भारत के तत्कालीन उद्योग मंत्री जार्ज फर्नाडिस ने एक बार संसद में कहा था कि पूरे देश में नक्सलवाद फ़ैला है, लेकिन बामनिया केंद्र के चारों तरफ नहीं, जबकि यहाँ भी आदिवासी रहते है, तो इसका कारण मामा बालेश्वर दयाल का काम है। यहाँ बामनिया केंद्र का आशय दक्षिण राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, मध्य प्रदेश के झाबुआ और रतलाम तथा गुजरात के पंचमहाल इलाके सम्मलित हैं, आज भी इस क्षेत्र में शांति है।
महात्मा गांधी के अनुयायी मामा बालेश्वर की बात करने से पहले इस क्षेत्र के गोविन्द गुरु की बात करते हैं। गोविन्द गुरु ने जब आदिवासियों में सुधार आन्दोलन चलाया, तो आदिवासियों ने शराब पीना बंद कर दिया। वे प्रत्येक रविवार को धूणी पर एकत्रित होने लगे और कुण्ड में घी की आहुति देने लगे, नेजे और झंडे लगाने लगे। इससे उनमें अध्यात्म ने जगह बनाई, जो उनकी प्रकृति पूजा जैसा ही था। उन आदिवासियों, जिनको गुरु के प्रभाव में भगत कहा जाने लगा था, ने शराब पीना बंद कर दिया, जिससे इस क्षेत्र के महारावल, राजा आदि का राजस्व गिरने लगा। गुरु के उपदेशों का ऐसा असर हुआ कि आजादी की बात होने लगी, तब एक षड्यंत्र रचा गया और ब्रिटिश सरकार को कहा गया कि गुरु, पृथक भील राज्य के लिए लोगों को भड़का रहे है। 17 नवम्बर, 1913 को जब गुरु, अपने अनुयायियों के साथ मानगढ़ की पहाड़ियों पर धूणी रमाये थे, 11 तरह की सेनाओं ने उनके चारों तरफ घेरा डाल दिया। मशीनगनें और तोपें चलीं। तकरीबन 1500 भील शहीद हो गए। यह दमन भयानक था, चारों तरफ डर का माहौल बन गया। गुरु को पकड़ लिया गया और उनको पहले फांसी की सजा दी गई, जिसे बाद में आजीवन कारावास में बदल दिया गया और जब प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश जीते, तो गुरु को 1919 में सशर्त रिहाई दी गयी। उस समय दाहोद में गांधीजी के परम अनुयायी ठक्कर बापा की सभा हुई। गुरु का एक शिष्य उनको झूठा स्वीकृति पत्र दिखाकर प्रतिबंधित क्षेत्र में ले गया और गुरु को फिर से आज्ञा के उल्लंघन के कारण पकड़ लिया गया। इस बार उन्हें 3 साल की सजा भुगतनी पड़ी। इस बीच एक बात ये हुई कि गुरु का महात्माजी के दर्शन से परिचय हो गया। हो सकता है, गुरु का महात्माजी के दर्शन से परिचय अहमदाबाद जेल में हुआ हो, यह भी सम्भव है कि गुरु को पूर्व में महात्माजी के अफ्रीका में किये सत्याग्रह का ज्ञान हो। मानगढ़ नरसंहार के दमन ने लोगों के मन में आजादी के सपने को दबा दिया। ऐसी स्थिति में ही 1931 में बालेश्वर दयाल उज्जैन के खाचरोद रेलवे स्टेशन पर उतरे। ब्रिटिश सरकार ने उनको महात्माजी को इटावा रेलवे स्टेशन पर रोकने और भाषण करवाने का अपराधी माना था। फिर जब क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद के समर्थन में कार्यक्रम करने के लिए पुलिस उन्हें तलाश रही थी, तब उनको उनके मित्र महावीर, जो गांधी टोपी पहनता था, का साथ मिला। उन दिनों महात्माजी उसके समर्थन में अछूतोद्धार के लिए केरल के वायनाड में अनुसूचित जाति के लोगों को मंदिर में प्रवेश का आन्दोलन चला रहे थे। बालेश्वर दयाल ने सत्य नारायण की कथा करवाई और अछूतों के हाथों प्रसाद वितरित करवाया और इस तरह गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम में सहयोग प्रारम्भ किया। फिर बालेश्वर दयाल ने भीलों को शिक्षा देना शुरू किया, अनेक स्कूल खोले और वे बालेश्वर से मामाजी बन गए। भीलों में यह रिश्ता बहुत प्रभावी और पवित्र होता है। मामाजी ने यहाँ इसाई धर्म प्रसार रोकने ले लिए शंकराचार्य से मुहर लगा पत्र लिया, जिसके अनुसार भील भी जनेऊ के हकदार थे। इससे भील बेगार से बच गए, असल में जो लोग इसाई बन जाते थे या जो जनेऊ पहने थे, उनको बेगार नहीं करना पड़ता था। मामाजी ने महात्माजी के स्वच्छता, शराबबंदी आदि कार्यक्रम चलाये। इन सबका जो असर हुआ, वह इस क्षेत्र के लोगों में गाँधी दर्शन का प्रभाव पैदा कर गया और सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह का संस्कार दे गया। मामाजी ने सत्याग्रह किया, जेल भरो आन्दोलन किये, सब कुछ अनुशासित ढंग से होता था। दुखद पहलू कहें या सत्ता की मज़बूरी, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मामाजी को दिए लिखित आश्वासन, कि आजादी मिलते ही जागीरदारी खत्म कर दी जायेगी, का पालन नहीं किया और मामाजी कांग्रेस छोड़कर समाजवाद से जुड़ गए।
इस आदिवासी अंचल में गांधी दर्शन का प्रभाव गहरा रहा है। बांसवाड़ा के ग्रामीण अंचल में प्रजामंडल के शिक्षा कार्यक्रम ने बदलाव शुरू किया और शोषण के खिलाफ आदिवासी लड़ने लगे, जिले के डेरी गाँव में जंगलात के कर्मचारियों ने एक आदिवासी महिला को छेड़ दिया, जिसपर सत्याग्रह हुआ। ऐसे ही कालानाला गाँव में जबरन लेवी की वसूली हो रही थी, जिसपर आदिवासियों ने सत्याग्रह किया। पास के जिले डूंगरपुर में आजादी के बाद हुई घटना से देश परिचित है। रास्तापाल गाँव में प्रजामंडल का स्कूल चलता था, जिसे महारावल ने सिपाही भेजकर बंद करने को कहा। जब नानालाल खाट और सेंगा भाई ने स्कूल बंद करने से इंकार किया, तो सिपाही शिक्षक सेंगा भाई को गाड़ी के पीछे बांधकर घसीटने लगे। उनको छुड़वाने आये नानालाल खाट को भी सिपाहियों ने पीटा और वे शहीद हो गए। कालीबाई ने हंसिया से रस्सी काट दी, जिसपर गोली चली और काली भी शहीद हो गई।
डूंगरपुर में गांधी के अनुयायियों ने शहर में जगदीश मंदिर में दलितों का मंदिर प्रवेश करवाया। वागड़ सेवा मंदिर ने खान्दलाई में आदिवासियों की शिक्षा के लिए आश्रम स्थापित किया। सागवाड़ा, झोथरा और गन्धवा में रचनात्मक कार्यक्रम चलाए। डूंगरपुर के कटारा क्षेत्र के सांगोट गाँव में एक मुस्लिम युवक आदिवासियों को पढ़ाता था। इस स्कूल को बंद करने का प्रयास किया गया, भारी संघर्ष हुआ, इसी तरह के हालत पुनावाड़ा में हुए, जहाँ भील युवक शिवलाल को स्कूल नहीं बंद करने पर पीटा गया। डूंगरपुर में अनेक आदिवासी भारत छोड़ो आन्दोलन से भी जुड़े, जिनमें प्रताप भील, कुरिया, दीनबन्धु, महेंद्र कुमार परमार, रतनलाल रोत, रतनलाल पटेल, लक्ष्मण हिरात, गणेश भाई परमार, हीराभाई, भानुभाई गमेती, तेजाभाई, नन्दलाल कलारिया, गंगाराम, भगवान खरावेडा, नाथूलाल अहारी, गोपाल डोडा, राधाकृष्ण डोडा और हीरालाल के नाम समाने आये हैं। सभी गांधी दर्शन पर चलते थे और समाज में बड़ा प्रभाव रखते थे।
झाबुआ और रतलाम क्षेत्र में गाँधी दर्शन का प्रभाव देखें, तो झाबुआ में हेट सिंह नाम का एक आदिवासी था, उसके पीछे सैकड़ों लोग प्रदर्शन करने निकलते थे। इस गांधी अनुयायी को लोग राजा हटे सिंह कहते थे, उसने स्वदेशी और शराबबंदी के आन्दोलन चलाये। इसी क्षेत्र में महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद का जन्म स्थल भी है, जो महात्मा गांधी की जय करते थे, पर कुछ भिन्न मार्ग से आजादी के लिए प्रयासरत रहे। उनका कर्म क्षेत्र यह नहीं रहा, रतलाम में मूर्ति भाई, केशवचन्द्र आदि गांधी मार्ग पर चलते थे। रतलाम के रूपा खेड़ा गाँव में तो आज भी अनेक आदिवासी खादी पहनते हैं।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यो को चलाकर उनके अनुयायियों ने इस गुरु और मामाजी के प्रभाव क्षेत्र में गाँधी दर्शन को स्थापित किया। ये अनुयायी सभी वर्ग, समाज व धर्म के थे, उनके प्रयासों के कारण ही लोगों में शिक्षा का प्रसार हुआ और यह क्षेत्र, जो आदिवासी बहुल है, भौगोलिक रूप से जहां अरावली की पहाड़िया भी हैं, वहाँ से आज खनिज निकलता है। जल, जंगल और जमीन का नारा भी है, दूसरे तरह का शोषण भी है, लेकिन आज भी यह इलाका महात्मा गांधी के प्रभाव से शांत है। यहाँ कभी हिंसा नहीं होती है।
-भारत दोसी
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