग ‘सेल्फी चैलेंज’ करते तो कई ‘फिटनेस चैलेंज’ की फोटो डालते नजर आते। लेकिन यह सारे संवाद अंग्रेजी में और सभी चैलेंज एक खास तरह की जनता के लिए थे।


हल भी सारे ऐसे ही होते, जो वही कर सकता था, जिसके लिए ‘वर्क प्रâॉम होम’ जायज और मुनासिब था। आखिर ‘वर्क प्रâॉम होम’ अधिकांश जनता के लिए होता ही क्या है? 90 प्रतिशत लोग जो इनफॉर्मल सेक्टर का हिस्सा हैं, उन्हें कैसे समझाया जाए? फिर टेक्नोलॉजी, मोबाइल फोन पर मिलने वाले समाधान एवं यूट्यूब पर ‘मैडिटेशन’ वही कर सकते हैं, जिन्हें इनकी जानकारी हो, जो इन तक पहुंच सकें और इन्हें समझ सकें।
लेकिन तमाम ऐसे लोग भी हैं, जिनके पास यह सोचने का भी समय नहीं है कि मैडिटेशन करें तो कब, या फिर चंद क्षण प्रकृति के बीच बिता सकें तो कब, जो नहीं जानते की डालगोना कॉफी या ‘जूम पर संगीत कार्यक्रम’ क्या हैं – वे क्या करें, कहां जाएं? उनकी व्यथा का तो कोई हिसाब भी नहीं लगा सकता, क्योंकि उन्होंने महामारी बहुत करीब से देखी है। किसी अनजान व्यक्ति के खोने का आशय क्या होता है, या इस तरह के अन्धकार और हताशा में अकेलापन किसको कहते हैं, उन्होंने बखूबी समझा है।


उन्हें तो सुकून भी आसानी से नहीं मिल सकता। आखिर गरीब आदमी सुकून तलाशे या रोजी-रोटी ढूंढें? इतने लम्हे उनके पास नहीं होते, जहां वे आराम से बैठ, पूरे दिन भर बीती हुई घटनाओं पर इत्मीनान से विचार-विमर्श भी कर सकें। क्योंकि अगर सोच में पड़ गए तो उन्हीं सोच-विचारों में गोते लगाते रह जाएंगे और अगले दिन काम पर नहीं जा पाएंगे।


इन सभी लोगों ने मौत को बहुत निकटता से देखा है। परन्तु हमारे इन सभी भाई-बहनों के पास अपनी व्यथा को प्रकट, अभिव्यक्त एवं महसूस करने के साधन ज्यादा नहीं हैं। वे सब ट्वीट नहीं कर सकते। यदि करेंगे तो उनको शायद ही कोई पढ़ेगा। आखिर एक ‘ब्लू टिक’ इकॉनामी भी तो चलती रहनी चाहिए।


यहां कई दरवाजों को लांघना पड़ता है, फिर भी यह आवश्यक नहीं कि अनजान दरवाजे पर आपकी दस्तक किसी के कानों तक पंहुच ही जाए? ऐसे में ‘टेली काउंसलिंग’ और ‘मेन्टल हेल्थ’ की हेल्पलाइन्स के मायने इन सभी लोगों के लिए शून्य के बराबर हैं।

-स्वस्ति पचौरी

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