5 मई 2003 को जब दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरोधी नेताओं में से एक दिग्गज वाल्टर सिसुलू, जिन्होंने 25 साल जेल में बिताए, का 91 वर्ष की उम्र में निधन हो गया, उस समय भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी श्रद्धांजलि में कहा था कि हम उन्हें उनके उत्साहपूर्ण और व्यक्तिगत सादगी के लिए याद रखेंगे। वह एक असाधारण राजनीतिक व्यक्ति थे, जिनका कद ऐसा था, जो हैसियत पर निर्भर नहीं करता था।
यह श्रद्धांजलि उसी संघर्ष में शामिल रहे एक अन्य महान व्यक्तित्व अहमद कथराडा, जिन्होंने सिसुलू को अपने गुरु और पिता के रूप में सम्मानित किया, की आत्मकथा में दिखाई देती है। दरअसल, वाजपेयी के शब्द कथराडा के व्यक्तित्व का भी सटीक वर्णन करते हैं, क्योंकि वह दक्षिण अफ्रीका के निस्वार्थ स्वतंत्रता सेनानियों की उस स्वर्णिम पीढ़ी से ताल्लुक रखते थे, जिनके लिए अल्पकालिक दर्जे का कोई मतलब नहीं था; उनका अविस्मरणीय कद आजीवन संघर्ष और बलिदान की भट्ठी में एक बेहतर दुनिया के निर्माण के बुलंद सपने के लिए बना था।
जब प्रवासी साथियों के बीच बड़ी उपलब्धियों का जश्न मनाने की बात आती है, तो हम भारतीय लोग हैसियत के इतने दीवाने होते हैं कि हम अक्सर उन लोगों को अनदेखा कर देते हैं, जिनका कद हुकूमत या दौलत पर निर्भर नहीं करता है, खासकर अगर वे यूरोप या अमेरिका से नहीं हैं। उदाहरण के लिए, कमला हैरिस, ऋषि सुनक, सुंदर पिचाई और सत्या नडेला हमारे देश में घरेलू नाम बन गए हैं। सच है, उनके खाते में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ दर्ज हैं।
लेकिन क्या किसी को अहमद कथराडा याद हैं? यह नाम अधिकांश भारतीयों के लिए अनजान है। यहां तक कि हमारे राजनीतिक और मीडिया प्रतिष्ठानों में लोगों का एक बड़ा हिस्सा भी उनके बारे में पूछे जाने पर अवाक रह जाएगा। यह अत्यंत दुखद है, खासकर तब, जब भारत के स्वतंत्रता संग्राम का दक्षिण अफ्रीका के मुक्ति संग्राम पर इतना अधिक प्रभाव था। इसके अलावा, जिन मूल्यों के लिए उन्होंने जीवन भर संघर्ष किया, गैर-जातिवाद, गैर-लिंगवाद, अंतर-धार्मिक सद्भाव, समानता, न्याय और मानवीय गरिमा, वे आज भी सार्वभौमिक रूप से प्रासंगिक हैं।
12 साल की उम्र से एक कम्युनिस्ट सत्याग्रही
कथराडा (1929-2017), जो दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मूल के एक व्यक्ति थे, नेल्सन मंडेला के सबसे करीबी साथियों में से एक और रंगभेद विरोधी आंदोलन के बड़े नेता थे। उनके बोहरा मुस्लिम माता-पिता गुजरात के लाचपुर गाँव से थे। संघर्ष और बलिदान के मामले में, उनका कद लगभग तीन शताब्दियों के दमनकारी श्वेत अल्पसंख्यक शासन के खिलाफ दक्षिण अफ्रीका की लड़ाई के विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित अनु प्रतीकों के बराबर है। उन्होंने रंगभेदी जेलों में 26 साल बिताए, यानी अपने नेता से सिर्फ एक साल कम। 18 साल तक वह केप टाउन के पास रॉबेन द्वीप पर कुख्यात रंगभेद जेल में मंडेला के साथी थे। शेष छह वर्षों में भी, पोल्स मोर जेल में मंडेला और वे साथी थे।
मंडेला, सिसुलू और ओलिवर टैम्बो, जिन्होंने 1967 से 1991 तक ANC अध्यक्ष के रूप में कार्य किया, जैसे क्रांति नायकों में से एक, वे एक उच्च सम्मानित बुद्धिजीवी और लेखक भी थे। रॉबेन द्वीप से उनके पत्र (1999) और उनके संस्मरण (2004) अत्याचारी श्वेत शासन के खिलाफ लड़ाई के बेहतरीन वृतांतो में से हैं।
दक्षिण अफ्रीका की यंग कम्युनिस्ट लीग के सदस्य के रूप में, कथराडा ने 12 साल की नाज़ुक-सी उम्र में अपनी राजनीतिक सक्रियता शुरू की। कई वर्षों बाद उन्होंने लिखा कि “जिस क्षण से मैं एक स्कूली छात्र के रूप में राजनीति में शामिल हुआ, मुझे एहसास हुआ कि मेरे अपने हालात जो मुझे नामंजूर थे, किन्तु मेरे बहुत से अफ्रीकी सहयोगियों और नेताओं – मंडेला, टूटू, सिसुलू, टैम्बो, मबेकी आदि जो नाम सबकी जबान पर चढ़ चुके थे, के हालात मेरे हालात से बदतर थे।
उनके बचपन के नायक डॉ. युसूफ दादू थे, जो भारतीय समुदाय के एक सम्मानित नेता थे। एक कम्युनिस्ट होते हुए भी दादू ने महात्मा गांधी को अपने मार्गदर्शक और संरक्षक के रूप में स्वीकार किया। 21 साल (1893-1914) तक दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले गांधी ने भारतीय मूल के लोगों के साथ भेदभाव करने वाले कानूनों के खिलाफ 1906 में अहिंसक सत्याग्रह शुरू किया था। अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस में मंडेला, सिसुलू और अन्य लोग भारत में गांधी के अहिंसक संघर्ष से गहराई से प्रभावित थे। एएनसी का नाम भी आईएनसी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से प्रेरित था।
जब कथराडा 17 वर्ष के थे, तब उन्हें पहली बार घेट्टो एक्ट (एशियाटिक लैंड टेन्योर एंड इंडियन रिप्रेजेंटेटिव एक्ट) के खिलाफ निष्क्रिय प्रतिरोध में भाग लेने के लिए गिरफ्तार किया गया था, जिसने भारतीय समुदाय को दूसरों से अलग कर दिया था। कुछ समय के लिए, उन्होंने दक्षिण अफ्रीकी भारतीय कांग्रेस के एक बहादुर नेता इस्माइल छोटा मीर द्वारा संपादित समाचार पत्र “द पेसिव रेजिस्टर” के लिए एक पत्रकार के रूप में काम किया। 1943 में उन्होंने बंगाल के अकाल में राहत के लिए धन एकत्र किया।
पिकासो क्लब की गतिविधियाँ
द्वितीय विश्व युद्ध की हैवानियत ने कथराडा जैसे युवा आदर्शवादी को गैर-यूरोपीय संयुक्त मोर्चे के युद्ध-विरोधी अभियान में भागीदार बना दिया। वह अपने संस्मरणों में लिखते हैं, “द्वितीय विश्व युद्ध अत्याचार, नरसंहार और क्रूरता को उजागर करता है, यह बीसवीं सदी की महान नैतिक त्रासदी को प्रदर्शन करता है।”
यह वह समय था, जब वे पॉल रॉबसन, पाब्लो नेरुदा और पाब्लो पिकासो जैसे वामपंथी झुकाव वाले गायकों, कवियों और कलाकारों से प्रभावित थे। 1946 के निष्क्रिय प्रतिरोध अभियान के दौरान कथराडा और उनके कुछ दोस्तों ने जोहान्सबर्ग में पिकासो क्लब स्थापित किया। उन्होंने शायद पिकासो का लेख, “मैं कम्युनिस्ट क्यों बन गया” (1945) पढ़ा था, जिसमें लिखा था – “मेरा कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होना मेरे जीवन का एक यक़ीनी कदम है। डिजाइन और रंग के माध्यम से मैंने दुनिया और लोगों के ज्ञान में गहराई से प्रवेश करने की कोशिश की है, ताकि यह ज्ञान हमें मुक्त कर सके। अपने तरीके से मैंने हमेशा कहा है, जो सबसे सच्चा, सबसे न्यायसंगत और सबसे अच्छा है, वही सबसे सुंदर लगता है। लेकिन उत्पीड़न और विद्रोह के दौरान मैंने महसूस किया कि यह पर्याप्त नहीं था। मुझे न केवल अपनी चित्रकारी के माध्यम से, बल्कि अपने प्राणपण के साथ इस लड़ाई को लड़ना था। मैं एक कम्युनिस्ट बन गया हूं, क्योंकि हमारी पार्टी दुनिया को समझने और बेहतर बनाने के लिए, लोगों को स्पष्ट ढंग से विचार करने में सक्षम बनाने, आज़ाद होने और अधिक खुशहाल बनाने के लिए किसी भी अन्य पार्टी से ज्यादा प्रयास करती है।”
पैम्फलेट बांटने और पोस्टर लगाने के अलावा पिकासो क्लब ने राजनीतिक भित्तिचित्रों को भी अपनाया। उनके नारों में से एक, जोहान्सबर्ग पब्लिक लाइब्रेरी, जिसने जनता और अधिकारियों दोनों का ध्यान आकर्षित किया, गोरों के विशेष उपयोग के लिए जोहान्सबर्ग पब्लिक लाइब्रेरी की दीवारों पर लिखा नारा “Let Us Black Folks read”, नगर पालिका ने इसे मिटा दिया। कुछ दिनों के बाद, कथराडा और उनके दोस्त ने दीवार पर एक और नया नारा लिख दिया, जिसमें कहा गया था, ‘We Black Folks Ain’t Reading Yet!’
रोबेन द्वीप की जेल तक निडरता से मार्च
कथराडा 18 बार जेल गए। अंतिम बार 1964 में, जब उन्हें मंडेला, सिसुलू, गोवन म्बेकी और अन्य एएनसी स्वतंत्रता सेनानियों के साथ रिवोनिया मुकदमे में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। संयोग से, मंडेला, सिसुलू और कथराडा केवल तीन नेता हैं, जो तीन प्रमुख मुक़दमों में उपस्थित हुए हैं, जो रंगभेद विरोधी आंदोलन के इतिहास में प्रेरक अध्याय बनाते हैं – अवज्ञा अभियान 1952 (The Defiance Campaign ), देशद्रोह मुक़दमा 1956 -1961 (Treason Trial ) और रिवोनिया परीक्षण -1964 (The Rivonia Trial ).
कथराडा अपने सिद्धांतों के पक्ष में निर्भयता से लड़ते थे। प्रमाण के लिए, कुख्यात रिवोनिया ट्रायल में कथराडा द्वारा अपनी जिरह में दिए गए कुछ जवाबों को पढ़ें, जिसे दक्षिण अफ्रीका को बदलने वाला मुक़दमा माना जाता है।
प्रश्न: क्या आपको एएनसी के उन गैर-जिम्मेदार नेताओं पर भरोसा था?
उत्तर: मैंने कहा है कि मैं एएनसी के नेतृत्व को जिम्मेदार मानता हूं। मैं उनके साहस की पूरी तरह से प्रशंसा करता हूं।
प्रश्न: इस देश के उत्पीड़ित लोगों के लिए स्वतंत्रता प्राप्त करना किसका लक्ष्य और उद्देश्य है?
उत्तर : जो देश में उत्पीड़ित लोग हैं।
प्रश्न: जिसमें दक्षिण अफ्रीका की सरकार को उखाड़ फेंकना भी शामिल है?
उत्तर : हाँ , ऐसा है।
प्रश्न: यदि आवश्यक हो तो बल प्रयोग और हिंसा द्वारा भी?
उत्तर : जब और जहाँ जरूरी हो।
कथराडा को पता था कि उन्हें अपनी निडरता की कीमत चुकानी पड़ेगी। अगले 26 साल, 3 महीने और 4 दिन यानी 9,593 दिनों के लिए जेल उनका घर बन गया। उनके कुछ साल जेल में रहने के बाद रंगभेदी सरकार ने उन्हें रिहा करने की पेशकश की, लेकिन एएनसी के अन्य अश्वेत नेताओं को नहीं। उन्होंने यह कहते हुए प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया कि मैं अकेले मुक्त नहीं होना चाहता। मेरे सभी साथियों को रिहा किया जाना चाहिए।
कथराडा ने अपने संस्मरण में लिखा है, अगर मुझे रॉबेन द्वीप पर जीवन को परिभाषित करने के लिए एक शब्द लिखना पड़े, तो यह ‘ठंडा’ होगा। ठंडा भोजन, ठंडी फुहारें, ठंडी सर्दियाँ, समुद्र से आने वाली ठंडी हवाएँ, ठंडा जेलर, ठंडी कोठरी, ठंडा आराम … बाहरी दुनिया के साथ किसी भी तरह का संपर्क न्यूनतम था। मेरे द्वारा रॉबेन द्वीप पर बिताए गए इन सभी वर्षों में, मैंने केवल एक बार अपनी कोठरी के बाहर से रात के आकाश की ओर देखा। यह भूकंप की रात थी, जब हमारी सभी कोठरियां खोल दी गई थीं और हमें बाहर आंगन में ले जाया गया था। दिन के समय कैदियों को कठिन शारीरिक श्रम करना पड़ता था।
जेल के जीवन ने उन दो नेताओं के साथ उनके संबंधों को मजबूत किया, जिनकी वे सबसे अधिक प्रशंसा करते थे। नेल्सन मंडेला और वाल्टर सिसुलू को आधी सदी से भी ज्यादा वक़्त तक जानने से मुझे एक निश्चित बात पता चली कि दूसरे का उल्लेख किए बिना एक के बारे में बात करना असंभव है। ये दो विशिष्ट और अद्वितीय व्यक्ति, दो संघर्षशील नेता, अपनी दूरदर्शिता, साहस, ज्ञान और साझा अनुभवों से जटिल रूप से बंधे हुए थे।
वह एक दिलचस्प तथ्य बताते हैं कि कैसे उन्होंने, सिसुलू और अन्य साथियों ने मंडेला को रॉबेन द्वीप पर अपनी आत्मकथा लिखने में मदद की, 1978 में अपने 60 वें जन्मदिन के लिए इसे प्रकाशित करने की योजना के साथ। एएनसी की एक वरिष्ठ नेता मैक महाराज को उसी जेल में रखा गया था, जो दिसंबर 1976 में रिहा होने वाली थी। उन्हें पांडुलिपि की तस्करी करने का काम सौंपा गया था। मंडेला ने जनवरी 1976 में पांडुलिपि पर काम करना शुरू किया, लेकिन जैसा कि कथराडा लिखते हैं, यह एक जोखिम भरी योजना थी।
मंडेला का जीवन अवैध और खतरनाक था। इस बात के खुलासे का परिणाम कठोर सामूहिक दंड होगा, इसका ज्ञान सीधे तौर पर शामिल लोगों तक ही सीमित होना था। चूँकि अधिकांश लेखन रात में किया जाना था, मंडेला ने बीमारी का नाटक किया और उन्हें दैनिक कार्यसूची से छुट्टी दे दी गई। वह कुछ घंटों के लिए सोते थे, जबकि वार्ड सुनसान था और गहरी रात में लिखते थे, सुबह-सुबह वे वाल्टर और मुझे टिप्पणी के लिए लिखित पृष्ठ देते थे। अंतिम मसौदे को तब मैक महाराज और लालू चिबा द्वारा चावल के कागज की शीट में लघु लिपि में स्थानांतरित कर दिया जाता था। मूल प्रति खाली कनस्तरों के अंदर रोल की गयी थी और हमारे बगीचे में दफन गाड़ दी गयी थी।
हालांकि मैक महाराज पांडुलिपि की तस्करी करने में सफल रही, लेकिन इसे मंडेला के 60वें जन्मदिन के अवसर पर प्रकाशित नहीं किया जा सका। हालांकि, प्रयास निष्फल नहीं था। यह पांडुलिपि 1994 में प्रकाशित उनकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध आत्मकथा, लांग वॉक टू फ्रीडम का आधार बनी।
मंडेला के साथी, मित्र, सलाहकार
मंडेला से ठीक चार महीने पहले 1989 में कथराडा को रिहा किया गया था। उनकी रिहाई के बाद उनके स्थायी लगावों में से एक रोबेन द्वीप था। यह जानकर मंडेला, जो 1994 में दक्षिण अफ्रीका के पहले लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति बने, ने उन्हें 1997 में रॉबेन द्वीप संग्रहालय परिषद के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया, जिसे इतिहास और सौंदर्यशास्त्र दोनों पर ध्यान रखते हुए डिज़ाइन किया गया था, इसे जल्दी ही यूनेस्को द्वारा वैश्विक धरोहर के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। यह अब दक्षिण अफ्रीका आने वाले विदेशी पर्यटकों के लिए एक दर्शनीय स्थल बन गया है। संग्रहालय कथराडा की बुद्धिमत्ता पूर्ण भावना को प्रमुखता से प्रदर्शित करता है, वे लिखते हैं –
“जबकि हम रंगभेद की क्रूरता को नहीं भूलेंगे, हम नहीं चाहेंगे कि रॉबेन द्वीप हमारी कठिनाई और पीड़ा का स्मारक बने। हम चाहेंगे कि यह बुराई की ताकतों के खिलाफ मानवीय भावना की जीत का स्मारक हो, छोटे दिमाग और क्षुद्रता के खिलाफ ज्ञान और आत्मा की विशालता की जीत का स्मारक हो; मानवीय और कमजोरियों पर साहस और संकल्प की विजय; पुराने पर नए दक्षिण अफ्रीका की जीत का स्मारक हो।”
रंगभेद के खिलाफ संघर्ष की जीत और एएनसी सरकार की स्थापना के बाद, कुछ चरम वामपंथी अश्वेत कार्यकर्ताओं ने मंडेला की विरासत और दक्षिण अफ्रीका के एक इंद्रधनुषी राष्ट्र के रूप में उनके दृष्टिकोण की आलोचना करना शुरू कर दिया, जिसमें गोरों को भी समान स्थान था। उन्होंने कहा था, “मैं श्वेत उत्पीड़न का विरोधी हूं। लेकिन मैं काले उत्पीड़न का भी विरोध कर रहा हूं। ये चरमपंथी, गरीब अश्वेत अफ्रीकियों के गुस्से का फायदा उठा रहे थे, जो अविकसित थे और आर्थिक अवसरों की कमी से पीड़ित थे। कथराडा ने अपनी मृत्यु से कुछ महीने पहले अमेरिका में नेशनल पब्लिक रेडियो को दिए एक साक्षात्कार में इस स्थिति के बारे में जो कहा, वह उनकी बुद्धिमत्ता का प्रमाण है।
“क्रोध, बदला, नकारात्मक भावनाएँ हैं। यदि कोई उन भावनाओं को आश्रय देता है, तो आप अधिक पीड़ित होते हैं और इसी से क्षमाशीलता की हमारी प्रगतिशील नीति आई, जिसमें एएनसी की शुरुआत रंगभेद से लोकतंत्र में परिवर्तन के साथ हुई – क्षमा करें। घृणा और बदले की भावना को आश्रय न दें।”
कथराडा ने 1999 में जोहान्सबर्ग में नेल्सन मंडेला फाउंडेशन की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कथराडा की आत्मकथा के लिए अपने ‘प्राक्कथन’ में, मंडेला लिखते हैं: “अहमद इतनी लंबी अवधि में मेरे जीवन का इतना बड़ा हिस्सा रहा है कि मैं बिना मेरे कुछ सोचे उसे अपने संस्मरण लिखने की अनुमति दे सकता हूं। हमारी कहानियां आपस में इस कदर गुंथी हुई हैं कि एक के कहने पर दूसरे की आवाज कहीं सुनाई नहीं देती तो एक अधूरी कहानी बन जाती।
दोनों कामरेड एक-दूसरे को प्यार से ‘मदाला’ या बूढ़ा कहकर संबोधित करते थे। 5 दिसंबर, 2013 को मंडेला की मृत्यु कथराडा के लिए एक गहरी व्यक्तिगत क्षति थी। अपनी भावपूर्ण प्रशस्ति में उन्होंने कहा –
“मदाला, जबकि हम दु:ख और शोक में डूबे हुए हैं, हमें गर्व और आभारी होना चाहिए कि बाधाओं और कष्टों से भरी लंबी यात्रा के बाद, हम अंत में स्वतंत्रता के लिए एक सेनानी के रूप में आपको सलाम कर सकते हैं। अलविदा मेरे प्यारे भाई, मेरे गुरु, मेरे नेता। अपनी पूरी ऊर्जा और दृढ़ संकल्प के साथ, हम आपके आदर्शों को कायम रखने के लिए दक्षिण अफ्रीका के लोगों के साथ जुड़ने का संकल्प लेते हैं। जब वाल्टर की मृत्यु हुई, तो मैंने एक पिता खो दिया और अब मैंने एक भाई खो दिया है। मेरा जीवन शून्य में है और मुझे नहीं पता कि किसकी ओर रुख करूं।
गांधी और रंगभेद विरोधी संघर्ष को जोड़ने वाली गर्भनाल
हाल के वर्षों में, अफ्रीका में कुछ शिक्षाविदों और अश्वेत कार्यकर्ताओं ने गांधी को नस्लवादी के रूप में चित्रित किया है। वे रंगभेद के खिलाफ संघर्ष पर गांधीवादी प्रभाव से इनकार करते हैं। इसलिए मैं यहां कथराडा के संपादक इस्माइल मीर और उनकी पत्नी फातिमा मीर के बारे में कुछ पंक्तियां जोड़ना चाहता हूं, दोनों रंगभेद विरोधी आंदोलन में मंडेला के करीबी सहयोगी थे। वे कथराडा के आजीवन मित्र भी थे। ये विषयांतर जो अब काफी हद तक भुला दिए गए, यहां तक की बेवजह विवाद का कारण बने, उस गर्भनाल को याद करने के लिए आवश्यक है, जो 20 वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में गांधी के नेतृत्व में भारतीयों के नस्लवाद विरोधी संघर्ष और बाद में रंगभेद के खिलाफ एएनसी के बड़े संघर्ष को जोड़ता था।
फातिमा के पिता मूसा मीर, गांधी और मंडेला दोनों के भरोसेमंद सहयोगी थे। वह इंडियन व्यूज के संपादक थे, इस अखबार ने श्वेत-अल्पसंख्यक सरकार का विरोध किया था। फातिमा और इस्माइल मीर ने भारतीय समुदाय, एएनसी, मंडेला, सिसुलू, टैम्बो और अल्बर्ट लुथुली जैसे महत्वपूर्ण अश्वेत नेताओं के बीच संबंधों को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जैसा कि इस्माइल मीर, जो जवाहरलाल नेहरू के लेखन से बहुत प्रभावित थे, ने अपनी आत्मकथा, ए फॉर्च्यूनेट मैन में दर्ज किया है, “यह एशियाटिक लैंड टेन्योर एंड इंडियन रिप्रेजेंटेशन एक्ट के खिलाफ भारतीय दक्षिण अफ्रीकियों द्वारा 1946 का निष्क्रिय प्रतिरोध अभियान था, जिसने 1952 के अवज्ञा अभियान की नींव रखी।
फातिमा मीर (1928-2010) भारतीयों और अश्वेत अफ्रीकियों के नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष के बीच एक करीबी और गौरवपूर्ण कड़ी बनाती हैं। उन्हें अश्वेत महिला महासंघ में विनी मंडेला के साथ मिलकर काम करने के लिए कैद किया गया था। उन्होंने मंडेला की अधिकृत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित जीवनी ‘हायर देन होप’ लिखी। वह एक प्रसिद्ध गांधीवादी विद्वान-कार्यकर्ता भी थीं। वे अपनी किताब “अप्रेंटिसशिप ऑफ ए महात्मा-ए बायोग्राफी ऑफ एमके गांधी” में दक्षिण अफ्रीका ने गांधी को कैसे बदल दिया, इसका एक बोधगम्य विवरण देती हैं –
“18 जुलाई, 1914 को, अपने आगमन के इक्कीस साल बाद, मोहन अपने परिवार के साथ दक्षिण अफ्रीका से चले गए। वे तेईस वर्ष की आयु के एक आधे -अंग्रेज के रूप में देश में आये थे । उनका मेजबान उनसे मिलने पर आश्चर्य में पड़ गया कि वह इतना रईस दिखने वाला नौजवान अपने यहाँ कैसे रख सकता है। कुछ समय तक उनकी जीवन शैली मंहगी रही, लेकिन विचारों और अनुभवों के मेल से वे बदलते गए। फिर वे सब बकते चले गये। जैसे कि मसीह उद्धारकर्ता बन गए, मोहम्मद पैगंबर बन गए , गौतम बुद्ध बन गए, अंधेरे से डरा हुआ एक लड़का महात्मा बन गया और सभी महात्माओं के क़र्ज़ को चुकाया।
मुझे डरबन में उनसे मिलने का सौभाग्य मिला, जब मैं 1998 में प्रधान मंत्री वाजपेयी के साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए गया था। उन्होंने अपने घर पर मुझे जो अनमोल उपहार भेंट किया, वह थी उनके द्वारा संपादित 1200 पन्नों की पुस्तक” साउथ अफ्रीकन गांधी”, इस किताब ने मानव स्वतंत्रता और सम्मान के लिए इस साहसी और सौम्य चेहरे वाले सेनानी की यादों को मेरे लिए सहेज कर रखा है।
कथराडा अपने संस्मरण में इस्माइल और फातिमा मीर के बारे में गहरे लगाव से लिखते हैं। “1 मई 2000 को इस्माइल मीर के निधन ने न केवल मेरे जीवन में एक शून्य छोड़ दिया, बल्कि जैसा कि मैंने उनकी विधवा फातिमा और उनके परिवार को लिखा, ‘दक्षिण अफ्रीका को गरीब छोड़ दिया। उनका जीवन उन विचारों और प्रथाओं को पोषित करने का उदाहरण बना, जिनके लिए उन्होंने अपना इतना समय और ऊर्जा समर्पित किया।
विनय, विनम्रता और सच्चरित्रता के अवतार
कथराडा ने न केवल साहस, बल्कि विनय और विनम्रता का भी परिचय दिया। ऐसे गुण जो उन लोगों में आते हैं, जो मृत्यु की छाया में चले गए हैं और लंबे समय तक जेल जीवन के दर्द से बदल जाते हैं। उन्हें कभी सत्ता का लालच नहीं रहा। 1994 में क्रांति की सफलता के बाद, राष्ट्रपति मंडेला ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में मंत्री पद की पेशकश की, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। इसके बजाय, उन्होंने मंडेला को संसदीय परामर्शदाता के रूप में सेवा देना चुना। उनके नेता और वे दोनों 1999 में राज्य कार्यालय से सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद, अपने जीवन के अंत तक वे दक्षिण अफ्रीका को गैर-जातिवाद, गैर-लिंगवाद और भ्रष्टाचार मुक्त गरीब-समर्थक शासन के रास्ते पर ले जाने के लिए प्रतिबद्ध एक प्रभावशाली आवाज बने रहे।
उनका नैतिक साहस ऐसा था कि 28 मार्च, 2017 को अपनी मृत्यु से एक साल पहले, उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के तत्कालीन राष्ट्रपति जैकब जुमा की सार्वजनिक रूप से आलोचना की थी, जब वे भ्रष्टाचार के घोटालों में फंस गए थे। दो भारतीय व्यवसायी, राजेश और अतुल गुप्ता, जो ज़ूमा के बेहद करीबी थे, इन घोटालों के सरगना थे। कथराडा ने ज़ूमा को इस्तीफा देने के लिए एक खुला पत्र लिखा: “प्रिय कॉमरेड राष्ट्रपति, क्या आपको नहीं लगता कि राष्ट्रपति के रूप में आपका बने रहना देश की सरकार में विश्वास के संकट को और गहरा करेगा?”
ज़ूमा को अंततः 2018 में इस्तीफा देना पड़ा, और जून 2021 में उन्हें गिरफ्तार भी किया गया। उनकी गिरफ्तारी से फीनिक्स और देश के अन्य हिस्सों में भारतीय समुदाय पर हिंसक हमले हुए। कथराडा ने मरने से पहले, अपनी पत्नी और एक करीबी सहयोगी से राष्ट्रपति जुमा को अंतिम संस्कार से दूर रहने का संदेश देने के लिए कहा। उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें इस्लामिक रीति-रिवाजों के साथ दफनाया गया। साथ ही, बहु-धार्मिक एकता में उनके विश्वास के अनुरूप, उनका अंतिम संस्कार मुस्लिम, ईसाई, हिंदू और यहूदी प्रार्थनाओं के साथ हुआ।
कथराडा के मित्र और साथी विभिन्न धर्मों के थे। उनके सबसे करीबी दोस्त, उनके जेल साथी, ईश्वरलाल लालू चिबा थे। जेल से रिहा होने के बाद, उन्होंने बारबरा होगन से शादी की, जिन्हें 1980 के दशक की शुरुआत में रंगभेद विरोधी संघर्ष में भाग लेने के लिए दस साल की कैद की सजा सुनाई गई थी। वह अपने संस्मरणों में लिखते हैं, “मैं लोगों की पूजा करने की स्वतंत्रता का समर्थन करता हूं, लेकिन मैं एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में विश्वास करता हूं।”
भारत के बहुलतावाद ने उन्हें खींचा
कथराडा की आत्मकथा गांधी, नेहरू और भारत की प्रशंसा से भरी हुई है। उन्होंने विशेष रूप से भारत की बहुलतावादी संस्कृति की प्रशंसा की। उन्होंने लिखा, “गांधी द्वारा एक उद्धहरण में अभिव्यक्त किया गया है – ‘मैं चाहता हूं कि सभी देशों की संस्कृति मेरे घर के चारों ओर यथासंभव स्वतंत्र रूप से उड़े। लेकिन मैं किसी एक संस्कृति के प्रेम में पड़ने से इंकार करता हूँ।’
अपनी पूरी जेल अवधि के दौरान उन्हें उन मित्रों के पत्र, मिले जिन्होंने भारत की यात्रा की थी। कथराडा ने लिखा – उन्होंने जो कुछ पाया, उससे वे बहुत प्रभावित और उत्साहित हुए। मैं समझ नहीं पाया कि उन्हें अकाल, कुपोषण, बीमारी, अवांछित गरीबी, सांप्रदायिक संघर्ष, अराजकता, भ्रष्टाचार और गंदगी से घिरे एक विशाल देश की मानसिक तस्वीर के साथ क्या इतना सुखद लगा, वे सभी दक्षिण अफ्रीका में जन्मे और शिक्षित हुए थे, जैसा कि मैंने किया।
इसके बाद वे लिखते हैं: “अपनी रिहाई के बाद जब मैं स्वयं भारत गया, तब जाकर मुझे इस आकर्षण का एहसास हुआ और मुझे लगा कि पश्चिम में मीडिया द्वारा बनाई गई भारत की तस्वीर गंभीर रूप से विकृत थी, जिसमें सिर्फ नकारात्मक पहलुओं पर जोर दिया गया था। हम उपमहाद्वीप के आतिथ्य, गर्मजोशी, सादगी, सांस्कृतिक समृद्धि और सुंदर वास्तुकला से अनभिज्ञ थे। तीसरी दुनिया के देश भी अक्सर दुर्भावना से प्रेरित रिपोर्टिंग के शिकार हो जाते हैं।
अहमद कथराडा फाउंडेशन की मेरी यात्रा
हम भारतीयों को इस महान स्वतंत्रता सेनानी की स्मृति को केवल इसलिए जीवित नहीं रखना चाहिए क्योंकि वह भारतीय मूल के थे, केवल इसलिए नहीं कि वे मंडेला के प्रतिरूप थे, बल्कि एक अन्य कारण से भी जो समकालीन भारत और समकालीन दक्षिण अफ्रीका दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। मुझे इस कारण के बारे में तब पता चला, जब मैंने जोहान्सबर्ग के लेनासिया में अहमद कथराडा फाउंडेशन के मुख्यालय का दौरा किया, जो “गैर-जातिवाद को गहराने और दक्षिण अफ्रीकी संविधान के फ्रीडम चार्टर में निहित मूल्यों, अधिकारों और सिद्धांतों को बढ़ावा देने” के अपने मिशन को समर्पित रूप से आगे बढ़ा रहा है।
रंगभेदी शासन ने नस्लीय अलगाव के दिनों में इस लेनासिया टाउनशिप को विशेष रूप से भारतीय समुदाय के लिए बनाया था। आज भी इसके अधिकांश निवासी भारतीय मूल के लोग हैं। हालाँकि वे कई पीढ़ियों से दक्षिण अफ्रीका में रह रहे हैं। यहां की सड़कों का नाम कश्मीर, लखनऊ, बॉम्बे, बैंगलोर, महानदी आदि के नाम पर रखा जाता है।
अहमद कथराडा फाउंडेशन का कार्यालय चहल-पहल से गुलजार था। सभी अपने कार्यों में डूबे हुए थे। देश भर में इसके 30 युवा क्लब हैं और अगले कुछ वर्षों में 100 और बनाने का लक्ष्य है। यहां मैंने फाउंडेशन के दो प्रमुख पदाधिकारियों से मुलाकात की। उन्होंने मुझे बताया कि रंगभेद के खिलाफ संघर्ष का सफलतापूर्वक नेतृत्व करने वाली अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस अब वैसी नहीं रही, जैसी मंडेला और कथराडा के जमाने में थी। “एएनसी गुटबाजी से ग्रस्त है। अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में नहीं है, खासकर गरीबों के लिए। युवा बेरोजगारी 50% से अधिक है। भारतीय और अफ्रीकी समुदायों के बीच नस्लीय तनाव है। इसके अलावा गुप्ता परिवार और पूर्व राष्ट्रपति ज़ूमा से जुड़े भ्रष्टाचार के घोटाले ने भारतीयों की प्रतिष्ठा को बुरी तरह से नुकसान पहुँचाया है। इसलिए, हमें मुक्ति आंदोलन के बेहतर मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध नेताओं की एक नई पीढ़ी का निर्माण करने की आवश्यकता है। हम अतीत में नहीं रह सकते।
यदि यह समकालीन दक्षिण अफ्रीका की स्थिति है, जहाँ अहमद कथराडा जैसी महान आत्माओं की विरासत को संरक्षित करने की आवश्यकता है, तो समकालीन भारत में भी कुछ ऐसा हो रहा है, जिसने वैसी ही आवश्यकता पैदा की है। मुझे बताया गया कि “भारत में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन पैदा कर रही है।” “कुछ हिंदुत्ववादी ताकतें यहां सक्रिय हैं। मुस्लिम समुदाय अंतर्मुखी हो गया है। इसकी मुस्लिम पहचान मजबूत हो गई है और खासकर युवाओं के बीच इसकी भारतीय पहचान कमजोर होती जा रही है।
यह सुनना दर्दनाक था, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में गांधी के समय और मंडेला के नेतृत्व में रंगभेद विरोधी आंदोलन के बाद के दौर में धार्मिक, जातीय और भाषाई सीमाओं के पार भारतीय समुदाय की एकता गौरवपूर्ण उपलब्धियों में से एक थी। निश्चित रूप से, भारत सरकार, भारत के राजनीतिक दलों (विशेष रूप से भाजपा), हमारे धार्मिक-सांस्कृतिक-व्यापारिक संगठनों, हमारे गांधीवादी संगठनों और अन्य सभी नागरिक समाज संगठनों की एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे काले अफ्रीकियों और भारतीयों के बीच जो दरारें आ गई हैं, उन्हें भरें । समुदाय और स्वयं भारतीय समुदाय के भीतर भी।
जुलाई 2016 में दक्षिण अफ्रीका की अपनी यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री ने अहमद कथराडा से मुलाकात की और ट्वीट किया: “डॉ. अहमद कथराडा एक नायक और प्रेरणा के एक महान स्रोत हैं। उनसे मिलकर बहुत खुशी हुई।” जनवरी 2017 में भारत सरकार ने अहमद कथराडा फाउंडेशन को “दक्षिण अफ्रीका में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने और अपनी गतिविधियों को पूरा करने के लिए दो मिलियन रैंड (लगभग 90 लाख रुपये) का दान दिया था।
-डॉ. सुधीन्द्र कुलकर्णी
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