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अभिव्यक्ति की आजादी की बदलती तस्वीर

असत्य और अफवाहों की दलदली संस्कृति में फंसा सत्यमेव जयते का आदर्श

अभिव्यक्ति की आज़ादी ख़तम करने पर एक देश के रूप में हम मौन की एक अबूझ दुनिया में गुम हो जायेंगे. न्याय की मांग और समता की भूख दोनों कमजोर पड़ जायेगी. एक बेहतर जिंदगी, प्रगति पथ पर अग्रसर राष्ट्र और परस्पर निर्भरता से सजी दुनिया का सपना नहीं बचेगा. हम असत्य और अफवाहों की दलदली संस्कृति में फिर फंस जायेंगे. ‘सत्यमेव जयते’ सिर्फ सरकारी भवनों की दीवारों की शोभा बढ़ाएगा. सच को बगावत समझने के दिन लौट आयेंगे. देश के सार्वजनिक जीवन में असत्य की कीमत बेहद बढ़ जायेगी.

यह सर्वमान्य तथ्य है कि विदेशी शासन के दौरान लोकमान्य तिलक का एक उद्घोष भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का महामंत्र सिद्ध हुआ- ‘आज़ादी हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है और हम उसे हासिल करके रहेंगे!’। इसी सूत्र को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने अपने आवाहन से एक नए कर्मयोग में बदल दिया- ‘तुम हमें खून दो, हम तुम्हें आज़ादी देंगे!’। इसके आगे का पथ-प्रदर्शन 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में गांधीजी के ‘करेंगे या मरेंगे!’ ने किया। ये तीनों सिखावनें स्वाधीन भारत की आत्मचेतना के बुनियादी तत्व हैं।

हमारे संविधान में विचार, अभिव्यक्ति, धर्म, विश्वास और उपासना की स्वतंत्रता को आज़ादी के पांच आयामों के रूप में स्थापित किया गया है। लेकिन पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति की आज़ादी को बाकी सभी स्वतंत्रताओं की आधारशिला के रूप में महत्व दिया जाता है। हम अपने अनुभवों और विचारों की अभिव्यक्ति से ही समाज से सम्बन्ध और संवाद स्थापित करते हैं। बिना अभिव्यक्ति के अधिकार के समाज में सिर्फ प्रभुत्वशाली लोगों की बातें गूंजती हैं। बाकी सब ‘चुप्पी’ में जीते हैं। सत्ताधीशों का निरंकुश वर्चस्व चलता है। इसीलिए अभिव्यक्ति के अधिकार और कर्तव्य पर रोक, तानाशाही के लिए जरूरी और लोकतंत्र के लिए ‘जहर’ है। अभिव्यक्ति के अधिकार पर खतरा बाकी सभी नागरिक अधिकारों के लिए खतरे की घंटी होता है। दूसरे शब्दों में, अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा किसी भी स्वतंत्र देश की पहली जरूरत और नागरिक समाज की जिम्मेदारी है।

हीरक जयंती वर्ष का कर्तव्य
हरेक भारतीय के लिए यह गौरव की बात है कि हमारा देश अपनी आज़ादी की हीरक जयंती मना रहा है। इस मौके पर हमें इस उत्सव का हकदार बनाने के लिए चले लंबे और कठिन स्वतंत्रता संघर्ष में अपना सब कुछ दांव पर लगाने वाली पीढ़ियों के प्रति श्रद्धा से सिर झुकाना स्वाभाविक है। यह कौन भुला सकता है कि हमारी अनेकों पीढ़ियों के हजारों स्त्री-पुरुषों ने अंग्रेजी राज के सामने निडरता से लोहा लिया। देश के हर हिस्से में देशभक्त किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों, विद्यार्थियों-युवजनों और मध्यम वर्ग ने अथक संघर्ष किया। इसके बदले में देश की आज़ादी का सपना सच हुआ।

हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं ने एक लोकतान्त्रिक संविधान के रूप में यह संकल्प किया कि सफल स्वराज-यात्रा से पैदा अवसर का सदुपयोग समावेशी राष्ट्रनिर्माण के लिए किया जायेगा, जिससे हर भारतीय स्त्री-पुरुष को 1. सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय; 2. विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; 3. प्रतिष्ठा और अवसर की समता हासिल हो। न्याय, स्वतंत्रता और समता की त्रिवेणी के संगम से क- व्यक्ति की गरिमा, ख- राष्ट्र की एकता व अखंडता और ग- परस्पर बंधुत्व सुनिश्चित किया जाएगा। यह घोषणा संविधान की उद्देशिका में दो-टूक तरीके से अंकित है। इसलिए हीरक जयंती वर्ष में यह स्वाभाविक है कि हम राष्ट्रनिर्माण की यात्रा में आज़ादी, न्याय और समता से जुड़े तथ्यों की जांच करें।

अभिव्यक्ति की आजादी की बदलती तस्वीर
इस प्रसंग में अभिव्यक्ति की आज़ादी की बदलती तस्वीर की चर्चा सबसे जरूरी है। क्योंकि इस अधिकार के लिए सबसे अधिक संघर्ष करना पड़ा था। तिलक, एनी बेसेंट और गांधी से लेकर सरोजिनी नायडू, विनोबा भावे, नेहरू, पटेल, मौलाना आज़ाद, नरेन्द्र देव, जयप्रकाश और लोहिया जैसे हजारों भारतीय नायक-नायिकाओं पर अनगिनत मुकदमे चले। सज़ाएँ हुईं। भारत की संविधान सभा में भी इसके बारे में तीन दिन विचार-विमर्श हुआ और सर्वसम्मति से अभिव्यक्ति के अधिकार को धारा 19 के जरिये प्रतिष्ठित किया गया। इस धारा में विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी के सभी पहलुओं को शामिल किया गया है। इसमें 1- प्रेस की आज़ादी, 2- विज्ञापन का अधिकार, 3- प्रसारण का अधिकार, 4- सूचना का अधिकार, 5- आलोचना का अधिकार, और 6- न बोलने का अधिकार उल्लेखनीय है। हमारे संविधान में, बाकी लोकतान्त्रिक देशों की तरह, इस स्वतंत्रता को मर्यादित भी किया गया है, जिससे राज्य की सुरक्षा, अन्य देशों से मैत्री-सम्बन्ध, कानून-व्यवस्था सुसंचालन, न्यायालय का सम्मान, किसी भी व्यक्ति की मानहानि, अपराधों के लिए उकसावा आदि मामलों में देश की एकता और संप्रभुता से संबन्धित प्रसंगों में इस अधिकार का दुरुपयोग न किया जाए। इसके लिए अंग्रेजी राज से चले आ रहे राजद्रोह कानून (दफा 124-A, आज़ादी के बाद 1980 में पारित राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम और गैर-कानूनी कार्यवाही निरोधक कानून-2008 (यूएपीए) के अंतर्गत कठोर कार्यवाही का प्रावधान रखा गया है।

इस समय यह आम जिज्ञासा का विषय है कि क्या आज़ादी के 25 साल बाद के ‘इमरजेंसी राज’ (1975-’77) और आज के हालात में कई चिंताज़नक समानताएं नहीं हैं? क्या आपातकाल में अभिव्यक्ति के अधिकार पर जो भय और ख़तरा छाया था, उसकी तुलना में आज स्वतंत्रता की हीरक जयंती के समय भय और खतरे कम हैं? तब अखबारों पर सेंसरशिप की आचार-संहिता थी और आकाशवाणी तथा दूरदर्शन पर सरकार का नियंत्रण था। आज तो लोभ और भय से समूचा सरकारी और गैर-सरकारी मीडिया सरकार की गुलामी में ‘गोदी मीडिया’ हो गया है और सोशल मीडिया पर ‘ट्रोल-आर्मी’ की दबंगई है। तब ‘देश में अराकता फैलाने की आशंका’ का आरोप था और आज सीधे देशद्रोह का आरोप है। तब सिर्फ सरकारी मशीन का निरंकुश इस्तेमाल था, जबकि आज एक पूरी सांप्रदायिक जमात प्रशासन का दुरुपयोग करके असहमत लोगों के विरुद्ध ‘देश’ और ‘धर्म’ के नाम पर निडरता के साथ हिंसक हरकतों पर आमादा है। तब एक न्यायाधीश को वरिष्ठता की अनदेखी करके सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाने की आलोचना हुई थी, आज तो सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ही संसद सदस्य बना दिया गया। तब सेना के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं हुई थी, लेकिन आज समूचे सैन्यबल को ‘मोदी जी की सेना’ कहा जाने लगा है और सैनिक साजो-सामान की खरीद में सीधे प्रधानमन्त्री कार्यालय का नियंत्रण है। तब केन्द्रीय मंत्रियों ने प्रधानमंत्री और उनके पुत्र की चापलूसी ही की, जबकि आज के मंत्री खुले आम भड़काऊ नारे लगवा रहे हैं – ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो… को!’।

सत्ता-प्रतिष्ठान का दृष्टिकोण
इन सवालों पर सत्ता-प्रतिष्ठान के समर्थक याद दिलाते हैं कि तब संविधान की धारा 352 के तहत राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी की निजी सिफारिश पर आपातकाल की घोषणा की थी। धारा 19 के अंतर्गत संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आज़ादी समेत सभी नागरिक अधिकारों पर रोक लगा दी गयी थी। इससे संविधान की धारा 14, 21 और 22 भी प्रभावहीन हो गयी थीं, लेकिन आज तो सरकार की तरफ से ऐसा कुछ भी नहीं किया जा रहा है। तब सैकड़ों गरीब बस्तियां प्रधानमंत्री के बेटे के शौक के लिए सुन्दरीकरण के नाम पर उजाड़ी गयीं, जबकि आज तो कथित असामाजिक तत्वों की कथित अवैध इमारतों पर बुल्डोजर चलवाकर संपत्ति को वापस सरकार के नियंत्रण में लाया जा रहा है।

तब प्रेस पर सेंसरशिप लागू करके अखबारों-पत्रिकाओं को सीधे सरकारी बाबुओं के नियंत्रण में धकेल दिया गया था। आज सेंसरशिप कहाँ है? तब भी न्यायाधीशों का तबादला हुआ करता था और आज भी होता है। तब पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं समेत सरकार के हज़ारों आलोचकों को ‘मीसा’ और ‘भारत रक्षा अधिनियम’ के अंतर्गत बिना आरोपपत्र और मुकदमे के जेलों में कैद कर दिया गया था। इससे सर्वोच्च न्यायालय समेत पूरा न्यायतंत्र नागरिकों के साथ होने वाले निरंकुश व्यवहार के सामने कोई हस्तक्षेप करने में अक्षम हो गया था। आज ऐसा नहीं है।
तब लोकसभा के ही चुनाव दो बार टाल दिए गए। आज की सरकार सभी चुनावों को समयानुसार करा रही है। तब केंद्र से लेकर प्रदेशों तक, गुजरात और तमिलनाडु को छोड़कर, इंदिरा कांग्रेस सत्तारूढ़ थी। आज केंद्र में एक गठबंधन सरकार है और उत्तर से लेकर दक्षिण तथा पूरब से लेकर 12 प्रमुख प्रदेशों – केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, राजस्थान, छ्त्तीसगढ़, पंजाब और दिल्ली तक, गैर-भाजपा दलों की सरकार के अंतर्गत हैं।

सवालों के जवाब कहाँ हैं?
लेकिन तमाम स्पष्टीकरण के बावजूद सवाल बढ़ते जा रहे हैं- सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की आलोचना को ‘राष्ट्र-विरोधी’ क्यों बताया जाता है? प्रशासनिक स्तर पर किये गए निर्णयों के विरोध को ‘विदेशी ताकतों द्वारा प्रेरित होने का आरोप फैलाने का क्या आधार है? मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं के विरोधियों को ‘अर्बन नक्सल’ बताकर अनिश्चित काल के लिए गिरफ्तार रखना ही कैसे सरकारी समाधान बन गया है? क्यों सरकार से असहमत नागरिक संगठनों को विभिन्न सरकारी जाँच संस्थाओं के आतंक का सामना करना पड़ता है? उनको आर्थिक मदद देने वालों को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। नागरिक रजिस्टर बनाने के फैसले, नागरिकता (संशोधन) की प्रस्तुति और किसानों की समस्याओं से जुड़े तीन कानूनों को लगभग जबरदस्ती पारित कराने से पैदा जन-असंतोष और सरकार-विरोधी आन्दोलनों के दौरान कई आपत्तिजनक कार्यवाहियों के उदाहरण देश-दुनिया में चिंता का कारण सिद्ध हुए हैं।

शासन के सर्वोच्च स्तरों पर आसीन लोगों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी का इस्तेमाल करने वालों को ‘आन्दोलनजीवी’, ‘देश-विरोधी’, और विदेशी ताकतों के षड्यंत्रों में मददगार बताकर समाज के सरोकारी लोगों को उकसाने की कोशिश की है। इस तरह की कार्यवाही में मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और जनरल विपिन रावत के बयानों ने आग में घी का काम किया है। लोकतंत्र-यात्रा के आगे बढ़ने में अवरोध आ गए हैं। भारत दुनिया के देशों में ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ के साथ ही ‘तेजी से बिगड़ रहे लोकतंत्र’ का सबसे बड़ा उदाहरण हो गया है।

अभिव्यक्ति का अधिकार ही आज़ादी की कसौटी
इस बहस में यह याद रखना जरुरी है कि हमारे पुरखों ने अकारण ही अभिव्यक्ति के अधिकार को आज़ादी की सबसे बड़ी कसौटी नहीं माना था। आज से 110 बरस पहले प्रकाशित ‘गीतांजली’ में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रार्थना लिखी कि, ‘ हे परमपिता! हमारा देश स्वतंत्रता का स्वर्ग बने; समाज में सत्य, ज्ञान और तार्किकता की दीप्ति फैले और मन की निडरता तथा आत्मसम्मान से आलोकित जीवन हो ( ‘व्हेयर द माइंड इज विदाउट फीयर एंड द हेड इज हेल्ड हाई, व्हेयर द नॉलेज इज फ्री…व्हेयर द वर्ड्स कम आउट फ्रॉम द डेप्थ ऑफ़ ट्रुथ; इनटू दैट हैवन ऑफ़ फ्रीडम, माय फादर, लेट माय कंट्री अवेक।’) गांधीजी ने उसी दौर में स्वराज की परिभाषा करते हुए बताया था कि, ‘सच्चा स्वराज थोड़े लोगों के सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता हो तब सब लोगों द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, स्वराज जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके प्राप्त किया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता उसमें निहित है।’(नवजीवन; 29 जनवरी ’1925)

इसलिए अगर मौजूदा दौर में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर आंच आ रही है तो यह आज़ादी का अपहरण है। दुनिया में आज़ादी की निगरानी करने वाली कई संस्थाओं ने भी भारत की तस्वीर को चिंताजनक और समस्याग्रस्त बताया है। उदाहरण के लिए अपनी तटस्थता के लिए प्रसिद्ध ‘फ्रीडम हाउस’ ने पाया कि स्वतंत्रता के मापदंडों पर भारत 2017 में 65 देशों के समुदाय में 27 वें स्थान पर था, लेकिन 2021 में 60 देशों के बीच फिसलकर 33 वें स्थान पर चला गया। इसमें 2020 में हुई भारत-चीन सीमा मुठभेड़, जम्मू-कश्मीर में लम्बे कर्फ्यू और ‘खालिस्तान’ समर्थकों द्वारा घोषित जनमत संग्रह- 2020 का भी योगदान था।

इसी प्रकार यदि ‘इन्टरनेट बंदी’ को स्वतंत्रता में बाधा माना जाए तो जहां मनमोहन सिंह सरकार के अंतिम कार्यकाल में 2012 में 3 बार और 2013 में 5 बार ‘इन्टरनेट बंदी’ लागू की गयी थी, वहीं मोदी सरकार के राज में 2017, 18, 19 ओर 20 में क्रमश: 79, 134, 121 और 109 बार ऐसा हुआ। इस प्रकार दोनों में कोई तुलना ही नहीं की जा सकती। इस इन्टरनेट बंदी से 2012 और 2017 के बीच 200 अरब रूपये से जादा आर्थिक क्षति भी हुई। इन्टरनेट बंदी से जम्मू-कश्मीर, नागालैंड और मणिपुर के भारतीयों का बहुत नुक्सान हुआ।2011 में एक कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के कार्टूनों की वेबसाइट बंद करायी गयी थी, लेकिन 2021 में किसान आन्दोलन पर काबू पाने के लिए ट्विटर, फेसबुक आदि समेत 100 से अधिक वेबसाइट्स को बंद कराया गया।

देश के अवकाशप्राप्त न्यायाधीशों, अफसरों, राजदूतों, सेनाधिकारियों और पुलिस अधिकारियों की राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के नाम भेजी गयी अनेको चिट्ठियों के जरिये हमारी आज़ादी में फ़ैल रही बीमारियों की ज्यादा चिंताजनक तस्वीर सामने आई है। इस अभियान का आयोजक ‘कान्स्टीट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप’ (संवैधानिक आचरण समिति) रहा है। इस सिलसिले को 2019 से देखा जाना उपयोगी रहेगा। पहले 2019 में चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता और वोटर के चुनने के अधिकार की पवित्रता के बारे में चुनाव आयोग की सरकारपरस्ती को लेकर प्रशासन, पुलिस, न्यायपालिका और विदेश सेवा के वरिष्ठ पदों से अवकाशप्राप्त 66 सरोकारी व्यक्तियों ने 24 फरवरी, 26 मार्च और 17 अप्रैल को एक के बाद एक लगातार तीन सार्वजनिक पत्र भेज कर हस्तक्षेप की अपील की। इसमें से 17 अप्रैल के ज्ञापन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के भड़काऊ भाषणों के सबूत दिए गए थे।

देश में कानून के राज, नागरिक समाज और नागरिकों के अधिकारों पर हो रही चोट के बारे में 2021 में ऐसे ही सरोकारी नागरिकों ने 16 जनवरी और 5 जून को राष्ट्रपति को पत्र भेजे। फिर एक अभूतपूर्व कदम के रूप में

देश की जनता के नाम 29 नवम्बर, ’21 को समूचे देश में नागरिक समाज को राज्यसत्ता के दुश्मन के रूप में प्रस्तुत करने में निहित खतरों के बारे में एक खुली अपील जारी हुई। इस असाधारण अपील पर 102 लोगों ने हस्ताक्षर किये थे।

2021 के अंतिम दिनों में 31 दिसम्बर ’21 को जारी अपील से सत्ता प्रतिष्ठान नाखुश लगा, क्योंकि इसका विषय 17-19 दिसम्बर,’21 को हरिद्वार (उत्तराखंड) में आयोजित ‘धर्मसंसद’ द्वारा जारी मुस्लिम समुदाय के कत्ले-आम का ऐलान था। इन निर्दलीय, अनुभवी और चिंतित वरिष्ठ नागरिकों ने ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना के लिए हथियारबंद होने को उकसाने वाले इस सम्मेलन के निशाने पर मुस्लिम, दलित, इसाई और सिख भारतीयों को चिन्हित करने पर गहरा आक्रोश व्यक्त किया। सभी दोषी व्यक्तियों के खिलाफ तत्काल कार्यवाही की मांग की गयी। इसके 4 महीने बाद 108 अवकाशप्राप्त नागरिकों ने ‘नफ़रत की राजनीति’ के खिलाफ पत्र जारी किया। इसमें भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों– उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, असम, गुजरात, कर्नाटक, और हरियाणा का स्पष्ट नाम लिखा गया। इससे संविधान और भारतीय मुस्लिमों को होने वाले नुक्सानों पर चिंता प्रकट की गयी और प्रधानमंत्री की चुप्पी पर ऐतराज किया गया। यह चिट्ठी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को संयुक्त रूप से संबोधित थी।

अभिव्यक्ति की आज़ादी से खिलवाड़ के खतरे
अभिव्यक्ति की आज़ादी से खिलवाड़ का ख़तरा कोई लोकतंत्र नहीं उठा सकता। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी और इटली का उदाहरण सबके सामने है। भारत में तो लोकतंत्र की नींव बहुत कमजोर और दीवारें अभी भी बहुत कच्ची हैं। यह समाज अपने गौरवशाली अतीत के बावजूद ‘चुप्पी की संस्कृति’ का क्षेत्र रहा है। इसमें जाति प्रथा, जेंडर भेद, शिक्षित-अशिक्षित की खाई, भाषा भेद, धर्म की दीवारों और अमीर-गरीब की अलग अलग दुनिया जैसे 6 कारक मिलकर अभिव्यक्ति को एक खतरा बताते आये हैं। इससे सत्ताधीशों को अल्पकालीन लाभ, लेकिन दीर्घकालीन नुक्सान मिलेगा। आलोचना बंद हो जायेगी, लेकिन चापलूसी छा जायेगी। निंदक नहीं बचेंगे। हर तरफ ‘राग-दरबारी’ सुनाई पड़ेगा।

अभिव्यक्ति की आज़ादी ख़तम करने पर एक देश के रूप में हम मौन की एक अबूझ दुनिया में गुम हो जायेंगे। न्याय की मांग और समता की भूख दोनों कमजोर पड़ जायेगी। एक बेहतर जिंदगी, प्रगति पथ पर अग्रसर राष्ट्र और परस्पर निर्भरता से सजी दुनिया का सपना नहीं बचेगा।
दूसरे, बोलने के साहस से भारत जैसा गुलाम देश भय से अभय की तरफ बढ़ रहा है। हमारी कायरता के किस्सों से पैदा हीन भावना ख़तम हो रही है। स्त्री, वंचित भारत, दलित समुदाय, निर्धन श्रमशक्ति और न्याय के लिए बेचैन किसान बोलना भूल गए तो उनकी कोई कैसे सुनेगा? अभिव्यक्ति की आज़ादी ख़तम होने पर फिर से भय का ताना-बाना मजबूत हो जाएगा।

तीसरे, चुप रहने से होने वाले लाभ का लोभ और बोलने से जुड़े खतरों के दुहरे दबाव में हम सत्य से मुंह मोड़ लेंगे। असत्य और अफवाहों की दलदली संस्कृति में फिर फंस जायेंगे। ‘सत्यमेव जयते’ सिर्फ सरकारी भवनों की दीवारों की शोभा बढ़ाएगा। सच को बगावत समझने के दिन लौट आयेंगे। देश के सार्वजनिक जीवन में असत्य की कीमत बेहद बढ़ जायेगी।

इस हानि-लाभ के विमर्श को आगे बढ़ाने के बजाय अपना कर्तव्य पथ पहचानने का समय सामने है। क्योंकि अभिव्यक्ति की आज़ादी के प्रकाश को सुरक्षित रखना ही आज का युगधर्म है।

-प्रो. आनंद कुमार

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