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अगर गांधी उन्नीसवीं सदी में पैदा हुए होते…

प्राणजीवन मेहता ने गोखले को पत्र लिखकर कहा था

खुद ही खुद को असफल कहने वाले गांधी से दुनिया की उम्मीद टूटती ही नहीं. चाहे जितना भी विरोध कीजिये, आखिर क्यों जीवन के हर मोड़ पर यह आदमी बार-बार सामने आ खड़ा होता है, गांधी विरोधियों के सामने यह बड़ा सवाल है। देश के लिए अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले गांधी का इतना विरोध उनके अपने ही देश में आखिर क्यों, यह गांधीप्रेमियों के सामने भी एक पहेली है। इन दोनों सवालों के जवाब ढूंढ़ते हुए गांधी के संघर्षों और उनकी समग्र वैचारिक जीवनी पर एक समीक्षात्मक नजर.

जिन्हें गांधी पसंद नहीं आते, जो गांधी को धिक्कारते हैं, उनकी समझ में नहीं आता कि इस इंसान को कितना भी टालें, यह टलता क्यों नहीं है. जो गांधी को भूलना चाहते हैं, वे उसे क्यों भुला नहीं पाते? भारत के नोटों पर बने उसके चित्र, भारत के बड़े-बड़े रास्तों को दिए गए उसके नाम या शहरों के चौराहों पर खड़ी की गयीं उसकी मूर्तियां उसे जिन्दा रखती हैं, ऐसा भी नहीं है। गांधी की मूर्ति के पास से गुजरते हुए किसी को नतमस्तक होते मैंने तो नहीं देखा आजतक। दो अक्तूबर या तीस जनवरी भी औपचारिकता भर ही रह गई है। फिर भी गांधी का अस्तित्व खत्म करने की कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। गांधी का केवल विरोध नहीं किया जाता, उनका चरित्र हनन भी किया जाता है। इतने सबके बावजूद आज दुनिया में गांधी के बारे में सब से अधिक बोला व लिखा जा रहा है।

कहते हैं कि दुनिया की अलग-अलग भाषाओं में न्यूनतम एक लाख किताबें लिखी गई है और अभी भी लिखी जा रही हैं। डेढ़ से दो दर्जन फ़िल्में भी गांधी पर बन चुकी हैं, नाटक भी लिखे जा रहे हैं। ऑपेरा, नृत्य, संगीत, लोकगीत, आदिवासी-गीत आदि तकरीबन सभी कला माध्यमों में गांधीजी हमें मिलते हैं। भारत में शायद ही ऐसा कोई पार्श्वगायक या संगीतकार होगा, जिसने गांधी जी के पसंदीदा भजन न गाये हों। शास्त्रीय गायन में गांधी जी के नाम से एक राग भी है, तारामंडल में एक तारा भी है। ढूंढ़ने पर भी दुनिया में ऐसा दूसरा समाजशास्त्री नहीं मिलेगा, जिसने गांधी जी के बारे में कुछ कहा न हो। दुनिया के अनेक विश्वविद्यालयों में गांधी विचार के पाठ्यक्रम और विभाग हैं। बुद्ध, ईसा और गांधी, इन तीन के बारे में सब से अधिक लिखा या बोला गया है। बुद्ध को ढाई हजार से अधिक साल हो गए हैं, ईसा को दो हजार साल हो चुके, पर गांधी तो मात्र पचहत्तर साल पुरानी घटना है। जिन्होंने गांधी जी को देखा है, ऐसे लोग आज भी हमारे बीच मौजूद हैं।

विरोधियों कि सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जिस व्यक्ति की उपेक्षा होनी चाहिए, उस पर इतनी चर्चा क्यों होती है? जिसे अब तक भुला दिया जाना चाहिए था, वह बार-बार क्यों याद किया जाता है? यह उनका अपने भीतर से उभरा सवाल है। दूसरी तरफ गांधी को चाहने वालों का सवाल होता है कि गांधी जैसा सत्यनिष्ठ और पवित्र इंसान, जो मनुष्य मात्र में भेदभाव नहीं करता, जिसके त्याग एवं सेवा की मिसालें दी जाती है, कोई उनकी निंदा कैसे कर सकता है? जिस आदमी ने कभी किसी का बुरा चाहा ही नहीं, उसकी आलोचना का आधार क्या हो सकता है? उनकी आलोचना तो फिर भी समझी जा सकती है, पर उन्हें बदनाम करने के अभियान क्यों?


विडंबना यह है कि दूसरे देशों की तुलना में गाँधी की जन्मभूमि भारत में ही कुछ लोगों को उन्हें पचा पाना मुश्किल लगता है। आखिर गांधी में ऐसा क्या है कि उनके विरोधी या तो उनसे दूर भागते हैं या फिर उनकी हत्या के इतने साल बाद भी रोज़ रोज़ उनकी हत्या करते हैं? ऐसा लगता है कि गांधी से द्वेष रखने वालों को गांधी का चिरंतन तत्व समझ में ही नहीं आता, वहीं दूसरी ओर गांधी से प्रेम करने वालों को भारतीय समाज की पेचीदगियां ही समझ में नहीं आतीं। आखिर गांधी मे ऐसा क्या है कि कोई खुद को उनसे दूर रखना चाहे, तो भी गांधी से बच नहीं पाता? जो स्वयं को उनके प्रभाव से बचा नहीं पाता, वह या तो उनको गाली देता है या प्रशंसक और अन्वेषक हो जाता है.

भारत की रंगभूमि पर गांधी नाम का एक बृहद, अपूर्व, असफल और महत्वाकांक्षी प्रयोग हुआ। जी हां, पूरी तरह असफल! गांधी लगभग हर बात में असफल रहे। आजीवन हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयत्नशील रहे, पर हुआ ठीक उल्टा। एकता तो दूर, देश का रक्तरंजित विभाजन हुआ। 1915 से लेकर 1947 तक यही स्थिति रही. हिंदू और मुसलमान एकदूसरे के शत्रु ही बने रहे। गांधी जी दलितों के लिए न्याय चाहते थे, पर आजतक दलितों को सम्पूर्ण न्याय नहीं मिला। वही, सनातनी ब्राह्मणी मानसिकता बनी हुई है। उल्टे, अब तो न्याय को नकारा तक जा रहा है। हरेक के काम का माध्यम बन सके, ऐसी राष्ट्रीय भाषा ही अपनी राष्ट्रभाषा बने, ऐसा गांधीजी को लगता था। लेकिन हिंदुओं ने संस्कृतनिष्ठ हिन्दी विकसित की और मुसलमानों ने फारसीयुक्त उर्दू विकसित की। गांधीजी के लाख प्रयास करने के बावजूद हिन्दुस्तानी, भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकी। मातृभाषा ही हमारी प्रथम भाषा हो, यह गांधीजी चाहते थे, पर आज हम मातृभाषा से दूर हो रहे हैं। आपसी बातचीत के लिए, राष्टीय स्तर पर बोलने और विचार-चिंतन के लिए एक भाषा हो, यह अवधारणा हमने नकार दी है। भारत की हर क्षेत्रीय पहचान का संरक्ष्ण हो और वे एकदूसरे के विरोध में न हों, यह गांधी जी का आग्रह रहा, पर आज हम सब अपनी-अपनी अस्मिता का खूंटा पकड़े हुए हैं, ये अस्मिताएं परस्पर विरोधी बन चुकी हैं। गांधी जी की नजर में गाँव को विकास कि एक मूलभूत इकाई होना था, पर हमने हमनें इसकी संपूर्ण उपेक्षा की है।

वैश्विक संदर्भ में भी गांधीजी का आधुनिकता एवं विकास के बारे में गहरा चिंतन था। आधुनिकता एवं विकास की पाश्चात्य संकल्पना गांधीजी को कभी भी स्वीकार नहीं थी। इसके होते शोषणमुक्त अहिंसक समाज नहीं बन पाएगा, ऐसा वे मानते थे। लेकिन आज भी विकास का स्वरूप भोगवादी और हिंसक समाज को बढ़ावा दे रहा है। हर हाथ को काम मिले. गरीब भी स्वावलंबी बनकर आत्मसम्मानपूर्वक जी सके, यह उनका सपना था। पर गांधीजी के चेताने के बावजूद हमने विकास का पाश्चात्य प्रारूप ही अपनाया। गांधीजी इसे पागल दौड़ कहा करते थे।

फिर सवाल यह है कि एक ऐसे असफल व्यक्ति के बारे में चर्चा क्यों की जाए? दुनिया तो असफल लोगों का इतिहास भुला देती है। गांधी एकमात्र ऐसे असफल आदमी हैं, जिनके बारे में आजतक बोला, लिखा और कहा जा रहा है। असल में गांधी की यह असफलता ही गांधी को मरने नहीं देती। इस असफलता में ही कुछ तो ऐसा है, जिससे भारत ही नहीं, दुनिया की उम्मीदें खत्म नहीं होतीं. कुछ तो ऐसा है कि उनकी हत्या के पचहत्तर साल बाद भी दुनिया गांधी की ओर ही देख रही है.

आइये, शुरू से भी पहले से देखें. 1707 में औरंगजेब के अंत के साथ ही भारत में मुगलों के शासन का अंत होने लगा था। एक के पीछे एक मुस्लिम राज्य सत्ता खोकर पराजित हो रहे थे। अपनी यह खोई हुई ताकत वे इस्लाम में ढूंढ़ रहे थे। इस्लाम मे यह नई ऊर्जा ढूंढ़ने का दीर्घ इतिहास शाह वलीउलाह से लेकर सैयद अहमद बरेलवी के जिहाद तक आता है। उन्होंने मुसलमानों को ‘सच्चे’ मुसलमान बनाना शुरू किया और इस तरह भारतीय इस्लाम और गंगा-जमुनी संस्कृति को नकारने का काम मुसलमानों ने शुरू किया। उनका मानना था कि भारतीय इस्लाम सच्चा इस्लाम नहीं है, वह हिंदुओं के प्रभाव वाला इस्लाम है। जब तक भारतीय मुसलमान इस ‘भ्रष्ट’ इस्लाम का अनुसरण करते रहेंगे, तब तक सच्चा इस्लाम नहीं समझ पाएंगे और उनमें ऊर्जा का संचार नहीं होगा।

ये कट्टरपंथी मूलतत्त्ववादी मुसलमान, जो बाद में राष्ट्रवादी मुसलमान कहकर पहचाने जाने लगे, वे अंग्रेजों के खिलाफ थे. उनका हिंदुओं से कोई विवाद नहीं था, यह बात अंशतः सही है, पर पूर्ण सत्य नहीं है। उनका हिंदुओं से झगड़ा राजकीय स्वरूप का भले नहीं था, पर धार्मिक एवं सांस्कृतिक विवाद तो था ही। इन मुसलमानों ने भारतीय इस्लाम का विशिष्ट चेहरा और भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति; इन दो बातों को नकारा और तब से ही हिंदू-मुसलमानों के बीच एक स्थायी विभाजन रेखा खिंच गई। भारतीय मुसलमानों का नेतृत्व, चाहे वे मूलतत्त्ववादी हों, राष्ट्रवादी हों या अलीगढ़ स्कूल के हों, इन सभी ने भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति के सामाजिक सेतु को नकारा था। इस बारे में सैयद अहमद बरेलवी और सर सैयद अहमद की भूमिका एक दूसरे से अलग नहीं थी।

अपनी सत्ता गँवाने वाले ये सभी मुसलमान ‘इस्लाम’ एवं ‘सच्चे मुसलमान होने’ में ही अपनी ऊर्जा की तलाश कर रहे थे। इधर हिंदुओं के साथ ऐसा कुछ भी घटित नहीं हो रहा था। 1600 में शिवाजी महाराज ने औरंगजेब से प्रभावी मुकाबला कर हिंदवी साम्राज्य की स्थापना की थी. औरंजेब के पश्चात मराठों ने भारत के अनेक साम्राज्य जीते, तो उधर राजपूतो ने भी कुछ मुस्लिम साम्राज्य छीने। यह सब होते हुए भी हिंदुओं में किसी तरह की सामूहिक ऊर्जा का अभाव था। एक तरफ हिंदू अपनी हिन्दू अस्मिता की तरफ से उदासीन थे, तो दूसरी तरफ सवर्ण हिंदुओं में एक तरह का मिथ्या जातीय अभिमान दिखाई दे रहा था। हिंदुत्ववादियों द्वारा महाराष्ट्र एवं अन्यत्र हिंदू राज्य की जो बात कही जाती है, वह उनकी जरूरत का एक हिस्सा थी, इसलिए उसे कंस्ट्रक्टेड कहते हैं।


ऐसा होना स्वाभाविक भी था। जिस समाज में संसाधनों का वितरण असमान होता है, वहां सामूहिक ऊर्जा का संचार असंभव न भी हो, तो मुश्किलों भरा अवश्य होता है। किसी एक की विजय में दूसरा हिस्सेदार न हो सके, तो ऊर्जा का संचार होना मुश्किल ही होता है। अगर पेशवाओं की विजय में बहुजनों को भय लगता हो, तो ऐसे में हिंदू चेतना कैसे जागृत होगी? मुसलमानों के उलट हिंदुओं के पास ऐसा कोई रसायन नहीं था, जिसके बल पर हिंदू अस्मिता दृढ़ की जा सके। हिंदू कोई रूढ़ धर्म या अद्वितीय संस्कृति नहीं है। किसी संस्कृति की विविधताएं अगर एक दूसरे को नकारने लगें, तो ऐसी विविधता घातक हो जाती है। 1909 के बाद हिंदू राजनैतिक दृष्टि से शक्तिशाली हो गए थे, पर सामाजिक स्तर पर हिंदू चेतना का संचार नहीं हो सका था। आड़े टेढ़े खड़े, हर स्तर पर विभाजित इस समाज को जोड़ने के लिए किसी प्रभावी माध्यम की जरूरत थी, पर वह कहीं नजर नहीं आ रहा था।

यह बात अंग्रेज न समझ पायें, यह संभव नहीं था। उन्होंने परख लिया कि मुसलमान इस्लाम में ताकत ढूंढ़ रहे हैं, जिसके तीन परिणाम आ सकते हैं. पहला ये कि मुसलमान इस्लाम के नाम पर संगठित हो सकते हैं। वे जब शासन करते थे, तब संगठित थे ही, लेकिन अब उन्हें अधिक संगठित किया जा सकता है। दूसरा ये कि मुसलमान होने के नाते उनमें एकत्व या बंधुत्व का भाव विकसित हो सकता है। और तीसरा ये कि इस प्रक्रिया से मुसलमान जितने अधिक संगठित होंगे, उतना ही वे हिंदुओं को नकारेंगे, गंगा-जमुनी संस्कृति को नकारेंगे। इन तीनों में पहले दो परिणाम अंग्रेजों की दृष्टि में अधिक खतरनाक थे। तीसरे में उन्हें हिन्दुस्तान में टिके रहने का माकूल अवसर दिख रहा था। इसलिए अंग्रेजों ने एक तरफ मुसलमानों से सावधान रहने और दूसरी तरफ मुसलमानों तथा हिंदुओं को एकदूसरे से दूर रखकर उनमें फूट डालते रहने का रास्ता अपनाया।

हिंदुओं के बारे में वे ये समझ चुके थे कि इनके भीतर जो विभाजन है, उसका उपयोग असंगठित हिंदुओं को और अधिक असंगठित करने के लिए किया जा सकता है। लेकिन मुसलमानों पर वे तीखी नजर रखे हुए थे, गंगा-जमुनी संस्कृति को नकारने वाली मुस्लिम प्रवृत्ति को वे अधिक तूल देने में लगे थे। अंग्रेजों ने एक विशिष्ट पद्धति से इतिहास लिखा था।

उन्नीसवीं शताब्दी में पश्चिम से संपर्क होने और आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा के कारण भारतीय प्रजा में धीरे-धीरे जागृति आती गयी। इसमें पारसी समाज आगे था। उसके बाद स्वर्ण हिंदू थे, मुसलमानों में खानदानी अशरफ़ मुसलमान भी थे। इसके बाद बहुजन समाज और बीसवीं शताब्दी शुरू होते-होते दलित समाज में जागृति आयी। स्वभावत: इन सभी में पूरब और पश्चिम के बारे में, आधुनिकता एवं परंपराओं के बारे में, धर्म व जाति आधारित अस्मिताओं के बारे में, प्रदेशों एवं भाषाओं के बारे में, सामाजिक धारणाओं के बारे में, त्याज्य-अत्याज्य और ग्राह्य-अग्राह्य के बारे में, पहले स्वराज्य या पहले सामाजिक सुधार के बारे में और साथ ही अंग्रेजों के बारे में अपनी क्या भूमिका हो, इसकी चर्चा तथा व्यापक विमर्श होता रहा।

यह विचार-विमर्श न तो राष्ट्रव्यापी था, न अंतर्धार्मिक, न अंतरजातीय या अंतर्लैंगिक। यह सारा चिंतन सवर्ण और पुरुष केंद्रीय था। उसमें न्याय और समता आधारित सर्वसमावेशी प्रवृत्ति भी नहीं थी। उन्नीसवीं शताब्दी में शुरू हुए नवनिर्माण के विचार के बारे में गहराई से सोचने वाले पहले व्यक्ति थे महात्मा जोतिबा फुले।

ऐसा भी नहीं है कि महात्मा फुले बहुत बाद में आए हों। उनका जन्म 1827 में हुआ था और उस समय भारत नामक कल्पना या भारतीय राष्ट्र की कल्पना मानो जन्म ही ले रही थी। महात्मा फुले ने भारत की कल्पना या विचार को तभी चुनौती दे दी थी। यह समझा जा सकता है कि यदि किसी समाज ने किसी दिशा में बहुत सारी मंजिले पार कर ली हों, उस संकल्पना का आकर दृढ़ हो चुका हो, तब उसमें सुधार करना मुश्किल हो जाता है। पर अभी तो भारत की कल्पना आकार ही ले रही थी और महात्मा फुले उस बारे में चेताने लगे थे। उन्होंने कहा था कि आपकी कल्पना का भारत सर्वसमावेशी नहीं है। यह भारत सवर्णों को विशेष मानने वाला है और यह बहुजन समाज को स्वीकार नहीं है।

कोई और समाज होता, तो यह सवाल उठता कि अगर अपनी राष्ट्रवाद की कल्पना को कोई चुनौती दे रहा है, उस पर सवालिया निशान लगा रहा है, तो वह ऐसा क्यों कर रहा है? यह हमें समझ लेना होगा। उनके साथ चर्चा करनी होगी कि उन्हें किस बात का डर है। उसका उपाय ढूंढ़कर समाधान करना होगा। पर तब के सवर्ण हिंदुओं को यह समझने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई। आरोप लगाने वालों से कोई संवाद ही नहीं किया गया। राष्ट्रवाद का पौधा अभी पनपने को ही था कि उसके सामने चुनौतियाँ खड़ी होने लगीं। ऐसे कठिन समय में भारत के विचारवान लोग मौन धारण किए हुए थे।

उस दौर में राजा राममोहन रॉय से लेकर देवेंद्र नाथ टैगोर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, केशवचंद्र सेन, बंकिमचंद्र चटर्जी, महादेव गोविंद रानडे, गोपाल गणेश आगरकर, लोकमान्य तिलक, स्वामी विवेकानंद आदि जैसे भारतीय राष्ट्रवाद के शिल्पकार धीरे-धीरे उदित हो रहे थे। इन सभी के जन्म का साल देखें, तो ध्यान में आएगा कि ये सभी 1817 से 1863 के दरम्यान पैदा हो चुके थे। देवेंद्र नाथ टैगोर और ईश्वरचंद्र विद्यासागर को छोड़कर सभी 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सार्वजनिक जीवन में सक्रिय थे। ये सभी अपने-अपने स्तर पर, अपने-अपने आकलन के अनुसार भारतीय राष्ट्रवाद को दिशा दे रहे थे, पर कुल मिलाकर उनका राष्ट्रवाद सवर्ण तथा पुरुषकेंद्रित ही था।

इन महान विभूतियों में से किसी ने भी महात्मा फुले के साथ चर्चा नहीं की। लोकमान्य तिलक ने तो सनतानियों के साथ मिलकर बहुजन समाज एवं महिलाओं के विरोध की भूमिका ली थी। बहुजन समाज को जोड़कर संवाद-सेतु बनाने के बजाय उन्होंने ब्राह्मणों और बहुजनों के बीच की खाई को और अधिक गहरा करने का ही काम किया। जो लोग रूढ़िवादी या सनातनी नहीं थे और उदारवादी कहलाते थे, उन्होंने भी महात्मा फुले के सवालों की ओर ध्यान नहीं दिया। सुधारकों में अग्रणी गोपाल गणेश आगरकर तो जोतिबा फुले का उपहास भी करते थे। हिंदुओं का सामर्थ्य जगाने वाले दयानंद सरस्वती को भी नहीं लगा कि हिंदुओं को समर्थ बनाना है तो हिंदू भारत पर सवाल खड़ा करने वालों का कहना क्या है, यह जान तो लें।

भारतीय राष्ट्रवाद को चुनौती देने वालों में महात्मा फुले के साथ सर सैयद अहमद खान भी थे। यानी एक तरफ बहुजन समाज और दूसरी तरफ मुसलमान, सवर्ण हिंदुओं की कल्पना के भारत को चुनौती दे रहे थे। इन विभूतियों में से किसी ने भी सर सैयद अहमद खान के साथ भी चर्चा नहीं की। जबकि भारतीय राष्ट्रवाद के ये सभी शिल्पकार, फुले और सर सैयद के लगभग समकालीन रहे। मुद्दा यह है कि भारतीय राष्ट्रवाद की अभी तो केवल बोहनी हुई थी और तभी उसकी खामियों की ओर ध्यान खींचा जाने लगा था। भारतीय राष्ट्रवाद के शिल्पकारों ने उसकी खामियाँ दिखाने वालों की उपेक्षा की, यह हम निष्ठापूर्वक कह सकते है? इस पर बहस होनी चाहिए।

इधर महात्मा फुले इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि ब्राह्मणों को केवल अपने सांस्कृतिक, सामाजिक वर्चस्व की चिंता है, वे समाज और जनता के बारे में तो सोचते ही नहीं। उधर अंग्रेज महात्मा फुले की बात सुनते भी और उनकी मदद भी करते थे। इसलिए वे इस मत के थे कि अंग्रेज भारत में जितने अधिक समय तक रहेंगे, उतना अच्छा है, उसी में बहुजन समाज का लाभ है। इसीलिए वे अंग्रेजों के विरोध में विकसित होने वाले भारतीय राष्ट्रवाद को नकारने लगे थे। उनका कहना था कि भारतीय पुनर्जागरण वास्तव में ब्राह्मणों का पुनरुत्थान है।

महात्मा फुले और सर सैयद को एक तराजू में नहीं तौला जा सकता। सर सैयद की नजर में कांग्रेस हिंदुओं का पक्ष थी, तो महात्मा फुले को कांग्रेस सवर्णों का पक्ष लग रही थी। संवाद तो दूर रहा, कांग्रेस ने यह भी नहीं सोचा कि ऐसे समय में सर्वसमावेशी भारत की कल्पना को आगे बढ़ाया जाना चाहिए. 19 वीं शताब्दी के अंत तक भारतीय समाज के भीतर की खाई बढ़ती ही गयी।

19 वीं शताब्दी को भारतीय पुनरुत्थान या प्रबोधन की सदी भी कहा जाता है। लेकिन वह सदी हिंदू-मुसलमान, सवर्ण-अवर्ण और आर्य-द्रविण के बीच संवाद की सदी तो निश्चित नहीं थी। प्रबोधन की सदी, संवाद की सदी नहीं बन सकी, यही उसकी बड़ी खामी रही।

गांधीजी 1915 में जब भारत लौटे, तब हिंदू-मुस्लिम और सवर्ण-अवर्ण के बीच संवादहीनता का यह माहौल बना हुआ था, आपसी वैमनस्य बढ़ा हुआ था. इनमें सोद्देश्य दो धड़े बन चुके थे। लगभग सदी भर का बोझ गांधी के कंधों पर आ पड़ा था। उन्नीसवीं शताब्दी में तैयार हुई इस खाई को पाटना था, ये फौलादी दीवारें गिरानी थीं और अंग्रेजों के ‘फूट डालो राज करो’ वाले कौशल से भी भिड़ना था।

विचार करें कि अगर 19 वीं शताब्दी के विचारकों ने एकदूसरे का आदर किया होता, आपस में संवाद किया होता या अगर गांधीजी 19 वीं शताब्दी में पैदा हुए होते, तो आज भारत का इतिहास अलग होता। गांधीजी के लंदन के दिनों से मित्र रहे डॉ प्राणजीवन मेहता ने 28 अगस्त 1912 को गोपालकृष्ण गोखले को लिखे एक पत्र में यह रोचक बात लिखी थी।

20 वीं सदी में भारत लौटे गांधीजी को 19 वीं सदी की इस संवादहीनता और वैमनस्य की विरासत को नकारना था, काफी दूरी तय कर चुकी राष्ट्र की संकल्पना को वापस घुमाना था और सामाजिक एकता का रास्ता ढूंढ़ना था। आप कल्पना कर सकते हैं कि गांधी किस दुर्द्धर्ष संघर्ष के सामने खड़े थे। गांधीजी दक्षिण अफ़्रीका के दिनों से ही भारत पर पैनी नज़र रखे हुए थे, उनका सारा ध्यान भारत की इन चार मुख्य समस्याओं पर था– हिंदू-मुस्लिम एकता का अभाव, अस्पृश्यता एवं दलितों तथा अन्य पिछड़ों पर होने वाला अन्याय, समूचे देश को जोड़ सके, ऐसी लोकसुलभ राष्ट्रभाषा का अभाव तथा देश की रीढ़ और भविष्य, हमारे गाँवों की दुरावस्था।

इन चार मुद्दों पर गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका से ही ‘इंडियन ओपीनियन’ में लिखना शुरू कर दिया था। इन्हीं चार मुद्दों पर वे भारत में भी दिन रात बोलते रहे और इन्हीं चार मुद्दों पर काम भी करते रहे। लोगों के बीच इन मुद्दों पर उन्हें समर्थक भी मिले और विरोधी भी। इन्हीं चार बातों के लिए उन्हें गालियां भी दी गयीं, जो आजतक दी जाती हैं। इन चारों में से पहली दो के कारण उनकी हत्या तक की गयी। इन्हीं चार बातों ने उन्हें महात्मा भी बनाया, यही चार बातें उन्हें मरने भी नहीं देतीं। इन चार सवालों का वजूद आज भी कायम है, इसलिए गांधीजी का औचित्य भी कायम है।
गांधीजी 19 वीं शताब्दी के पूरे विमर्श को ही नकार देंगे, ऐसी कल्पना किसी ने नहीं की थी। उन्होंने बीती सदी के लगभग हर बड़े नेता को अभिवादन किया पर नसीहत किसी की स्वीकार नहीं की। गोपालकृष्ण गोखले उनके गुरु थे, पर उन्होंने उनको भी पूरा स्वीकार नहीं किया। लोकमान्य तिलक की ‘जैसे को तैसा’ वाली राजनीति उन्होंने मंजूर नहीं की। वे स्वयं को सनातनी कहते, पर मदनमोहन मालवीय के सनातनी कर्मकांड से दूर रहे। वे हर प्रकार के सामाजिक भेदभाव के विरोध में डटकर खड़े थे, ब्राह्मणों को गालियां देने वाले बहुजन समाज की राजनीति का उन्होंने कभी समर्थन नहीं किया। ब्राह्मणों या सवर्णों की सांस्कृतिक पहचान से उन्हें विरोध नहीं था, पर उनके अंदर के श्रेष्ठताबोध से विरोध था।

यह सबको समझ में आने लगा था कि यह आदमी सबको साथ लेकर चलने वाला है, लेकिन सबकी अलग-अलग राजनीति को खारिज करता है। पूरी 19 वीं सदी, अलग-अलग जनसमूहों की अपनी-अपनी अस्मिताओं के संघर्ष की सदी थी और गांधीजी उसे नकार रहे थे। बहुतों को लग रहा था कि यह आदमी संवेदनशील, त्यागी और पवित्र तो है, पर अव्यावहारिक है। तिलक महाराज के निकट सहयोगी न चिं केलकर ने लिखा कि जल्दी ही इस आदमी की अकल ठिकाने आएगी। भारत में राजनीति करनी हो, वह भी जनमान्यता के साथ, तो किसी न किसी जनसमूह के कंधे का आधार लेना ही पड़ेगा। लेकिन दुनिया ने देखा कि गांधीजी ने हर कंधे को अपना माना, पर हर समुदाय का कंधा नकार दिया।

तत्कालीन भारत के स्थापित नेतृत्व को पहला धक्का तब लगा, जब गांधीजी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अपना प्रसिद्ध भाषण दिया। उन्होंने सुरक्षा कवच के साथ घूमने वाले गवर्नर पर टिप्पणी की थी और जनता का शोषण कर वैभव का प्रदर्शन करने वाले राजाओं को भी नहीं बक्शा था। अंग्रेजी भाषा की गुलामी स्वीकारने वालों पर भी उन्होंने सख्त टीका की थी। उस दिन देश को यह पता चल गया कि सचमुच, इस आदमी का आधार सत्य है और उसके पास अपना धैर्य है, वह निर्भीक है और उसका किसी से बैर नहीं है। भारत की सारी प्रजा भी इस आदमी के खिलाफ हो जाए, तो भी यह आदमी अपनी जगह से हिलने वालों मे से नहीं है। इस व्यक्ति में अकेले चलने और अकेले सामना करने की ताकत है। यह भी कि इसकी शक्ति का स्रोत इसके भीतर है, अनुयायियों या समर्थकों में नहीं।

इस घटना के एक ही साल बाद चंपारण में उनका यह रूप सामने भी आया। किसी ने सोचा भी नहीं था कि वे लोगों को इस तरह जागृत करेंगे, एक नई चेतना का ऐसा संचार कर देंगे, लोगों को आंदोलित कर देंगे और शक्तिशाली सरकार को झुका देंगे। तब तक तो यह धारणा थी कि पहले भारत को आजादी मिलेगी, उसके बाद इस मृतप्राय निस्तेज जनता का उद्धार किया जाएगा, तभी प्रजा में नवचेतना का संचार होगा। गांधी जब चम्पारण गए, तो वहाँ की जनता को आजादी की कोई तमन्ना नहीं थी। उन दिनों भारत के नेता देहातों मे जाते ही नहीं थे। हिन्दुस्तान की करीब 80% आबादी को आजादी के बाद की ‘लाभार्थी’ जनता बताकर किनारे कर दिया गया था, ऐसी परिस्थिति में गांधीजी उनको आजादी की एक चालक शक्ति के रूप में देख रहे थे।

उन्नीसवीं सदी की विभाजन रेखाओं को अस्वीकार करने वाले गांधीजी ने जनता का दिल जीत लिया था। इस देश में ऐसा भी जादू हो सकता है, यह कल्पना भी किसी ने नहीं की थी। 1917 से 1922 तक का समय भारतीय एकता की दृष्टि से स्वर्ण काल था। लोगों को लगने लगा था कि अब स्वराज्य बहुत दूर नहीं है। अंग्रेजों को लगने लगा था कि अब भारत पर अधिक समय राज करना संभव नहीं है। जो लोग समुदायों की राजनीति कर रहे थे, उन्हें यकीन होने लगा था कि उनका समूह उनके हाथों से फिसलने लगा है और भारत के लोग व्यापक भारतीय अस्मिता को स्वीकारने लगे हैं।

अस्मिताओं की यह राजनीति और विभाजन की ये रेखाएं इतनी सहजता से मिटने वाली नहीं थीं? पहले चौरीचौरा की घटना हुई। बाद में केरल के मोपलों ने हिंदुओं कानरसंहार किया। इसकी प्रतिक्रिया नागपुर में और नागपुर की प्रतिक्रिया पंजाब के कोहाट में हुई। गांधीजी के लिए ये बहुत बड़े आघात थे, ये उनके कष्ट के दिन थे। ऐसे जख्म भरने के लिए महात्मा का पिंड होना होता है। 1925 से 1948 तक के 22 साल गांधीजी के संघर्षों के साल थे। उनके सामने मुसलमान थे, हिंदुत्ववादी थे, दलित थे, सनातनी ब्राह्मण थे, आर्य थे, द्रविड़ थे, संस्कृत भाषा के आग्रही लोग थे, अंग्रेजी और उच्चवर्ग की श्रेष्ठता मानने वाले लोग थे, हिन्दुस्तान को पश्चिम के आधुनिक राष्ट्रों की तरह आधुनिक बनाने की इच्छा रखने वाले लोग थे, कौन नहीं था तब गांधीजी के सामने?

स्थूल नजर से देखेंगे तो पायेंगे कि गांधीजी हरेक से पराजित हुए। लेकिन उनकी अपनी भूमिका में रंचमात्र भी फरक नहीं आया। वे एक ही जगह पर अविचल खड़े थे और तीरों की चोट बर्दाश्त कर रहे थे। सचमुच, इस धरती पर गांधी नाम का यह अद्भुत प्रयोग हुआ. आज भी गांधीजी के सपनों का भारत पराभूत होता हुआ दिख रहा है। उस इतिहास के ठीक सौ साल बाद हम दूसरे किनारे जा लगे हैं। शिक्षितों की जो जिम्मेदारी थी वह तो दूर, वे भारतीय नागरिक भी होते नहीं दिखे। मराठा, मुसलमान या हिंदू; ऐसी ढेरों अस्मिताएं आगे बढ़ रही हैं। फिर भी अधिकतर भारतीय यह दिल से मानते हैं कि भारत का भविष्य तो गांधीजी के सपनों में ही है, शायद इसीलिए गांधी मरकर भी नहीं मरता।

गांधीजी रूढ़िवादी या परंपरापूजक नहीं थे। वे परंपराओं के भीतर से नित्य नूतन सत्य ढूंढ़ रहे थे, जिसकी नींव पर नए समाज का मकान खड़ा किया जा सके। अगर काल की कसौटी पर यह आज तक टिका है, तो इसमें कुछ तो सत्त्व होगा ही! गांधीजी ने पूरब और पश्चिम की ऐसी परंपराओं को छानकर उनमें से सत्य ढूंढ़ने का प्रयास किया था और ‘रेडीप्रिस्क्रिप्शन’ जैसी समाज-परिवर्तन की ‘नेशनस्टेट’ वाली आधुनिक विचारधारा अमान्य की थी।

यह आदमी किसी नई दिशा की तलाश में था, जिसकी तुलना हम उसके लंदन के दिनों से कर सकते हैं। उसके इन विचारों ने दक्षिण अफ्रीका में गति पकड़ी और वह जो ढूंढ़ रहा था, वह अंततः 1906 के ‘सत्याग्रह’ तथा 1909 के ‘हिंदस्वराज’ के माध्यम से फलीभूत हुआ। सत्य किसी धर्म, परंपरा या विचारधारा से संबंधित नहीं होता, वह उन सभी से परे, निरपेक्ष होता है। सत्य कहीं भी पाया जा सकता है, बचपन के संस्कारों में भी हो सकता है, नहीं भी हो सकता है। ऐसे सत्य को, वह जहां कहीं से भी मिले, स्वीकार करने की क्षमता सहज होनी चाहिए. इसे बिना किसी पूर्वाग्रह के ही प्राप्त किया जा सकता है। परंपरा को अस्वीकार करने की क्षमता और निर्णय लेने का विवेक; ये दोनों बातें गांधी ने खुद में प्रयत्नपूर्वक विकसित की थीं। यही कारण है कि वे कहीं से भी, कुछ भी स्वीकार कर सकते थे और जो नहीं चाहते थे, उसे अस्वीकार कर सकते थे। इन्हीं से उनके व्यवहार में सत्य, स्वावलंबन और निर्वैर भाव विकसित हुए और उनके कार्यों में परिलक्षित हुए।

शक्ति मनुष्य के भीतर है, इसके लिए गांधीजी ने गुजराती में ‘आपबल’ शब्द का प्रयोग किया, इस आत्म-शक्ति से बड़ी कोई शक्ति नहीं है। आत्मबल के सामने सभी बाहरी ताकतों को हराया जा सकता है। सद्विवेक से सत्य को स्वीकार करने और ईमानदारी से उसे महसूस करने के बाद, जब उसका आग्रह रखा जाता है, तो दुनिया की कोई भी संगठित शक्ति या सैन्य बल उसे हरा नहीं सकता। गांधीजी ने यहूदियों को लिखा कि अगर मैं जर्मन होता तो जर्मनी छोड़ने के बारे में नहीं सोचता, हिटलर के सामने निहत्था खड़ा होता। गांधीजी की इस निडरता को दुनिया ने मुग्ध भाव से देखा।

भौतिक सुख और सुविधा विकास नहीं है। इस लोलुपता का कोई अंत नहीं है। जब एक सिरे को पार करते हैं, तो दूसरा सिरा दिखाई देता है और शिखर प्राप्ति की स्पर्धा शुरू हो जाती है। इसी में से शोषण और हिंसा पैदा होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि शोषण और हिंसा के बिना आधुनिक विकास संभव नहीं है। लेकिन शोषण की भी एक सीमा होती है। अंत में, प्रकृति हमें उतना ही देती है, जितना उसके पास है और जितना इंसान पी सकता है, उतना ही पिलाती है। लेकिन सुखोपभोग के लालच का कोई अंत नहीं है। गांधीजी की भूमिका किसी वेदन्ती या धर्मशास्त्री की नहीं थी, बल्कि एक दूरदर्शिता से उपजी व्यावहारिकता की थी।

यदि हम शोषण से मुक्त एक अहिंसक समाज का निर्माण करना चाहते हैं, तो हमें पहले पूर्वाग्रह से मुक्त और सत्यपरायण होना चाहिए तथा सत्य के अलावा किसी भी चीज़ के प्रति अपनी निष्ठा को त्याग देना चाहिए। जिस चीज से सत्य मिल जाय, उसको ही स्वीकार करना चाहिए। आत्मशक्ति हमारे भीतर है और इससे बड़ी कोई शक्ति नहीं है। हमें विकास की अपनी सोच को बदलना ही होगा। जहां शोषण होगा, वहां हिंसा होगी ही। बिना मेहनत के खाना चोरी है और प्रकृति सभी की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लालच किसी एक का भी नहीं, गांधी जी के ये दो वाक्य बहुत कुछ कहते हैं।

-रमेश ओझा

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