आज सारी दुनिया में शासन की लोकतांत्रिक पद्धति सर्वमान्य है। दुनिया में जहां राजतंत्र है भी; वहां भी शासन लोकतांत्रिक पद्धति से ही चल रहा है, लेकिन अब लोकतंत्र में भी खामियां दिखायी देने लगी है। विज्ञान और टेक्नॉलोजी के विकास के कारण सत्ता और सम्पत्ति का केन्द्रीकरण होता जा रहा है। विज्ञान और टेक्नॉलाजी के विकास ने आम आदमी को बेरोजगार बना दिया है। अब शरीर श्रम और बुद्धि से होने वाला काम भी मशीन करने लगी है। स्थिति यहां तक आ गयी है कि अब मशीन पर हाथ-पैर चलाने की भी जरूरत नहीं; आपके सोचने मात्र से ही मशीन आपका काम कर देगी। अब प्रश्न यह उठता है कि अगर सब काम मशीन ही करेगी, तो आदमी क्या करेगा? वह तो बेरोजगार हो जायेगा। पहले जब आदमी मजदूरी या नौकरी करता था, तब उसकी जेब में मजदूरी या नौकरी का वेतन पैसे या अनाज के रूप में आता था। उससे आम आदमी की आजीविका चलती थी। जब वह बेरोजगार हो जायेगा, तब उसकी जेब में पैसे कहां से आएंगे? उसकी आर्थिक जरूरतों की पूर्ति कैसे होगी? इस प्रश्न का उत्तर न लोकतंत्र के पास है, न विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के पास है और न उद्योगपति व पूंजीपति के पास है। आज का यक्ष प्रश्न यही है।
आज लोकतंत्र की मूल इकाई राष्ट्र को माना जाता है। आम जनता के बीच शासन-व्यवस्था कायम रखने के लिए संगठित नौकरशाही की जरूरत पड़ती है। देश की अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए हैवी इंडस्ट्री की जरूरत पड़ती है। भारी उद्योग की खासियत यह होती है कि ग्रामीण और मध्यम स्तर के उद्योग टिक नहीं सकते। मध्यम और ग्रामीण स्तर के उद्योग से ही आम आबादी को रोजगार मिल सकता है। भारी उद्योग से भारी मात्रा में बेरोजगारी का सृजन होता है। देश की अर्थव्यवस्था चलाने वाले उद्योगपति और शासन व्यवस्था चलाने वाली नौकरशाही की रक्षा के लिए सेना और पुलिस; ये लोकतंत्र के तीन नये स्तम्भ हैं। लोकतंत्र के इन तीनों नये स्तम्भों के वेतन का भुगतान सरकारी राजस्व से होता है। ये तीनों आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न और संगठित हैं। देश की सरकार उद्योगपतियों द्वारा दिए गये राजस्व से चलती है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ जन प्रतिनिधि देश के राजनैतिक दलों द्वारा नामित होता है। आम जनता उसे अपना वोट देकर अपना प्रतिनिधि चुनती है। राजनीतिक दलों का अपना स्वतंत्र आर्थिक आधार नहीं होता। उन्हें अपनी आर्थिक जरूरतों की पूर्ति चंदे से पूरी करनी पड़ती है। चुनाव के महाभारत में भी आर्थिक जरूरतों की पूर्ति चंदे से ही होती है। चंदा भी आम जनता अर्थात वोटर नहीं, उद्योगपति ही देता है।
संविधान के अनुसार जनप्रतिनिधि आम जनता के वोट से चुना जाता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि चुनाव में पैसा भी खर्च होता है। वह पैसा भी राजनैतिक दलों को उद्योगपतियों से ही मिलता है। सरकार किसी की भी बने; संसद अघोषित रूप से उद्योगपतियों की बंधक बन जाती है। उसे हर समय उद्योगपतियों के हितों की चिन्ता करनी पड़ती है। अन्यथा, अगले चुनाव में राजनैतिक दलों को उद्योगपतियों से चंदा नहीं मिलने का खतरा बना रहता है। राजनैतिक दलों के सामने निरंतर धर्मसंकट खड़ा रहता है कि सरकारी सुविधा नीतियों का लाभ किसे दें? जिसके वोट से जनप्रतिनिधि बने हैं, उसे या जिसके पैसे से चुनाव लड़ा है, उसे? अगर सरकार चलाने वाला जन प्रतिनिधि उद्योगपतियों के पक्ष में नीतियां बनाता है, तब उसे आम जनता के हितों की बलि देनी होती है। अगर वह आम जनता के पक्ष में नीतियां बनाता है, तब उद्योगपतियों के हितों की बलि देनी होती है। राजनैतिक दलों को हर पांच साल के बाद वोट के लिए जनता के पास जाना पड़ता है और आम जनता के आक्रोश का सामना करना पड़ता है। राजनैतिक दलों के बीच आपस में गलाकाट प्रतियोगिता चलती रहती है। इस कारण राजनैतिक दलों और जन प्रतिनिधियों की स्थिति उद्योगपतियों के सामने कमजोर बनी रहती है। इसके अलावा, भारतीय संविधान में व्यक्ति का मौलिक अधिकार दिया गया है। उसके अंतर्गत व्यक्ति को असीमित संपत्ति रखने का अधिकार अब नहीं है। लेकिन उद्योगपतियों को इसका अलिखित विशेषाधिकार मिला हुआ है, वे इस विशेषाधिकार का उपयोग अपने आर्थिक हितों के संरक्षण के लिए करता है। अगर सरकार चलाने वाले जन प्रतिनिधि उद्योगपतियों की नाजायज आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण करने की कोशिश करता है, तब सरकार चलाने वाले जन प्रतिनिधियों को उद्योगपतियों की इस चेतावनी का सामना करना पड़ता है कि हम अपनी पूंजी अपने देश के बाजार से निकालकर विदेशी बाजार में निवेश कर देंगे। व्यक्ति के मौलिक अधिकार में से संपत्ति रखने का अधिकार उद्योगपतियों का विशेषाधिकार बन जाता है। इस कारण कोई भी जनप्रतिनिधियों की सरकार, उद्योगपतियों की नाजायज आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण नहीं कर पाती। जनप्रतिनिधियों की सरकार उद्योगपतियों के सामने विशेषाधिकार के कारण लाचार हो जाती है। सचमुच में देश का उद्योगपति अपनी पूंजी अपने देश के बाजार से निकालकर विदेशी बाजार में निवेश कर दे, तो देश की अर्थव्यवस्था का क्या हाल होगा? यह कल्पना ही बहुत भयावह है।
इसी तरह अफसरशाही का भी विशेषाधिकार होता है। आम जनता की नागरिकता तय करने का अधिकार देश की राजधानी दिल्ली में अफसरशाही के पास है। जहां और जिस गांव या शहर में पैदा हुए या रहते हैं, वहां की ग्रामसभा या नगरपालिका को इस मामले में कोई अधिकार ही नहीं है। इसी तरह पुलिस के भी अपने विशेषाधिकार हैं, जिसके अंतर्गत शांति व्यवस्था के बनाये रखने के नाम पर वह बुलडोजर से किसी का भी घर ध्वस्त कर देती है। जिसके वोट से सरकार बनती है, उसके पास वोट देने के अलावा कोई विशेषाधिकार नहीं है। वह पूरी तरह असंगठित, बेरोजगार और आपसी गलाकाट प्रतियोगिता में उलझा हुआ है।
इन उलटबांसियों का का मूल कारण लोकतंत्र का राष्ट्रवादी चरित्र है। अगर लोकतंत्र का मूल इकाई राष्ट्र होगा, तब राष्ट्र को चलाने के लिए उद्योगपति, अफसरशाही और सेना-पुलिस आवश्यक है। अगर दुनिया के देश, लोकतंत्र के राष्ट्रवादी चरित्र को कबूल करते हैं, तब लोकतंत्र के दुष्परिणाम- सत्ता संपत्ति का केन्द्रीकरण, बेरोजगारी और जनप्रतिनिधियों की गलाकाट प्रतियोगिता से उत्पन्न संघर्ष को भुगतना ही पड़ेगा। यह एक त्रिभुज है, जिसके बीच में आम जनता जीवन-मरण का संघर्ष कर रही है।
अगर आम जनता इस त्रिभुज से निकलना चाहती है, तो उसे भारतीय संविधान में संशोधन कर नागरिकों के मौलिक अधिकारों की तरह गांव को भी मौलिक अधिकार दिलाने की आवाज़ उठानी पड़ेगी और विनोबाजी के ग्रामदान, ग्रामस्वराज्य के फार्मूले को स्वीकार करवाना पड़ेगा। सरकार को ग्रामसभा को विशेषाधिकार देना पड़ेगा। गांव को लोकतंत्र की मूल इकाई मानना पड़ेगा। गांव को संगठित रखने और गांव के अर्थतंत्र को चलाने के लिए पर्याप्त रोटी, कपड़ा और मकान के मामले में ग्रामोद्योगों के बल पर स्वावलंबी अर्थनीति तथा गांव के हर वयस्क नागरिक से युक्त ग्रामसभा को स्वीकार करना पड़ेगा। इसके अलावा, व्यक्ति के मौलिक अधिकारों में से संपत्ति रखने का स्वत्वाधिकार ग्रामसभा को और सर्वाधिकार गांव के नागरिकों को देना पड़ेगा। इस दृष्टि से जनमत बनाने के लिए देश भर में अहिंसक जनांदोलन खड़ा करना पड़ेगा और संविधान में उपरोक्त संशोधन करना पड़ेगा। आम जनता के हित में यह बहुत आवश्यक है।
-सतीश नारायण
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