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मनरेगा के बजट में कटौती से संकट बढ़ेगा

पिछली सरकारों ने हमारी आर्थिक संरचना को बीमार बना दिया था, लेकिन मोदी सरकार ने तो देश की बीमार आर्थिक संरचना को आईसीयू में डालकर मरणासन्न कर दिया है। इतनी ढीठ, बेरहम, अहंकारी और दुस्साहसी सरकार भारत में कभी नहीं रही।

देश में किसानी और बेरोज़गारी के सवाल पर हाहाकार मचा हुआ है, देश गुलामी के दौर से भी चौड़ी आर्थिक खाई का दंश झेल रहा है। तमाम आंकड़े बता रहे हैं कि चंद पूंजीपतियों की आमदनी में दिन-रात गुणात्मक बढ़ोत्तरी हो रही है और किसान, कारीगर, मजदूर, छोटे दुकानदार या छोटी-छोटी पूंजी से कारोबार करने वाले तमाम तबकों की आमदनी लगातार घट रही है। जब देश का किसान राजधानी की सीमा पर सालभर सत्याग्रह करने और 750 किसानों की शहादत सहन के लिए मजबूर हो, देश का नौजवान सड़कों पर रोजगार मांगते हुए लाठियां खाने के लिए विवश हो, आमदनी और रोजगार का सवाल विषमता की हद पार कर गया हो, ऐसे समय में देश की वित्त मंत्री द्वारा संसद में पेश केन्द्रीय बजट ने गांव के गरीब, किसान, कारीगर और बेरोजगार को क्षुब्ध एवं निराश किया है। कोविड प्रकोप के समय जब प्रवासी मजदूर अपने गांव लौटे तो उनका एकमात्र सहारा बनी मनरेगा। वित्त मंत्री ने मनरेगा का बजट घटा दिया। आर्थिक गिरावट के दौरान संकट के समय सीना तान कर खड़ी रही किसानी क्षेत्र की कई अन्य योजनाओं का बजट भी घटा दिया गया। ऐसा लगता है, जैसे सरकार किसानों के साथ ही नहीं, पूरे ग्रामीण भारत से कोई खुन्नस निकाल रही है।

पिछले साल मनरेगा पर 97,034 करोड़ रुपए खर्च हुए, इस साल बजट का आवंटन 72,034 करोड़ रुपए है। नरेगा संघर्ष मोर्चा के अनुसार पिछले साल का 18,350 करोड़ रुपए बकाया भी है। मनरेगा देश के 9.94 करोड़ जॉब कार्ड धारकों को 100 दिन के रोजगार की गारंटी कानून देता है, लेकिन इस बजट में आवंटित धन से प्रत्येक जॉब कार्ड धारक को केवल 16 दिन का ही रोजगार मिल सकेगा। ग्रामीण विकास बजट भी 5.59 फीसद से घटाकर 5.23 फीसद कर दिया गया है। कृषि क्षेत्र का बजट 4.27 फीसद से घटाकर 3.84 फीसद कर दिया गया है। प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना का बजट रुपये 16000 करोड़ से रुपये 15000 करोड़ कर दिया गया है। पीएम आशा योजना का बजट रुपये 400 करोड़ से घटाकर रुपये 1 करोड़ कर दिया गया है। फ़सल की एमएसपी सुनिश्चित करने वाली योजना की बजट रु. 3595 करोड़ से घटाकर रु 1500 करोड़ कर दिया गया है। किसानी के क्षेत्र में सहकारिता का ढोल पीटने वाली सरकार ने किसान उत्पादक संगठनों का बजट 700 करोड़ से घटाकर 500 करोड़ कर दिया है।

पिछले साल एमएसपी पर 1386 लाख टन खाद्यान्न की खरीद पर रु 2.87 लाख करोड़ खर्च किए थे, इस साल यह खर्च घटाकर 2.37 लाख करोड़ कर दिया गया है और खरीद घटकर 1208 लाख टन हो गई है। इस देश की ज्यादातर सरकारों का आर्थिक चरित्र गांव, गरीब और किसान विरोधी रहा है। पिछली सरकारों ने हमारी आर्थिक संरचना को बीमार बना दिया था, लेकिन मोदी सरकार ने तो देश की बीमार आर्थिक संरचना को आईसीयू में डालकर मरणासन्न कर दिया है। इतनी ढीठ, बेरहम, अहंकारी और दुस्साहसी सरकार भारत में कभी नहीं रही। केन्द्रीय बजट 2022 की तमाम योजनाओं के मद में कटौती देखने के बाद महसूस होता है कि इस सरकार की नीतियां किसान-मजदूर एवं गांव-गरीब की घनघोर विरोधी हैं। केवल विरोधी नहीं, बल्कि बदले की भावना से इस बजट के माध्यम से वह खुन्नस निकालने का काम कर रही है, क्योंकि ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने इस अंहकारी सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया।


आज देश और दुनिया में पैसे का खेल चल रहा है। चंद बड़े पूंजीपतियों की झोली में भारत का धन इकठ्ठा हो रहा है। सरकार उनकी खुशामद में लीन है और उनके लिए नीति बना रही है, जिनके चलते छोटी पूंजी से जीवकोपार्जन करने वाले तमाम तबके त्रस्त एवं बदहाल हैं। जरूरत है छोटी पूंजी से जीवकोपार्जन करने वालों में व्यापक एकता की। गांधी ने अपने जमाने में छोटी पूंजी को ग्रामोद्योग के रूप में देखा था और डॉ. लोहिया इसी चीज को छोटी मशीन के रूप में देखते थे। आज इन महापुरुषों के सूत्र को छोटी पूंजी के रूप में देखा जा सकता है। छोटी पूंजी से जीवन चलाने वालों की एकता में परिवर्तन की शक्ति है।

आज एक नये आर्थिक, राजनीतिक एवं दार्शनिक विचार की दरकार है, जो न्याय, त्याग और भाईचारे के मूल्यों पर आधारित होगा। किसान आंदोलन ने समय-समय पर अपने कार्यक्रमों और निर्णयों के मार्फत एक नये आर्थिक व राजनीतिक ढांचे के निर्माण का संकेत दिया है।

-रामजनम

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