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आखिर केंद्र सरकार को अहिंसक किसान आंदोलन के सामने झुकना पड़ा

अब इन काले कृषि कानूनों को वापस लेने के बाद किसान के हक की लड़ाई का दौर फिर से शुरू होगा. लागत मूल्य पर वाजिब दाम, किसान के अपने हकों का बाजार, सबके लिए सिंचन की व्यवस्था, कृषि फसल के आसान कर्ज, जमीन अधिग्रहण की शर्तें और फसलों के बीमा के सवालों पर केंद्र सरकार से लड़ाई जारी रहेगी.

केंद्र सरकार ने अगस्त 2020 में तीन कृषि कानून के जरिये भारतीय कृषि व्यवस्था को एक नई और गलत दिशा में ले जाने का अंदेशा देश के कृषक समाज के सामने पैदा कर दिया था. उसी की वजह से देश भर में लाखों किसान, किसान संगठनों के नेता और चिंतनशील लोग इन कानूनों की वजह से काफी परेशानी महसूस कर रहे थे. इस परेशानी को केंद्र सरकार को समझाने के लिए हुई बातचीत के बाद 26 नवंबर 2020 से देश भर में अनेक जगहों पर किसानों ने अहिंसक धरना सत्याग्रह शुरू कर दिया था।


दिल्ली के बॉर्डर पर इस आंदोलन की मुख्य शुरुआत हुई और बीते दिनों यह किसान आंदोलन देश भर में बढ़ता ही चला गया. यह आंदोलन इस हद तक बढ़ा कि वह किसी एक नेता, एक संगठन या एक क्षेत्र से बाहर होकर कहीं कम, तो कहीं ज्यादा पैमाने पर देश भर में फैलता गया.इसमें सैकडों किसान संगठनों व लाखों किसानों ने शिरकत की.


इस आंदोलन को नियंत्रण में लाना केंद्र सरकार के बस का काम नहीं रह गया। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अपनी पुरजोर कोशिश करके हर तरह से साम, दाम, दंड और भेदभाव के सारे हथकंडे उपयोग में लाकर भी देश में किसान आंदोलन को खत्म करने की कोशिशों में असफलता ही पायी।


पिछले एक वर्ष में केंद्र सरकार ने अमूमन सभी राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल्स और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मारफ़त कानून कैसे सही है व किसान आंदोलन कैसे आम जनता के खिलाफ है, देश के लोगों को यह समझाने में अपनी पुरी ताकत झोंक दी. झूठी बातों को बार-बार अलग-अलग तरीके से इन न्यूज चैनल्स के द्वारा समझाया जाता रहा. सरकार के अलग-अलग कार्यक्रमों व पार्टी के अभियानों के द्वारा किसान आंदोलन में शिरकत करने वाले किसानों को देशद्रोही, मवाली आदि कहा जाता रहा. किसान आंदोलन को बदनाम करने का कोई मौका वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार ने नहीं गंवाया.


किसान आंदोलन के साथियों ने अपनी त्वरा, तीव्रता, तत्परता ,उत्साह और धैर्य को खोया नहीं. इस पूरे आंदोलन को अहिंसक व शांतिमय तरीके से लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ सामूहिक रूप से चलाया गया, यह इस आंदोलन की बहुत बड़ी उपलब्धि है. धीरे- धीरे यह आंदोलन देश भर में फैलता गया. वर्धा, महाराष्ट्र के मुख्यत: गांधी व विनोबा की सर्वोदय विचारधारा के साथियों ने इस आंदोलन को निरंतर चलाने में अहम भूमिका निभाई. विदर्भ में किसान अधिकार अभियान, महिला किसान अधिकार मंच व 40 जनसंगठनों के साथ साथियों ने इस आंदोलन के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का गांव-गांव में अभियान चलाया. राष्ट्रीय आंदोलन की घोषणा के तहत प्रतिकात्मक आंदोलन भी समय समय पर किये गये.


26 नवंबर 2020 से शुरू हुए इस आंदोलन को एक वर्ष पूरा होने वाला था. ठंड में, बारिश में, धूप में रास्तों पर लाखों किसान बैठे रहे, आंदोलन में सात सौ से ज्यादा किसान की मौत हुई. सैकड़ों किसान सरकारी दमन के शिकार हुए. इसके बावजूद अपनी जायज मांग के लिए सरकार के सामने अपनी बातें मानवीय तरीके से कहते रहे। बार-बार कहते रहे शांतिपूर्वक कहते रहे।


19 नवंबर 2021 को हमने देखा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टीवी पर कहा कि हम तीनों कृषि कानून वापस लेते हैं. लेकिन यह कहते हुए उन्होंने यह भी कहा कि ये तीनों कानून किसान की भलाई के लिए ही लाए थे. मतलब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को मजबूरी में स्वीकार करना पड़ा कि हमको ये कानून वापस लेने पड़ेंगे, जबकि उनकी अंदरूनी इच्छा इन काले कानूनों को वापस लेने की नहीं थी। यह उनके वक्तव्य से जाहिर होता है.


किसानों के ऊपर जो तीन काले कानून थोपने की कोशिश केंद्र सरकार ने अगस्त 2020 में की थी, उसमें एक तो यह है कि कृषि मंडी कानून को बायपास करके व्यापारियों को देश भर में उनकी मनमर्जी से कृषि उत्पादों को खरीदने पर किसी प्रकार का कोई बंधन अब नहीं रहेगा.
दूसरा उन्होंने एसेंशियल कमोडिटी एक्ट के तहत जो व्यापारी हैं, उन्हें कृषि उत्पादों को खरीदने की जो आदर्श मर्यादा थी, उस मर्यादा को सरकार ने खत्म करके बेतहाशा जमाखोरी करने की छूट बड़े व्यापारियों को देना चाहा. मतलब कानून के तहत जमाखोरी की इजाजत. उससे बड़े व्यापारियों की ताकत बढ़ती कि उससे उत्पादों के भाव का नियंत्रण पूंजिपतियों के हाथ में चला जाता.


इससे किसान के न्यनतम मूल्य (msp) की मांग खारिज हो जाने वाली थी. किसान के हाथ से माल जाने के बाद भाव बढ़ने की आशंका वाला संकट भी हमारे सर के ऊपर मंडरा रहा था. तीसरा है ठेके पर खेती पद्धति. देश में अमूमन एक हेक्टर से कम खेती करने वाले किसान को कॉन्ट्रैक्ट के तहत बांधकर खेती से बेदखल करने की कोशिश थी. इसमें कुछ बड़े प्लेयर्स को लाने की प्रक्रिया चलाई जा रही थी. इस कानून के तहत देश की ग्रामीण कृषि व्यवस्था को तहस-नहस करने की प्रक्रिया केंद्र सरकार चला रही है. इसके खिलाफ एक वातावरण बनाने की सफल कोशिश देश के लाखों किसानों ने इस आंदोलन में सहभागी होकर की.


इस आंदोलन को खड़ा करने के लिए कृषि क्षेत्र में काम कर रहे अभ्यासकों, संगठनों और किसान आंदोलनों के नेताओं ने अपनी एकजुटता दिखाई. इन कानूनों का अध्ययन किया. सरकार के साथ वार्तालाप किया. सरकार ने अपनी बातें लादने की कोशिश की, उस सब को पीछे धकेल कर सरकार को यह बताया कि आपकी जो मंशा है, वह गलत है और आम लोगों के खिलाफ है. आप को यह कानून वापस लेने होंगे और पहले की व्यवस्था पूर्ववत रखनी पड़ेगी.


आज हम देख रहे हैं कि मोदी जी को घोषित करना पड़ा कि मैं तीनों कानूनों को वापस लेने जा रहा हूं। बहुत लंबे समय तक चला राष्ट्रीय स्तर का यह आंदोलन कुछ अंश में सफल हुआ है, ऐसा हमें मानना चाहिए. इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया तहत आंदोलन चलाने वाले निर्भीक हजारों साथियों का और उन लोगों का, जिन्होंने अपना बलिदान इसमें दिया, हम विनम्रतापूर्वक अभिवादन करते हैं.


सरकार से किसान आंदोलन की मांगें कुछ और थीं और सरकार ने उल्टी दिशा में परिवर्तन करके परेशानी और बढ़ा दी थी. उसे ठिकाने पर लाने के लिए एक साल तक लगातार यह आंदोलन करना पड़ा. अब इन काले कृषि कानूनों को वापस लेने के बाद किसान के हक की लड़ाई का दौर फिर से शुरू होगा. लागत मूल्य पर वाजिब दाम, किसान के अपने हकों का बाजार, सबके लिए सिंचन की व्यवस्था, कृषि फसल के आसान कर्ज, जमीन अधिग्रहण की शर्तें और फसलों के बीमा के सवालों पर केंद्र सरकार से लड़ाई जारी रहेगी.

-अविनाश काकड़े

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