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महात्मा गाँधी की शक्ति: कस्तूरबा गाँधी

गांधी ने लिखा कि कस्तूरबा किसी भी लिहाज से मुझसे पीछे नहीं थीं। वह मेरे से बेहतर थी। उसके अमोघ सहयोग के बिना मैं शायद रसातल में चला जाता… उसने मुझे मेरी प्रतिज्ञाओं के प्रति जागृत रखने में मदद की। उसने मेरे सभी राजनीतिक आंदोलनों में मेरा साथ दिया और कभी भी किसी भी आंदोलन में मेरा साथ देने से हिचकिचाई नहीं। वह अशिक्षित थी, लेकिन मेरे लिए वह सच्ची शिक्षा का प्रतिरूप थी।

वह व्यक्ति जिसने मोहनदास करमचंद गाँधी से महात्मा गाँधी तक की यात्रा में निरंतर उनका साथ दिया, वह थीं कस्तूरबा गाँधी। हालाँकि, उनकी चर्चा अक्सर बहुत कम होती है, क्योंकि अधिकतर उनको महात्मा गाँधी की परछाई के रूप में ही जाना जाता है, किन्तु कस्तूरबा गाँधी अपने आप में एक सशक्त महिला थीं, जिनसे स्वयं गांधीजी ने कई पाठ सीखे, यहाँ तक कि ‘सत्य के साथ उनके प्रयोग’ बिना कस्तूरबा के सहयोग के सफल नहीं हो सकते थे।

कस्तूरबा का जन्म 1869 में गोकुलदास कपाड़िया और व्रजकुंवर कपाड़िया की बेटी के रूप में हुआ था। यह परिवार गुजराती मोद बनिया जाति का था और पोरबंदर के तटीय शहर में बसा हुआ था। कस्तूरबा के प्रारंभिक जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है। कस्तूरबा के माता-पिता द्वारा मई 1893 में, 14 वर्षीय कस्तूरबा का विवाह 13 वर्षीय मोहनदास करमचंद गांधी के साथ पारंपरिक भारतीय रीति-रिवाज से कर दिया गया। विवाह के पश्चात रहने के लिए वे राजकोट आ गयीं। कस्तूरबा को अपनी शादी से पहले कोई स्कूली शिक्षा नहीं मिली थी, इसलिए मोहनदास ने उन्हें प्रारंभिक शिक्षा देने की जिम्मेदारी खुद पर ले ली। प्रारंभिक विवाहित जीवन में गाँधी एक ईर्ष्यालु पति की तरह व्यवहार करते दिखाई पड़ते हैं, लेकिन बाद के जीवन में उन्हें कस्तूरबा के प्रति अपने ऐसे व्यवहार की निरर्थकता का एहसास हुआ।

कस्तूरबा- एक आदर्श पत्नी
गांधी द्वारा कस्तूरबा को पढ़ाने का उद्देश्य उन्हें आदर्श पत्नी बनाना था। गाँधीजी लिखते हैं, ‘मेरी महत्वाकांक्षा थी कि मैं उसे एक अच्छा जीवन दूँ, जो मैंने सीखा है, उसे सिखाऊँ, उसके जीवन और विचार को अपनी पहचान दूं। मुझे नहीं पता कि कस्तूरबाई की ऐसी कोई महत्वाकांक्षा थी या नहीं। वह अनपढ़ थी। स्वभाव से सरल, स्वतंत्र, दृढ़ और कम से कम मेरे साथ मितभाषी थी। वह अपनी अज्ञानता के लिए अधीर नहीं थी…। मेरा जुनून पूरी तरह से एक महिला पर केंद्रित था, लेकिन मैं चाहता था कि यह पारस्परिक हो। कम से कम एक तरफ से यह सक्रिय प्रेम था। मुझे कहना चाहिए कि मुझमें उसके लिए जुनून था।’

गांधी घरेलू मामलों में लगातार हस्तक्षेप करते रहते थे; इससे कस्तूरबा नाराज़ रहतीं। गाँधी कस्तूरबा को पढ़ना-लिखना सिखाना चाहते थे, किन्तु कस्तूरबा का मन पढ़ाई में उस समय के सामाजिक वातावरण की वजह से नहीं लगता था। गाँधी ने कई कठोर नियम लागू किये। वे शुरुआती दौर में पितृसत्तातमक विचारशैली के थे और उनका मानना था की एक हिन्दू पत्नी का सर्वोच्च कर्त्तव्य अपने पति की आज्ञा का पालन करना है। वर्षों बाद उन्हें अपनी इस सोच की व्यर्थता पर पछतावा हुआ।

भारत में वापसी के बाद कस्तूरबा सक्रिय रूप से गांधीजी के साथ स्वतंत्रता संग्राम में भाग ले रही थीं। लीलावती नाम की एक महिला ने एक बार कस्तूरबा को ही पत्र लिखकर कहा कि कस्तूरबा, गांधी के साथ बहुत दुखी रहती हैं। कस्तूरबा ने इस पत्र का जवाब गुजराती में दिया था, यह एकमात्र दस्तावेज है, जिसमें उन्होंने व्यक्तिगत विषय पर टिप्पणी की थी। यह दस्तावेज पाठक भी पढ़ें.

प्रिय लीलावती,
तुम्हारे पत्र ने मुझे बुरी तरह छेड़ा है। तुमको और मुझे बात करने के लिए कभी ज्यादा समय नहीं मिला, इसलिए तुमको कैसे पता कि गांधीजी मुझे दुखी करते हैं? क्या तुमने मेरे चेहरे को उदास देखा? या गांधीजी ने मुझे भोजन के लिए परेशान किया, जब तुम यहां थी? विश्व में कोई दूसरा पति मेरे पति जितना महान नहीं है। उनकी सच्चाई के प्रति आस्था के लिए दुनिया भर के लोगों द्वारा उनकी पूजा की जाती है। हजारों लोग उसकी सलाह लेने आते हैं। उन्होंने मेरे साथ कभी गलत नहीं किया, सिवाय इसके कि जब मैं वास्तव में गलती के लिए जिम्मेदार थी। मैं दूरदर्शी नहीं हो सकती, मेरी दृष्टि संकीर्ण हो सकती है, लेकिन लोग कहते हैं कि पूरी दुनिया में महिलाओं का यही सच है। गांधीजी अखबारों की बातों पर चर्चा करते हैं, औरों के पति घर में बैठ कर परेशान करते हैं। अगर मुझे मित्रों के बीच सम्मान से रखा जाता है, तो यह केवल उनकी वजह से है। मेरे रिश्तेदार भी मुझे बहुत प्यार करते हैं। कोई भी आपके दावे पर विश्वास करने वाला नहीं है। मैं तुम्हारी तरह आधुनिक पत्नी नहीं हूँ, जो अपनी इच्छा अपने पतियों पर लादना चाहती हैं और यदि पति बात नहीं मानते हैं, तो अपने अलग रास्ते पर निकल जाती हैं। इस तरह का व्यवहार आदर्श हिन्दू पत्नी को शोभा नहीं देता है। पार्वती की इच्छा थी कि शंकर न केवल इस जन्म के लिए और पिछले जन्मों के लिए, बल्कि आने वाले जन्मों-जन्मों के लिए भी उनके पति हों।

उनकी पोती सुमित्रा कुलकर्णी के अनुसार, कस्तूरबा इस पत्र को समाचार पत्रों में प्रकाशित करना चाहती थीं। लेकिन गांधी, इस धारणा को प्रोत्साहित नहीं करना चाहते थे कि वह दुखी हैं, उन्होंने इसको प्रकाशन से मना कर दिया और इस पत्र को फाइल में लगा दिया गया। यह पूरा प्रकरण निश्चित रूप से उनके संबंधों की पितृसत्तात्मक प्रकृति की पुष्टि करता है, लेकिन विशेष रूप से महात्मा की पत्नी के रूप में कस्तूरबा की अवस्था को समझने में भी सहायक होता है।

एक हिंदू पत्नी के संघर्ष
कस्तूरबा एक आदर्श हिंदू पत्नी बनने की ख्वाहिश रखती हैं, जो उनके पत्र का सबसे स्पष्ट संदेश है। एमा तारलो लिखती हैं कि अगर हमें कस्तूरबा को ‘आवाज’ देनी है, तो हमें उनकी आकांक्षाओं को समझने की कोशिश करनी चाहिए। एक ऐसे समाज में, जहाँ परंपराबद्ध हिंदू पत्नियों से अभी भी अपने पतियों की पूजा करने की अपेक्षा रखी जाती है, एक पत्नी का प्राथमिक दायित्व पति की इच्छा का पालन करना ही होता है। कस्तूरबा इसे को पूरा करने के लिए बेचैन रहती होंगी।

मोहनदास की लंदन जाकर कानून की पढ़ाई के लिए, परिवार ने कस्तूरबा के आभूषण गिरवी रख दिए। गांधी ने अपनी मां के समक्ष शपथ ली कि वह शराब, महिला या मांस नहीं छुएंगे। उनके जाने से पहले, मोद बानिया जाति के उनके बुजुर्गों ने उनकी यात्रा को अस्वीकार कर दिया। जाति से किसी ने कभी ‘काला पानी’ को पार नहीं किया था और कोई भी अपने धर्म से समझौता करके नहीं जा सकता था। गांधी ने विदेश में अध्ययन करने की अपनी योजना को रद्द करने से इनकार कर दिया और उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। वह 4 सितंबर, 1888 को इंग्लैंड के लिए रवाना हुए। कस्तूरबा अपने पति के मोद बानिया जाति से निष्कासन से बहुत प्रभावित हुईं। उसी परिवार का हिस्सा होने के कारण, वे और हरिलाल भी बहिष्कृत हुए। अगर उन्हें पोरबंदर में अपने परिवार से मिलने की इच्छा होती, तो उन्हें जाति निषेधाज्ञाओं की अवज्ञा करनी पड़ती थी।

दक्षिण अफ्रीका में कई मेहमान गांधी के घर पर रहने के लिए आते थे। एक विशेष घटना ने गाँधी के दांपत्य के रिश्ते को बदल दिया। 1898 की शुरुआत के दिन थे, कस्तूरबा का अपने पति और उनके आदर्शों के प्रति उनकी निष्ठा से उनका पहला टकराव हुआ। घर के नियमों से अनजान एक अछूत और ईसाई भारतीय मेहमान ने सुबह अपने चैंबर पॉट को खाली नहीं किया। इन परिस्थितियों में, गांधी चाहते थे कि कस्तूरबा उस पॉट की सफाई करें। कस्तूरबा घृणा और शर्म से भर गयीं, वे इस बात से अनजान थीं कि उनका पति उन्हें देख रहा है। गांधी असंतुष्ट थे, वह चाहते थे कि वह उस कार्य को प्रसन्नचित्त होकर पूरा करें। उन्होंने कस्तूरबा से कहा कि मैं यह सहन नहीं करूंगा. कस्तूरबा ने जवाब दिया कि अपना घर अपने पास रखो और मुझे जाने दो। गुस्से से भरकर, गांधी ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें बाहर धकेलने के इरादे से कस्तूरबा को द्वार तक खींच लाये। कस्तूरबा ने रोते हुए कहा कि आपको शर्म नहीं आती? आप मुझे इसलिए परेशान कर रहे हैं, क्योंकि मेरे माता-पिता या रिश्तेदार यहाँ नहीं हैं। इस घटना ने गांधी को बहुत चिंतित कर दिया. वे अपनी पत्नी के खिलाफ हिंसा का उपयोग करने पर शर्मिंदा हुए।

एक्टिविस्ट कस्तूरबा
दक्षिण अफ्रीका में एक अलग जीवन शैली और कई अवसरों पर पारंपरिक मान्यताओं और सिद्धांतों के कारण कस्तूरबा को अपना जीवन बदलना पड़ा। गाँधी परिवार एक छोटे से घर में रहता था, जो किसी भी प्रकार के ढोंग से दूर, बेहद सादगीपूर्ण था। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए कस्तूरबा को कई बार गंभीर बीमारियों का सामना भी करना पड़ा, फिर भी वे दृढ़ इच्छाशक्ति वाली थीं। जब गाँधीजी जेल में थे, तब उन्होंने अक्सर अपने पति की जगह ली। कस्तूरबा अधिकांश समय विभिन्न आश्रमों का मैनेजमेंट संभालती थीं।

दक्षिण अफ्रीका में अन्य भारतीय महिलाएं पारिवारिक कर्तव्यों तक सीमित रहती थीं। भारतीय स्त्रियों के सन्दर्भ में मिली पोलक और गाँधी के बीच कई बार चर्चा और वाद विवाद हुआ करता था। मिली पोलक के अनुसार कस्तूरबा का खुद का अपना कोई जीवन नहीं था, इस पर गांधी का उत्तर होता कि पूरब में महिलाओं को देवी का दर्ज़ा दिया जाता है। दक्षिण अफ्रीका में कस्तूरबा चर्चाओं में भाग नहीं लिया करती थीं, क्योंकि उन्होंने ज्यादा अंग्रेजी नहीं सीखी थी। हालाँकि दक्षिण अफ्रीका में उनकी अंग्रेजी में सुधार हुआ। कस्तूरबा ने मिलि पोलाक से अंग्रेजी के कुछ शब्द सीखे थे।

कस्तूरबा दक्षिण अफ्रीका में राजनीतिक और सामाजिक तौर पर सक्रिय हुईं। मार्च 1904 में भारतीय समुदाय को जोहान्सबर्ग में बुबोनिक प्लेग के रूप में बड़ी आपदा सहन करनी पड़ी। गांधी ने बीमारों के लिए चिकित्सा सहायता का आयोजन किया और कस्तूरबा ने मदद करने की पेशकश की। उन्होंने बुनियादी स्वास्थ्य और स्वच्छता उपायों के बारे में बात करने के लिए जहां भारतीय समुदाय रहा करता था, भारतीय महिलाओं को बताया कि प्लेग के लक्षणों का पता कैसे लगाया जाए। उन्होंने महिलाओं के साथ काम करने की अपनी क्षमता दिखाई। गांधी ने अपनी पत्नी को भारतीय समुदाय के लिए अपने काम में एक नया सहयोगी पाया। कस्तूरबा और उनके बेटे 1906 में फीनिक्स चले गए। उस समय तक वह बस्ती एक छोटे से गाँव में विकसित हो गई थी, जिसके आधा दर्जन परिवार वहाँ बस गए थे। कस्तूरबा के लिए, यह कदम उनके जीवन में एक बदलाव लेकर आया। फीनिक्स गन्ना मिल के मध्य में स्थित था। सभ्यता से एकमात्र लिंक निकटतम रेलवे स्टेशन था, जो दो मील से अधिक दूर था। आने वाले वर्षों में, अनेक लोग फीनिक्स सेटलमेंट आए और चले गए, लेकिन कस्तूरबा ने इसे स्थायी निवास की तरह बरता। यहां तक कि जब गांधी जोहान्सबर्ग में थे, तब भी वह अपने बेटों के साथ फीनिक्स में ही रहीं।

कस्तूरबा सत्याग्रह अभियान के दौरान भी फीनिक्स में ही रहीं। गांधी जोहांसबर्ग से डरबन गये, प्रतिरोध आंदोलन को संगठित करने में व्यस्त रहे। सत्याग्रह से अलग होने के बावजूद, वह आंदोलन के महत्व से अवगत थीं। जब 28 दिसंबर, 1908 को गांधी को गिरफ्तार किया गया और दो महीने जेल की सजा सुनाई गई, तो कस्तूरबा ने वही खाना खाने का फैसला किया, जो उनके पति को जेल में मिलता था। उनका यह मानना था कि वह जेल में गाँधी जी की कठिनाइयों को साझा नहीं कर सकती थी, तो कम से कम उनका आहार तो साझा कर सकती थीं। गांधी के मुक्त होने तक उन्होंने सिर्फ कॉर्नमील और दलिया ही खाया।

गांधी दक्षिण अफ्रीका में महिलाओं को सत्याग्रह में भागीदार बनाने के लिए पूरी तरह से कटिबद्ध थे। उन्होंने महसूस किया कि सत्याग्रह में महिलाएँ अग्रणी हो सकती हैं, क्योंकि इसके लिए कठोर हृदय की आवश्यकता थी, जो दुख और विश्वास से आता है। गांधी हालांकि कस्तूरबा की स्थिति के बारे में निश्चिंत नहीं थे। वह नहीं चाहते थे कि वह अपनी खातिर या अपने प्रभाव के तहत आंदोलन में प्रवेश करें। उनका मानना था कि सभी को अपनी इच्छा से काम करना चाहिए, अपनी ताकत और साहस पर भरोसा करना चाहिए। हालांकि, कस्तूरबा ने आंदोलन में शामिल होने का मन बना लिया था और हर परिणाम भुगतने के लिए तैयार थीं। कस्तूरबा ने गांधी से कहा, ‘मुझमें क्या दोष है, जो मुझे जेल नहीं ले जाते? मैं उस रास्ते को भी अपनाना चाहती हूं, जिस पर आप दूसरों को आमंत्रित कर रहे हैं।’ कस्तूरबा पहली महिला सत्याग्रही थीं, जब तीन अन्य महिलाओं और बारह पुरुषों के साथ, उन्होंने 15 सितंबर, 1913 को बिना परमिट के ट्रांसवाल बॉर्डर पार किया। पुरुषों और महिला सत्याग्रहियों को गिरफ्तार किया गया और तीन महीने की जेल की सजा सुनाई गई। महिलाओं को उनकी सजा काटने के लिए मारिट्जबर्ग जेल ले जाया गया। कस्तूरबा ने अपने साथियों को जेल की कठिन दिनचर्या से बचाने के लिए इच्छाशक्ति और साहस जगाने में मदद की। उन्होंने वार्डन को यह समझाने की कोशिश की कि उन्हें और अन्य कैदियों को विशेष आहार की जरूरत है और जेल का कोई भी खाना वे शायद ही खा सकें, लेकिन इसमें सफलता नहीं मिली। महिलाओं के प्रवेश ने आंदोलन को नई ताकत दी। महिलाएँ स्वेच्छा से जेल गईं और उन्हें कठिन श्रम सहन करना पड़ा।

18 जुलाई, 1914 को, भारत वापस जाने से पहले, वे इंग्लैंड के लिए रवाना हुईं। कस्तूरबा, स्वतंत्रता के लिए भारत के राजनीतिक संघर्ष में शामिल हुईं। बिहार में नील किसानों की स्थिति को लेकर गाँधी ने 1917 में चम्पारण में अपने पहले अभियान की शुरुआत की। कस्तूरबा ने अपने पति की सहायता के लिए अपने पुत्र देवदास के साथ चंपारण की यात्रा की। उन्होंने किसानों की पत्नियों और बेटियों के साथ काम किया और एक जिलाव्यापी स्वच्छता अभियान का नेतृत्व किया। इस यात्रा का प्रभाव यह पड़ा कि चंपारण में कृषि की स्थिति पर एक आधिकारिक रिपोर्ट तैयार हो गई और किसानों की स्थिति में सुधार के उद्देश्य से बिहार में कृषि सुधार कानून पारित हुआ।

कस्तूरबा ने भारतीय महिलाओं तक पहुंचने की कोशिश की। वह मानती थीं कि कताई और बुनाई सीखकर उन्हें आत्मनिर्भर बनना सीखना होगा। इस तरह, महिलाएं अपने घर के भीतर बदलाव ला सकती हैं और कपड़े जैसे विदेशी उत्पादों की खपत को हतोत्साहित कर सकती हैं। वह गांधी के साथ अनेक बैठकों में शामिल हुईं, उनके बगल में बैठतीं और कताई करती रहती थीं। उनकी कताई और बुनाई की तस्वीरें भारतीय समाचार पत्रों में अक्सर दिखाई देती थीं। जब गांधी ने विदेशी-निर्मित वस्तुओं के राष्ट्रव्यापी बहिष्कार की शुरुआत की, तो कस्तूरबा ने अपनी पसंदीदा साड़ी जलाने पर जोर दिया। ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें 18 मार्च, 1922 को गिरफ्तार कर लिया। गांधी के ‘द ग्रेट ट्रायल’ के पश्चात उन्हें छः वर्ष की कैद हुई। कस्तूरबा ने 23 मार्च, 1922 को प्रकाशित ‘यंग इंडिया’ में एक अपील की कि वे गाँधी के कारावास के बावजूद आंदोलन की सफलता सुनिश्चित करने के लिए गांधी के कार्यक्रम जारी रखें। उन्होंने लोगों को विदेशी कपड़ा छोड़ने और दूसरों को ऐसा करने के लिए राजी करने के लिए प्रोत्साहित किया।

1930 में गांधी के नेतृत्व में सत्याग्रहियों ने नमक के निर्माण पर सरकारी एकाधिकार स्थापित करने वाले नमक कानून को तोड़ दिया। अधिक से अधिक पुरुषों को गिरफ्तार किए जाने के बाद, कस्तूरबा का मानना था कि सविनय अवज्ञा अभियान जारी रखने के लिए महिलाओं की भागीदारी जरूरी है। सरकार के स्वामित्व वाली शराब की दुकानों के विरुद्ध उन्होंने महिलाओं से सविनय अवज्ञा के एक नए चरण में भाग लेने का आग्रह किया। उनका मानना था कि अभियान का नेतृत्व करने के लिए महिलाएं पुरुषों की तुलना में बेहतर थीं, क्योंकि पुलिसकर्मी महिलाओं को गिरफ्तार करने में संकोच करेंगे। उनकी दलीलें दृढ़ थीं और शराब की बिक्री में जबरदस्त गिरावट आई।

1930 में दांडी कूच और धरसणा के धावे के दिनों में बापू के जेल जाने पर बा एक प्रकार से बापू के अभाव की पूर्ति करती रहीं। वे पुलिस के अत्याचारों से पीड़ित जनता की सहायता करतीं और सबको धैर्य बँधातीं। 1931 में गांधी गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन रवाना हुए, हालाँकि बातचीत असफल रही और भारत में विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ। सरकार ने सविनय अवज्ञा अभियानों को कुचलने के लिए कठोर कदम उठाए। नागरिक स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया गया और बड़ी संख्या में भारतीयों को गिरफ्तार किया गया। कस्तूरबा को अन्य महिलाओं के साथ साबरमती आश्रम में गिरफ्तार किया गया। कस्तूरबा ने मुक्त होते ही अपना काम फिर से शुरू कर दिया। दिसंबर, 1932 में उन्होंने मद्रास में एक गैर-अस्पृश्यता सम्मेलन के उद्घाटन में अपने पति का प्रतिनिधित्व किया। वहां से, वह अछूत अधिकारों की याचना करने के लिए क्षेत्र के दौरे पर गयीं। हालांकि, हरिजन विषय को आगे बढ़ाने के लिए कस्तूरबा की कड़ी आलोचना की गई। संभवतः सरकारी चेतावनी की अवहेलना के लिए उन्हें फरवरी 1933 में वापस जेल भेज दिया गया। महिलाओं को शामिल करने की उनकी क्षमता के कारण अब उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा गांधी से बड़ा खतरा माना जाता था।

1932 और 1933 में उनका अधिकांश समय जेल में ही बीता। 1939 की शुरुआत में उन्होंने राजकोट में ब्रिटिशों के खिलाफ अहिंसक विरोध प्रदर्शन में भाग लिया, उन्हें गिरफ्तार किया गया और एक महीने तक एकांतवास में रखा गया, इस दौरान उनकी तबीयत और बिगड़ गई। 1942 में, उन्हें भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए फिर गिरफ्तार किया गया। कस्तूरबा अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अपने पति के साथ आगा खान महल में कैद थीं। उनका स्वास्थ्य कई सालों से नाजुक था और अंततः 22 फरवरी, 1944 को आगा खान महल में उनकी मृत्यु हो गई। उस समय वह 74 वर्ष की थीं।

निष्कर्ष
गांधी ने लिखा कि कस्तूरबा किसी भी लिहाज से मुझसे पीछे नहीं थीं। वह मेरे से बेहतर थी। उसके अमोघ सहयोग के बिना मैं शायद रसातल में चला जाता… उसने मुझे मेरी प्रतिज्ञाओं के प्रति जागृत रखने में मदद की। उसने मेरे सभी राजनीतिक आंदोलनों में मेरा साथ दिया और कभी भी किसी भी आंदोलन में मेरा साथ देने से हिचकिचाई नहीं। वह अशिक्षित थी, लेकिन मेरे लिए वह सच्ची शिक्षा का प्रतिरूप थीं।

गाँधी से विवाह के पश्चात कस्तूरबा का जीवन सामान्य नहीं रहा, वह उन महिलाओं का प्रतिनिधितत्व करती हैं, जो समय की मांग के चलते घरों की सीमा पार कर सार्वजनिक क्षेत्र में भाग ले रही थीं।

कस्तूरबा गांधीजी की परछाई मात्र नहीं थीं, उनका अपना एक सशक्त व्यक्तित्व था, जिससे अंग्रेज़ सरकार भी सहमती थी। 18 वीं और 19 वीं सदी की कस्तूरबा और उनकी साथी महिलाओं ने बहुत सारी सीमाओं को तोड़ते हुए, रीति रिवाज़ भी सँभालते हुए, रूढ़ियों को दरकिनार करते हुए पाश्चात्य जगत से भी पहले भारतीय स्त्री के सशक्तिकरण की नींव रखी थी।

-डॉ नमिता निम्बालकर

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