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आगामी पचीस वर्षों की कार्ययोजना बने!

आजाद भारत में सर्वोदय आंदोलन की भूमिका; एक तीखी पड़ताल

आज पूरे देश में जो कुछ हो रहा है, वह गांधी की सोच के विपरीत दिशा में जा रहा है। इस संदर्भ में सर्वोदय समाज भी वह भूमिका निभाने में विफल रहा है, जिसकी उससे अपेक्षा की गई थी। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। अगले 25 वर्षों के लिए एक ठोस योजना पर मिलकर काम करने की जरूरत है। इस काम में उन लोगों को शामिल करने की आवश्यकता है, जो बिना किसी हठधर्मिता के, सर्वोदय या गांधी का नाम लिए बिना सर्वोदय का काम कर रहे हैं।

भारत की आजादी और देश के बंटवारे के 75 साल बाद, कभी-कभी मन में यह सवाल उठता है कि 15 अगस्त का दिन भारत के लोगों के लिए खुशी का दिन है या दुख का? हंसने का दिन है या रोने का? इस देश की आजादी के लिए कितने ही अज्ञात देशभक्तों ने बलिदान दिया था। आज तो देशभक्त, देशभक्ति, देशद्रोही और देशद्रोह के अर्थ बदल गए हैं। आज देशभक्त केवल वह है, जो सरकार का आंख मूंदकर समर्थन करेगा, ताली बजाएगा, चापलूसी करेगा और किसी विरोध-प्रतिरोध पर नहीं जाएगा। जो सरकार की गलत नीतियों, कार्यक्रमों और अन्याय का समर्थन नहीं करेंगे, उन्हें देशद्रोही करार दिया जाएगा। इन दिनों देशभक्तों और देशद्रोहियों की पहचान करने का एक आसान तरीका जनता के दिमाग में थोपने की कोशिश की गई है।

अगर कोई पड़ोसी देश पाकिस्तान के समर्थन में कुछ कहता है, तो वह देशद्रोही है और अगर वह पाकिस्तान के खिलाफ कुछ कहता है, तो वह देशभक्त है। दूसरी तरफ, मुस्लिम विरोधी या हिंदुत्व का झंडा फहराने वाले को ईमानदार नागरिक या सच्चे देशभक्त के रूप में चिह्नित किया जाता है, जबकि मुसलमानों की तरफ से बोलना या हिंदुत्व का समर्थन न करना देशद्रोह माना जाता है। आजादी से लगभग चार दशक पहले गांधीजी ने अपने दिमाग में भारत के भविष्य की जो रूपरेखा तैयार की थी, आजाद भारत के नेताओं ने उससे पल्ला झाड़ लिया। नतीजा वही हुआ, जो होना था। देश ने दूसरी दिशा पकड़ ली। गांधीजी का स्पष्ट मत था कि वास्तविक आजादी या स्वराज प्राप्त करने के लिए भारत को एक लंबी कांटेदार सड़क को पार करना होगा। सर्वोदय समाज की स्थापना, उन्हीं सपनों की रोशनी में उन्हीं लक्ष्यों के लिए की गयी थी।

गांधीजी ने अपने सपनों के भारत का ब्लू प्रिंट हिन्द स्वराज में लिखा था। इसीलिए ‘हिंद स्वराज’ को सर्वोदय का घोषणा पत्र या मेनिफेस्टो कहा जाता है। गांधीजी द्वारा प्रतिपादित सर्वोदय दर्शन के पीछे का विचार, काफी हद तक पारंपरिक सोच से ऊपर जाने वाला था। समाज में सभी को सुख और आनंद देना संभव नहीं है, इसलिए अधिक से अधिक लोगों के कल्याण की बात की जाती है। गांधीजी ने कहा कि समाज में ऊंच-नीच, अमीर-गरीब के बीच कोई भेद नहीं होगा और यदि कोई अंतर होगा भी तो वह प्रकट नहीं होगा, एक समतावादी और समानता का समाज स्थापित होगा।

आचार्य विनोबा भावे ने सर्वोदय का दूसरा नाम साम्ययोग किया। गांधीजी एक शोषणविहीन, समतावादी, अहिंसक और आत्मनिर्भर समाज स्थापित करना चाहते थे, जिसे ‘सर्वोदय समाज’ कहा जाता है। प्रश्न यह है कि आदर्श समाज के निर्माण का जो खाका महात्मा गांधी ने विश्व के सामने प्रस्तुत किया, उससे उनके अपने देश को कितना लाभ हुआ? गांधीजी, विनोबाजी और जयप्रकाश जी के नेतृत्व में सर्वोदय आंदोलन पूरे देश में फैला, लेकिन आज प्रभावहीन नजर आता है, तो क्यों? हमें वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करना होगा।

आइए, वर्तमान भारत की तस्वीर पर एक नजर डालते हैं। भारत की वर्तमान जनसंख्या लगभग 141 करोड़ से अधिक है। 2019 की जनसंख्या/जनगणना के अनुसार भारत में 649481 गांव हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार 72 प्रतिशत लोग गांवों में रहते हैं। कभी देश में सात लाख गांव होते थे, लेकिन विभाजन के बाद उनकी संख्या कम हुई।

इस बीच शहरी जनसंख्या 27.81% (2001) से बढ़कर 31. 16% (2011) तथा ग्रामीण जनसंख्या 72.19% (2001) से घटकर 68.84% (2011) हो गई। भारत में जिलों की संख्या 766 (1 अगस्त, 2022), बड़े शहरों की संख्या 48 (1 मिलियन और अधिक की जनसंख्या वाले) और छोटे शहरों की संख्या 2500 (10,000-1 लाख) है। ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के 10% लोगों के पास 74.3% संपत्ति और 90% के पास 25.7% संपत्ति है।

आसानी से समझा जा सकता है कि गांधी के सपनों के भारत की वास्तविक तस्वीर यही है। शहरीकरण के खिलाफ गांधीजी की मुख्य शिकायत यह थी कि जैसे-जैसे शहरों की संख्या बढ़ेगी, गांवों का शोषण होगा। क्योंकि शहर का विकास गांव के संसाधनों और क्षमताओं की कीमत पर होता है। भारत मूल रूप से ग्राम प्रधान देश है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि शुरुआत से ही गांवों की उपेक्षा की गई। गांधीजी बार-बार पंचायतों के माध्यम से गांवों को सत्ता के हस्तांतरण की बात करते रहे, लेकिन इसे नजरअंदाज कर दिया गया। पिछले 75 वर्षों में गांवों को संकट से उबारने का कोई उपाय नहीं किया गया है। यह सोचकर भी आश्चर्य होता है कि गांधी के आसपास रहने वालों ने ही गांधीजी के विचारों को नजरअंदाज करना शुरू कर दिया था। क्या इसके पीछे राजनीतिक सत्ता हथियाने की इच्छा एक कारण थी? यह प्रश्न भी उठता है कि जो लोग गांधी के तटस्थ राजनीतिक शक्ति के विचार से प्रेरित थे, जिन्होंने गांधी द्वारा नियोजित लक्ष्यों के लिए सर्वोदय आंदोलन को आगे बढ़ाने के बारे में सोचा, क्या उन्हें उन लोगों पर पूरा भरोसा था, जिनके हाथ में राज व्यवस्था थी? मुझे लगता है कि कुछ हद तक यही हुआ और यह सर्वोदय आंदोलन की पहली बड़ी गलती थी। जब तक इस गलती का एहसास हुआ, हाथ की लगाम लगभग पूरी तरह से छूट चुकी थी। वैसे लोगों के सामने सत्ता में बने रहना मुख्य लक्ष्य था। परिणामस्वरूप, भारत गांधीजी के नए समाज के नियोजित निर्माण से वंचित रह गया।

परिणाम यह हुआ कि हमारा देश इस समय विभिन्न जटिल समस्याओं से जूझ रहा है। आजादी की हीरक जयंती के अवसर पर जब मैं देश के नेताओं के झूठे और चुटीले भाषणों को सुनता हूं, तो मुझे लगता है कि देश के लिए दी गयी कुर्बानियां व्यर्थ हो गयीं। आज देश की जनता अनियंत्रित मूल्य वृद्धि, बेरोजगारी, रिश्वतखोरी, जातिगत भेदभाव, धार्मिक ध्रुवीकरण और धार्मिक कट्टरता से पीड़ित है। सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विषमता समाज के रोमछिद्र में घुस गई है। देश के राजनीतिक वर्ग को विलासिता में जीने की आदत पड़ गयी है। ये नकली देशभक्त अच्छी तरह समझते हैं कि बढ़ती बेरोजगारी ने युवाओं को किस तरह भटका दिया है। कीमतों में बेलगाम बढ़ोत्तरी ने आम आदमी को असमंजस में डाल दिया है। आदिवासी और दलित समाज में अभी भी हालात बहुत कुछ उसी स्थिति में हैं, इसलिए वे मर रहे हैं, उन पर अत्याचार किया जा रहा है। शुक्र है कि किसानों में सरकार के खिलाफ उंगली उठाने की हिम्मत बची हुई है? अगर ट्रेन का मालिकाना हक, टेलीफोन का मालिकाना हक अदानी, अंबानी को दे दिया जाए, तीस्ता सीतलवाद, हिमांशु कुमार, मेधा पाटेकर आदि को कैद कर लिया जाय, तो हंगामा क्यों होगा? जेल से रिहा हुए बलात्कारियों के खिलाफ कौन बोले? ऐसे अप्रिय प्रश्नों से मुंह मोड़ने का आसान तरीका है कि हम धार्मिक विभाजन को भड़काएं और घृणा का प्रसार करें। दो धर्मों के लोगों के बीच जितना अधिक मतभेद होगा, लड़ाई, झगड़े, दंगे जितने अधिक होंगे, जनता का ध्यान मुख्य मुद्दों से हटाना उतना ही आसान होगा।

देश में लोकतंत्र शब्द हंसी का पात्र बन गया है। हमारे देश में संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था है। संसदीय लोकतंत्र का क्या अर्थ है? यह जनता के बहुमत से चलायी जाने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था है। यह 49 और 51 वोट का खेल है। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि बहुमत द्वारा शासित लोकतांत्रिक व्यवस्था में मानव स्वतंत्रता को कम, संक्षिप्त या संरक्षित नहीं किया जाएगा। भारत को एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश माना जाता है, लेकिन जिस तरह से बहुमत के नाम पर देश के संविधान का उल्लंघन किया जा रहा है, नागरिक अधिकारों को नष्ट करने के प्रयास किए जा रहे हैं और लंबे समय से चले आ रहे बहुलवादी सांस्कृतिक वातावरण को प्रदूषित किया जा रहा है, ऐसे में लोकतंत्र शब्द हास्यास्पद हो गया है।

लोकतंत्र शब्द सुनकर बहुत अच्छा लगता है, हमारे देश को एक लोकतांत्रिक देश होने पर गर्व है, लेकिन अगर इस देश में अन्याय का विरोध करने का दायरा सिमट रहा है, विपक्ष की आवाज को दबाने की कोशिश की जा रही है, देश के संविधान की अवहेलना की जा रही है और लोगों के संवैधानिक अधिकारों को कम किया जा रहा है, तो क्या इसे सच्चा लोकतांत्रिक देश कहा जा सकता है? हमारे देश में लोकतंत्र का सीधा-सा मतलब है मतदान के अधिकार का प्रयोग करना। हमारे देश का लोकतंत्र वोट दे पाने तक सीमित हो गया है। देश में अधिकांश मतदाताओं की भूमिका को देखकर लगता है कि मतदान उनके कर्तव्य का अंत है। यह भूलकर कि यह तो मात्र मूल लोकतांत्रिक अधिकार हैं, वे चुने हुए प्रतिनिधियों पर भरोसा करते हैं।

लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है, जब निर्वाचित प्रतिनिधियों की मतदाताओं द्वारा कड़ी निगरानी की जाए। आंख से आंख मिलाकर बात करने का अधिकार मतदाता की क्षमता है, लेकिन असली तस्वीर कुछ और ही है। मतदाता मतदान के दिन तक राजा की भूमिका निभाता है, उम्मीदवार भिखारी (वोट के लिए भीख) की भूमिका निभाता है और जब चुनाव समाप्त हो जाते हैं, परिणाम आ जाते हैं, तो भिखारी राजा बन जाता है, राजा भिखारी बन जाता है।

लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है, जब निर्वाचित प्रतिनिधि संविधान की गरिमा की रक्षा के लिए काम करता है। लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है, जब नागरिक न केवल अपने अधिकारों के लिए लड़े, बल्कि अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण भी करे। न केवल सरकार, बल्कि नागरिक को भी उसके कर्तव्य की भावना के प्रति जागृत किया जाए, तभी लोकतंत्र का लाभ उठाया जा सकता है। इसलिए अनेक विचारकों ने संसदीय लोकतंत्र की अपेक्षा जनभागीदारी वाले लोकतंत्र को अधिक महत्व दिया है।

गांधीजी ने जिस लोकतंत्र का सपना देखा था, वह व्यक्तित्व, समानता और बंधुत्व पर आधारित होना चाहिए। वित्तीय, सामाजिक, राजनीतिक और अन्य मामलों में न्याय द्वारा शासित होना चाहिए। जिन्हें अंतिम जन, आदिवासी, वनवासी और दलित कहा जाता है, उन पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द भी संदिग्ध है। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में, धर्म का पालन करने का अधिकार व्यक्तिगत निर्णयों पर निर्भर करता है। वहां राज्य का हस्तक्षेप वांछनीय नहीं है। राज्य के मन में सभी धर्मों के लिए समान सम्मान होना चाहिए। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में, विभिन्न धर्मों के लोग शांतिपूर्वक अपनी धार्मिक प्रथाओं का अभ्यास करते हैं, लेकिन सरकार धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगी, किसी को धर्म से वंचित नहीं किया जाएगा, यह संविधान की व्यवस्था है। निजी तौर पर धर्म का पालन निश्चित रूप से किया जा सकता है, लेकिन सार्वजनिक रूप से नहीं, यह धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ होगा। जब देश का प्रधानमंत्री संसद भवन निर्माण के लिए भूमि पूजन करता है, तो धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन होता है।

विदेशी शासक और देशी शासक में बहुत अधिक अंतर नहीं है। देशी शासक भी देश की संपत्ति लूटता है, लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनता है और आलोचना करने पर जेल में डाल देता है। आम लोग अक्सर धोखाधड़ी, दुर्व्यवहार और अभाव के शिकार होते हैं। धार्मिक विभाजनों को बनाए रखने और उन्हें सुदृढ़ करने की रणनीति के माध्यम से राजनीतिक शक्ति बनाए रखने का काम देशी शसक भी करते हैं।

इसलिए मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं, जो कहते हैं कि अंग्रेजों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का आविष्कार और कार्यान्वयन करके देश पर शासन करना जारी रखना आसान बना दिया। असल में यह राह सबसे पहले हमारे देश के ही कुछ स्वार्थी लोगों ने दिखाई थी, जो सुगमता से शासन करने का आसान तरीका था। इसने औपनिवेशिक शक्तियों को बिना किसी रुकावट के अपना शासन जारी रखने की अनुमति दी। ब्रिटिश शासन के अंत के बाद भी हमारे देश में तथाकथित देशभक्तों की सरकारें आज भी उस नीति का पालन कर रही हैं।

आज पूरे देश में जो कुछ हो रहा है, वह गांधी की सोच के विपरीत दिशा में जा रहा है। इस संदर्भ में सर्वोदय समाज भी वह भूमिका निभाने में विफल रहा है, जिसकी उससे अपेक्षा की गई थी। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं।

सर्वोदय कार्यकर्ताओं के साथ-साथ संगठन भी आंदोलन उन्मुख भूमिका से हट गए हैं और यथास्थिति बनाए रखने में अधिक रुचि लेते हैं। गांधीवादी आदर्शों को मानने वाले संगठनों के बीच समन्वय का अभाव है। बहुत कुछ वैसे ही, जैसे समुद्र में स्थित छोटे और बड़े द्वीप होते हैं। सर्वोदय आंदोलन अपना नेतृत्व नई पीढ़ी को सौंपने में पिछड़ गया। कुछ मामलों में आदर्शों और अपनाए गए कार्यक्रमों के बीच विरोधाभास है। जनसंपर्क धीरे-धीरे क्षीण होता गया। सर्वोदय कार्यकर्ताओं में आदर्शों के प्रति समर्पण का अभाव पैदा हुआ। प्रमुख सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों में उचित नेतृत्व का अभाव बना रहा। रचनात्मक कार्यक्रमों को बढ़ावा देने पर जोर नहीं दिया गया।

राष्ट्रगान थोपकर देशभक्ति की भावना जगाना संभव नहीं है। शासक की आलोचना करने का अर्थ देशद्रोही बनना नहीं है। एक सच्चा देशभक्त व्यवस्था के दोषों को बताकर व्यवस्था को ठीक करना चाहता है, समाज में जातिवाद का विरोध करने का मतलब समाजवाद विरोधी होना नहीं है, बल्कि भेदभाव रहित समाज की स्थापना करना है। अगर आलोचना पर प्रतिबंध लगा दिया गया तो हम रुक जाएंगे। देश कभी आगे नहीं बढ़ेगा। खाना, कपड़ा और मकान सब कुछ नहीं है। लोगों को बोलने का अधिकार, अलग राय रखने का अधिकार दिया जाना चाहिए।

किसी भी देश के लिए पचहत्तर वर्ष निस्संदेह क्रांति का एक निर्णायक कालखण्ड हो सकता है। जैसे कोई बच्चा विभिन्न जटिलताओं के साथ पैदा होता है, उसी प्रकार भारत की स्वतंत्रता भी जन्म से ही जटिल बनी रही। जब अंग्रेजों ने देश छोड़ा, तो जिस शब्द का वे इस्तेमाल कर रहे थे, वह था – “Transfer of power act”। यह लगभग वैसा ही है, जैसे देश ने स्वेच्छा से उनकी गुलामी स्वीकार की थी। अधीनता से मुक्त एक स्वतंत्र देश के रूप में हम आनन्दित हुए और खुद को आजाद मुल्क कहने लगे।
आज शासक की त्वचा का रंग ही बदला है, बाकी अंग्रेजी शासकों के तमाम दुर्गुण देखे जा रहे हैं। अगर ऐसे ही चलता रहा तो यह कल्पना करना आसान है कि 25 वर्षों बाद भारत की आजादी के शताब्दी समारोह का विश्लेषण करने वाले लोग किस तरह का देश देखेंगे?

सर्वोदय के आदर्शों को मानने वाले लोगों और संगठनों की विशेष भूमिका होती है। अगले 25 वर्षों के लिए एक ठोस योजना पर मिलकर काम करने की जरूरत है। इस काम में उन लोगों को शामिल करने की आवश्यकता है जो बिना किसी हठधर्मिता के, सर्वोदय या गांधी का नाम लिए बिना सर्वोदय का काम कर रहे हैं। कुछ पर्यावरण पर काम कर रहे हैं, कुछ वैकल्पिक कृषि पर, कुछ वैकल्पिक स्वास्थ्य प्रणाली पर और कुछ वैकल्पिक शिक्षा आदि पर काम कर रहे हैं। उन लोगों को खोजने और सर्वोदय आंदोलन से जोड़ने की जरूरत है। कई लोग खादी और ग्रामीण कुटीर उद्योगों के साथ नए सिरे से काम कर रहे हैं। उन्हें प्रोत्साहित करने की जरूरत है। देश के मौजूदा हालात को देखते हुए शांति सेना के कार्यक्रम पर विशेष जोर देने की जरूरत है। गांधीजी ने जिस पंचायत व्यवस्था की बात की थी, उसे दलगत राजनीति के कलंक से मुक्त करके पुन: क्रियान्वित करने की जरूरत है। तब शायद निकट भविष्य में हम गांधी द्वारा नियोजित एक नए समाज के निर्माण की दिशा में कुछ प्रगति करने में सक्षम होंगे।

-चंदन पाल

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