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अ-सरकारी खादी ही असरकारी खादी हैे

समाज खादी को एक तरफ पवित्र वस्त्र के रूप में देखता है, तो उससे भी कहीं ज्यादा वह इसे स्वास्थ्य और पर्यावरण के नजरिये से देखता है। पवित्र इस मामले में कि खादी हमारे राष्ट्रपिता, हमारी आजादी तथा ग्रामीण गरीबों, महिलाओं और परित्यक्ताओं की आजीविका से जुड़ा हुआ वस्त्र है।

खादी वस्त्र और विचार की आज जो स्थिति है, उसके लिए सरकारें जितनी जिम्मेदार हैं, उतने ही हम खादी और गांधी वाले भी जिम्मेदार हैं, यह वास्तविकता है।


सरकार ने जो किया, उस पर मैं गत 5 वर्षों में खादी मिशन की सभाओं में, गांधी स्मृति और दर्शन समिति के मंच से और खादी आयोग के सामने बहुत बोल चुका हूं। इन बातों से आगे क्या करना है, अब इस पर सोचने, बोलने और कार्यक्रम तय करने की जरूरत है। अब जरूरत है अ-सरकारी खादी को असरकारी बनाने की दिशा में मनन, चिन्तन और शक्ति लगाने की। हमें अपनी लकीर बड़ी करनी होगी, अपने गुणों का विकास करना होगा। सकारात्मकता हमारी आत्मिक शक्ति है। खादी विचार और वस्त्र सर्वोदय दर्शन का अविभाज्य अंग है, इसके संरक्षण और संवर्धन की जिम्मेदारी हमारी है।


हमारी चुनौतियां


स्वायत्त संगठन : हमारे सामने पहली चुनौती है, अ-सरकारी खादी विचारकों, उत्पादकों और विक्रेताओं का एक नेटवर्क खड़ा करने की। आज अ-सरकारी खादी का उत्पादन और बिक्री करने वाले बिखरे हुए हैं। इन सभी को इकट्ठा करके सर्व सेवा संघ के अंतर्गत एक स्वायत्त संगठन खड़ा करने की चुनौती है। स्वायत्ता का अर्थ स्पष्ट रूप से समझने की जरूरत है। सर्व सेवा संघ का नियंत्रण केवल उसके प्रबंधन पर होगा, नीतियों का नियमन उसका अपना होगा। सर्व सेवा संघ का खादी संयोजक और खादी संगठन के संयोजक एक दूसरे के पूरक की तरह काम करेंगे। हमें संख्या की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। कम संख्या में भी साधन की शुद्धता कायम रखते हुए बड़े साध्य को प्राप्त किया जा सकता है।
खादी की शुद्धता : हमें यह भी देखना और समझना होगा कि गैर पारंपरिक ऊर्जा (पवन, सोलर, कचरे और बायोगैस से उत्पादित ऊर्जा) का खादी के उत्पादन में उपयोग करें या न करें? करें तो किस सैद्धांतिक आधार पर? इस पर बहस भी होनी चाहिए, निर्णय भी होना चाहिए। करघे का नया सिस्टम अब ऊर्जा के इन्हीं स्रोतों से चल रहा है। इससे श्रम में राहत, आय में वृद्धि और सूत एवं कपड़े की गुणवत्ता में आ रहे सुधार को हम किस नजर से देखते हैं? आज न गांधी की आंधी है, न आजादी की लड़ाई है। आज तो हमें पर्यावरण और स्थाई विकास की नजर से ही इसे देखना और लोगों के बीच ले जाना है। इसलिए इस पर चर्चा आवश्यक है। हमारी प्रमाण पत्र व्यवस्था, हमारी कार्यपद्धति और उत्पादन की शुद्धता दूसरी चुनौती है।


असरकारी खादी की बिक्री व्यवस्था : एक तरह से यह चुनौती भी है और अवसर भी। समाज खादी को एक तरफ पवित्र वस्त्र के रूप में देखता है, तो उससे भी कहीं ज्यादा वह इसे स्वास्थ्य और पर्यावरण के नजरिये से देखता है। पवित्र इस मामले में कि खादी हमारे राष्ट्रपिता, हमारी आजादी तथा ग्रामीण गरीबों, महिलाओं और परित्यक्ताओं की आजीविका से जुड़ा हुआ वस्त्र है। उत्तर औद्योगिक व्यवस्था में वैश्वीकरण के दौर ने इंसान को इतना संवेदनशील नहीं छोड़ा है। अत: खादी की पवित्रता केवल मानने भर की है। स्वास्थ्य आज के व्यक्ति को ज्यादा करीबी विषय लगता है। हम देखते हैं कि भागदौड़ की इस जिन्दगी में वह स्वास्थ्य के बारे में अधिक चिन्तित है। सजीव खेती के उत्पादनों में लोगों की रुचि बढ़ रही है। चाहे आर्गेनिक गुड़ हो, कीटनाशक रहित अनाज या सब्जी हो, चाहे हाथ-कुटा चावल या घानी का तेल हो, सबके आकर्षण का केन्द्र है।


दूसरी तरफ सूचनाओं की इतनी प्रचुर उपलब्धता है कि पर्यावरण के बारे में हर कोई चिन्तित है। यह वर्ग खादी की बिक्री में हमारी मदद कर सकता है। यह वर्ग विशेष हमारा ग्राहक है। पर बिक्री व्यवस्था से पहले हम सभी को उत्पादन और उसकी विशेषता की जानकारी होनी चाहिए। हमारे उत्पादक एक दूसरे को ठीक से समझें, यह जरूरी है। इसकी व्यवस्था कैसे बैठायी जाय, यह तय करने की जरूरत है।


स्वावलंबी खादी :
पहले हर खादी संस्था स्वावलंबन के लिए कातने वाले कार्यकर्ताओं को सूत की बुनाई का खर्च देती थी। अब ऐसे कार्यकर्ताओं की और नियमित पेटी चरखा पर कातने वालों की संख्या कम हो रही है। अंबर चरखे पर फिर भी लोग वस्त्र स्वावलंबन के लिए कात रहे हैं। ऐसी संस्थाओं की संख्या बढ़ रही है। अंबर चरखे पर कताई के मामले में गांवों में अधिक समय बिताने वाले युवा रुचि ले रहे हैं।


हमें इन्हें पूनी की आपूर्ति और इनके सूत की बुनाई न्यूनतम दरों पर करनी ही होगी। पेटी चरखा वाले सूत को आज कल कारीगर बुनाई में लेते ही नहीं। उनका कहना है कि यह सूत ज्यादातर कच्चा आता है। ध्यान देने की जरूरत है कि खादी विचार जिन्दा रहना है, तो उसे मात्र वस्त्र नहीं बनने देना है।


प्रशिक्षण : आज खादी पर बोलने वाले बहुत लोग हैं। वे चरखे के पीछे का सारा तत्वज्ञान, स्वावलंबन, समता, सामूिहकता और आत्मविश्वास से लेकर पर्यावरण तक की खादी की सारी सैद्धांतिक बातें अच्छे से बताते और लिखते हैं। इनके अलावा चरखों के निर्माताओं, देखभाल करने वालों और स्पेयर पार्ट आदि का ज्ञान रखने वालों की क्षमता को जोड़कर हमें त्वरित खादी कोर्स अथवा खादी विद्यालय शुरू करना होगा। इनमें समन्वय की आवश्यकता हमने कभी महसूस नहीं की। इसलिए क्षमता और योग्यता होते हुए भी हम खादी को बढ़ा नहीं पा रहे हैं। खादी, कमीशन या केन्द्र सरकार ने इस तंत्रज्ञान और यंत्रज्ञान की जो व्यवस्था खड़ी की है, उसमें खादी संस्थाएं और खादी प्रबोधक (सर्वोदय वाले) एक दूसरे को जानते तक नहीं हैं, जबकि जानना पहला कदम है, समझना उसके आगे का कदम है। इन्हें एक धागे में बांधना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। यह जगह आज खाली है। इसे भरेगा कौन? सर्व सेवा संघ की खादी समिति को पहल करनी होगी और अ-सरकारी खादी संघ को इसे आगे बढ़ाना होगा।


अंबर पूनी और पेटी चरखे के पुरजों की जिला स्तर तक आपूर्ति व्यवस्था समय की मांग है। जिला स्तर पर चरखों की मरम्मत करने वाले भी हों, यह भी आवश्यक है। इस काम में अब एनआईटी भी संलग्न है। उसका लाभ लेकर क्या हम एक साल का वस्त्र विज्ञान कोर्स डिजाइन कर सकते हैं?


इन्फ्रास्ट्रक्चर : सौभाग्य से हमारे पास या क्षेत्र स्तर पर ऐसे कार्यालय अभी भी जिन्दा हैं, भले ही अब वे खत्म होने के कगार पर हों। इन्हें जिन्दा करके इनके मार्फत पूनी, चरखे और करघे उपलब्ध कराये जा सकते हैं।


ऊपर की सभी चुनौतियों का सामना करना : खादी के पुनर्गठन का काम गहन, सघन और सातत्यपूर्ण ढंग से चलने वाला काम है। संघ में खादी समिति का होना, इसको दूसरी समितियों से जोड़ना आदि संघ अध्यक्ष के निर्णय होते हैं। यह दुखद है कि हमारे लिए भी योग्यता प्राथमिक आवश्यकता नहीं रही। प्राय: व्यक्तिवाद हावी हो जाता है। इसलिए मेरा सुझाव है कि हम सर्व सेवा संघ से प्रेरित तो हों, पर स्वायत्त संगठन का निर्माण करें। इसकी पद्धति और समय की मर्यादा भी तय करें। इस पर चर्चा करें और निर्णय करें।


खादी विद्यालय, संगठन और खादी की हमारी वित्त व्यवस्था पर निर्णय तथा उनके क्रियान्वयन की समय-सीमा तय हो, जिम्मेदारियों को उठाना यदि संभव हो सका, तो हमारा यह संकल्प सिद्ध हो जायेगा। यदि ऐसा नहीं हो सका, तो आने वाली पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगी। इस बात के महत्व को समझकर हम काम में लग सकें, तो इससे अच्छा कुछ नहीं होगा।

-डॉ. सुगन बरंठ

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