आयुर्वेद जनमानस में रचा बसा है, यह संहिताओं में तो है ही, उससे भी ज्यादा नित्य प्रयोग में है। छहों ऋतुओं में आहार, विहार, दोष, उपाय, विज्ञान व विस्तार सबकुछ दर्शन से ओतप्रोत है। मुद्दा यह है कि आयुर्वेद को व्यवहारपरक बनाना है या व्यापारपरक? दादी, नानी के क़िस्सों का कोई रेफरेंस नहीं है, न कभी किसी जर्नल में छपे, इसलिए खारिज कर दिए जाने चाहिए? तो फिर संहिताओं की रचना कैसे हुई? समभाषा परिषद हुआ करती थी, ऋषि अपने अनुभव जोड़कर किताब बना देते थे। सवाल है कि आखिर हम चाहते क्या हैं? समस्या या समाधान? सोचिये, बीमा कराने से क्या बीमार नहीं पड़ेंगे? बीमार तो पड़ेंगे, प्रदूषित हवा-पानी, मिलावटी दूध, पेस्टिसाइड वाले फल और सब्जियां, बाकी कीड़े मकोड़े, मच्छर-मक्खियाँ, ट्रैफिक और तनाव सब मिलकर जीने तो नहीं देंगे।
इसका समाधान सरल है- योग व आयुर्वेद को अपनाएं और कोशिश करें कि बीमार न पड़ने पाएं। फिर भी अगर बीमार पड़ ही जाएं तो उचित, नुकसान न करने वाली चिकित्सा अपनाएं। भूख सबसे बड़ी बीमारी है, इसके बाद लालच का स्थान है और फिर आलस का घेरा। यही राहु और केतु हैं सेहत के। लाइफ स्टाइल डिसऑर्डर के जनक हैं ये। फिर करते रहिये मोटापे, शुगर, अनिद्रा, ब्लड प्रेशर, तनाव, एसिडिटी, जोड़ो के दर्द, हृदय रोग, किडनी आदि का इलाज। दवा कंपनियों व अस्पताल कर्मियों को रोजगार मिलेगा। कम्पनी अपना व्यवसाय बढ़ता हुआ और अस्पताल अपने बिस्तर भरे हुए देखना चाहते हैं। जेब तो आपकी खाली होगी। यह घेरा तोड़ना हो तो चलिए, क्योंकि चलेंगे तो ज्यादा दिन चलेंगे। तेज़ चलेंगे तो दूर तलक चलेंगे। लगातार चलेंगे तो जीत पक्की समझिये। इसलिए स्वस्थ आहार, विचार व्यवहार और दिनचर्या का पालन करें। धूप, पानी और हवा निःशुल्क हैं।
समस्या की जड़ खुद पर अविश्वास होना, आत्मबोध न होना या अज्ञान हो तो बात समझ में आती है। मगर पाश्चात्य का तो खेल ही यही है कि तुम्हारा ज्ञान पोंगापंथ है और हमारा प्रामाणिक। हम अगर जड़ से बिछड़े तो और कहाँ पनाह पाएंगे? दुनिया, जहान घूम के फिर से माँ की शरण में ही आएंगे, इसलिए खुद को पहचानिए, अपना महत्व समझिए, संस्कृति से जुड़िये और प्रकृति से सन्तुलन बनाये रखिये।
आयुर्वेद मुश्किल और महंगा होने के बावजूद मुमकिन है। दो तरह का आयुर्वेद है, एक घरेलू और दूसरा बाजारू। बाजारीकरण के चलते घरेलू ज्ञान का सूरज अस्त होने की ओर बढ़ चला है। दादी/नानी के नुस्खे दुर्लभ होते जा रहे हैं। लोग उसमें भी वैज्ञानिकता की तलाश में जड़ खुदाई करते हैं। बाज़ार में हर क़िस्म का आयुर्वेद मिल रहा है। गुरु शिष्य परम्परा के अभाव और रोज़ी-रोटी के चक्कर में निजी कॉलेजों में आयुर्वेद-शिक्षण भी बाजारू हो गया है। अचूक औषधियों की तलाश भी बाजार की चमक बढ़ा रही है। आयुर्वेद एक जीवन पद्धति और जीवन जीने का विज्ञान है, इसे समग्रता में अपनाया जाना चाहिए। यह मात्र जड़ी-बूटी की लिस्ट होकर न रह जाए, इसका भी ध्यान रखना पड़ेगा। आयुर्वेद को जीवन-विज्ञान और जीने की कला के संदर्भ में समझना पड़ेगा। यह बीमारी का इलाज और पैसा प्राप्ति का साधन मात्र नहीं है।
दरअसल आधुनिकता के चक्कर में हम अपनी प्राचीन परम्पराओं को खो रहे हैं। जबकि उचित सन्तुलन बनाकर उनके संरक्षण की आवश्यकता है। बेचने वाले तो बेच रहे हैं, प्रश्न ये है कि खरीदेगा कौन? प्राइवेट कॉलेज हो या सरकारी, सबकी अपनी-अपनी व्यथा और सोच है। कुछ उदरपूर्तिकर्ता हैं, तो कुछ कागजपूर्तिकर्ता। अक्सर प्रबन्धन की सोच शिक्षकों की सोच से मेल नहीं खाती और विद्यार्थियों की सोच उनके संरक्षकों की सोच से मेल नही खाती। सबकी अलग-अलग सोच से राष्ट्र-हित, समाज-हित व आयुर्वेद-हित कितना होगा, यह ईश्वर और भविष्य ही जाने।
आयुर्वेद, एलोपैथ का एंटीपैथ नहीं है। आजकल अज्ञानतावश कुछ लोग दुष्प्रचार करते हैं और एक स्थापित व मान्य पद्धति को नकारकर अपने साथ-साथ समाज का भी नुकसान करते हैं। आयुर्वेद स्वस्थ समाज का निर्माण करता है। आयुर्वेद, योग की भाँति एक अनुशासन पद्धति है। यदि बीमार न पड़ना चाहें, तो प्रयोग करें, वरना तो नर्सिंग होम और अस्पताल आपकी सशुल्क सेवा करने के लिए तत्पर हैं ही। इसलिए किसी भ्रम में पड़कर परम्परा व ज्ञान को अपमानित न करें।
-वैद्य डॉ संजीव कुमार ओझा
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