देश में सम्पन्न राष्ट्रपति चुनाव के मतों की गिनती शुरू हो गई है. पूर्वानुमान के अनुरूप ही परिणाम आयेंगे, यह सबको पता है. बावजूद इसके, देश में यह उत्सुकता है कि एक आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू राजनीति के एक मंझे हुए खिलाड़ी और पूर्व धुरंधर प्रशासक यशवंत सिंहा को कितने मतों से पराजित करती हैं. यह वही यशवंत सिन्हा हैं, जो कुछ वर्ष पूर्व तक उसी दल में शामिल थे ,जिनकी उम्मीदवार आज द्रौपदी मुर्मू बनी हैं.
जब उम्मीदवार का चयन हो रहा था और एनडीए में तरह-तरह के नाम आ रहे थे, जिनमें एक नाम द्रौपदी मुर्मू का भी था, मुझे उसी समय लग गया था कि देश का शासक वर्ग अब कोई ऐसा दांव खेलने वाला है, जिसके सामने विपक्ष चारों खाने चित हो जायेगा. और वही हुआ, भारी मतों से द्रौपदी मुर्मू देश की महामहिम बन गईं.
यह दृश्य साफ संदेश देता है कि एक आदिवासी महिला देश के सर्वोच्च आसन तक इसलिए पहुंच सकी, क्योंकि हमारे पुरखों ने आजादी की लड़ाई में कुछ मूल्य स्थापित किए थे, यह परिणाम उन्हीं मूल्यों के तेज से निकला है. यह गांधी, अम्बेडकर और डॉक्टर लोहिया के उन मूल्यों की जीत है, जिनमें हमारे इन बुजुर्गों ने वंचितों को सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठाने की बात की थी, दलितों और आदिवासियों को सत्ता के सर्वोच्च प्रतिष्ठान तक पहुंचाने की वकालत की थी. वैसे यह बात दीगर है कि उस सिंहासन पर बैठने वाले/बैठने वाली वंचितों, पीड़ितों की अपेक्षाओं और जरूरतों के अनुरूप खरे उतरते हैं या नहीं! जो भी हो, यह उन पुरखों के संघर्ष और मूल्य की जीत तो है ही.
कांग्रेस की सर्वोच्च नेता सोनिया गांधी, जिन्होंने एक बार प्रधानमंत्री के पद को सम्मानपूर्वक नकारते हुए मनमोहन सिंह को उस पद पर बैठाया था, अपना पक्ष रखने ईडी दफ्तर पहुंच चुकी थीं. एक-एक प्रश्न का सलीके से जवाब देते हुए, उन्होंने बिना किसी भय के, सत्ता प्रतिष्ठान से यह कहा कि आप जितने सवाल पूछना चाहते हैं, मैं आपके समक्ष रात 9 बजे तक हाजिर हूँ. उनकी निर्भयता ने ईडी के अफसरों को प्रश्नविहीन कर दिया. उस दफ्तर से निकलते हुए सोनिया गांधी के चेहरे से आत्मविश्वास छलक रहा था. यह उस गांधी के वैचारिक मूल्यों की जीत थी, जिन्होंने करोड़ों भारतीयों के मन में निर्भय होने का मूल्य स्थापित किया था. निर्भयता के बिना आजादी का कोई मतलब नहीं है. यह याद रहे कि सत्ता की बुनियाद ही भय और झूठ पर टिकी होती है, लेकिन आजादी की बुनियाद सत्य और निर्भयता पर टिकी होती है. सोनिया गांधी का यह साहसिक कदम न सिर्फ सराहनीय है, बल्कि आजादी के इस बेशकीमती अवसर पर जीवन में धारण करने योग्य भी है.
अविनाश दास को मैं तबसे जानता हूँ, जब वे देवघर में एक अखबार के स्थानीय संपादक बनकर आये थे. जब उनके ऊपर एफआईआर की चर्चा चली, तभी मुझे लगा था कि सत्ता के नुमाइंदों ने गलत जगह हाथ डाल दिया है. अविनाश महज एक पत्रकार नहीं हैं, वे बहुआयामी प्रतिभा से संपन्न इंसान हैं. वे खोजी नजरिये और इंसानी मूल्यों के लिए समर्पित लेखक हैं. अभिव्यक्ति की आजादी को वे जान से बढ़कर मानते हैं. आजादी के इस मूल्य को अविनाश ने अपने गले लगा रखा है. इसीलिए जब उनकी गिरफ्तारी हुई, तो वे मुस्कुराते हुए और मुट्ठियां लहराते हुए कार पर सवार हो रहे थे. उनकी यह मुस्कान बतला और जतला रही थी कि सत्ता का कोई प्रतिष्ठान मूल्यों के संघर्ष को झुका नहीं सकता.
ऊपर वर्णित तीनों दृश्य आजादी के अमृत महोत्सव के इस अवसर पर यह साफ संदेश और संकेत देते हैं कि आजादी की लड़ाई के मूल्य आज भी जीवित ही नहीं हैं, बल्कि गांधी, जय प्रकाश, लोहिया जैसों ने जो मूल्य भारत के जन-गण-मन में भरे थे, आज भी वे मूल्य लाखों लोगों में जिन्दा हैं. सत्ता के नशे में चूर किसी भी सत्ताधीश को यह बात दिल से निकाल देनी चाहिए कि डर और लालच किसी प्रतिबद्ध इंसान को चुप कर देंगे. आजादी लाखों लोगों की कुर्बानी से मिली है और आज भी यदि यह ज़ज्बा कायम है तो आजादी को जिंदाबाद कहिये!
-घनश्याम
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