बिहार स्थित बक्सर के एक कथावाचक, जो मामाजी के नाम से ही सुविख्यात हुए, मिथिला से होने के कारण अपने को सीता का भाई कहते थे। भगवान से अपना रिश्ता जोड़कर भक्त उनसे निकटता के भाव-समुद्र में गोते लगाता है। सगुण भक्ति का यह रस-प्रवाह उसके जीवन को धन्य कर देता है। तुलसी ने विवाह के पूर्व फुलवारी और धनुष भंग प्रसंग का अद्भुत वर्णन किया है। राम विवाह का उत्सव इन दोनों प्रसंगों के बिना अधूरा लगता है।
वास्तव में फुलवारी प्रसंग आनन्द की अद्भुत पराकाष्ठा है। विश्वामित्र के साथ जनकपुर पहुँचे रघुबीर कुँअर नगर दर्शन भ्रमण के दौरान अपने रूप लावण्य से वहाँ के सभी नर-नारियों का चित्त चुरा लेते हैं। महाराज जनक तो विश्वामित्र के स्वागत में पहुँचते ही इनके रूप माधुर्य में डूब गये। महाज्ञानी विदेह राज, भक्ति-रस के समुद्र में गोते लगाने लगे।
भगवान राम के तीन सबसे प्रमुख गुण बताये गये हैं- शील,रूप और बल। राम के निर्गुण ब्रह्म के शील का सर्वश्रेष्ठ प्राकट्य अयोध्या में, रूप का मिथिला में और बल का लंका में होता है। मिथिला-नन्दिनी को उनके रूप लावण्य का दर्शन विदेह-राज की पुष्प-वाटिका में होता है। इसके पूर्व पूरी मिथिला उनके रूप लावण्य के समुद्र में डूब चुकी है। सभी की यह प्रबल भावना है कि इन्हीं का विवाह जनकनन्दिनी से हो। जानकी, देवी गौरी से अपने अनुरूप वर की इच्छा बताएं, उसके पूर्व ही मिथिला के लोगों की प्रार्थना स्वीकार कर वे सीता-वर को सामने ला देती हैं। तुलसी लिखते हैं- भये विलोचन चारु अचंचल। दोनों के चारों नेत्र स्थिर हो गये। उनकी चंचलता समाप्त हो गयी। पलकें झपकना भूल गयीं। आँखों की कुछ और देखने की इच्छा ही समाप्त हो गई। पलकों के देवता, ऋषि निमि जानकी की वंश परंपरा के पूर्वज थे। स्थिति की गम्भीरता से सकुचाकर वे चारों पलकों से लुप्त हो गये। तुलसी ने लिखा है- मनहुं सकुचि निमि तजे दिगंचल।
पलकों के देवता, जनक के पूर्वज निमि ऋषि का यह संकोच आज भी मिथिला के भक्तों की आँखों में देखने को मिल जाता है। अयोध्या के उन मंदिरों में, जहाँ उनकी जनक लली, पाहुन के साथ पारिवारिक भाव से विराजमान हैं, मिथिला वाले भक्त सामने से दर्शन करने में आज भी संकोच भाव से भर जाते हैं। विशेषकर जानकी महल ट्रस्ट के मंदिर और कनक भवन में। जानकी महल ट्रस्ट अयोध्या की सबसे उत्कृष्ट व्यवस्था वाली धर्मशाला है। यह मारवाड़ी भक्तों द्वारा संचालित है। यह जानकी का महल है। राम का राज दरबार नहीं। भक्त उसी भाव से यहाँ आते हैं।
कनक भवन, राम भक्त शिरोमणि ओरछा की रानी की अयोध्या को अनुपम भेंट है। विभिन्न प्रांतों के रजवाड़ों ने अयोध्या को अद्भुत भाव से संवारा था। देश के एकीकरण के बाद भी प्रिवी पर्स बन्द होने तक इन रजवाड़ों ने अद्भुत सेवा की। मध्य प्रदेश के ओरछा और बिहार के अमावा राज इसमें विशेष उल्लेखनीय हैं। ओरछा की व्यवस्था, भक्तों के सहयोग से अब भी उत्कृष्ट स्तर की है।
कनक भवन का सन्दर्भ सोने के उस भवन से है, जिसे दशरथ ने कैकेयी को भेंट किया था तथा कैकेयी ने जानकी जी को मुँह दिखाई में दिया था। कैकेयी का भगवान राम और जानकी से यह प्रेम और फिर बाद में वनवास आश्चर्यजनक विसंगति है। कैकेयी कर्म की प्रतीक हैं। कौशल्या ज्ञान की और सुमित्रा भक्ति की प्रतीक हैं। कर्म की विसंगति हम सबके जीवन का सत्य है। इस विसंगति में भी मिथिला के भक्तों के पाहुन, जनक-नन्दिनी के साथ सभी भक्तों को आनंद से सराबोर करते हैं।
बक्सर, ऋषि विश्वामित्र की तपःस्थली है। उत्तर प्रदेश का गाज़ीपुर जिला, उनके पिता गाधि ऋषि की तपःस्थली है। बक्सर से जनकपुर की सुन्दर फुलवारी में पहुँचने के पूर्व विश्वामित्र राम को ऋषि गौतम की एक वीरान फुलवारी में भी ले जाते हैं। विवाह काम-साधना को शाश्वत आधार प्रदान करता है। काम का चिन्तन भारतीय मेधा ने अद्भुत और विलक्षण रूप से किया है।
अहिल्या ब्रह्मा की सबसे सुन्दर बेटी थी। देवराज इन्द्र भी उस पर मोहित थे। पिता ब्रह्मा ने योगी गौतम को भोगी इन्द्र पर प्राथमिकता दी। हमारी बुद्धि भी भोग से ज़्यादा योग को ही श्रेष्ठ मानती है। योग की सेवा में मनोयोग से लगी अहिल्या के गहरे अंतःकरण में भोग की कामना समाप्त नहीं हुई थी। यह गहरे अंतः में छिपी भोग की कामना का अहिल्या का सत्य हम सबके जीवन का सत्य है।
हमारी इस कामना का फ़ायदा इन्द्र उठाता है। आज भी उठाता है। वह ब्रह्ममुहूर्त के अंधेरे में ऋषि का रूप धारण कर भोग का प्रस्ताव लेकर आता है। योग साधना के ऊषा काल के पूर्व विचलन के ये क्षण व्यक्ति के जीवन में आते हैं। बुद्धि के देवता ब्रह्मा की बेटी के अंतःकरण में गहरे छिपी भोग की वृत्ति उसे विचलित करती है। बुद्धि की यह क्रिया हम सबमें ऐसे क्षणों में क्रियाशील हो जाती है। हम जानकर भी अपने अंतःकरण से ही अनजान बनते हैं। विवेक को विश्राम दे देते हैं। ब्रम्हमुहूर्त में ऋषि के साधना-क्रम से परिचित अहिल्या इन्द्र के भोग प्रस्ताव की विसंगति को थोड़े विवेक से समझ सकती थी। हम सभी समझ सकते हैं। लेकिन ऐसे क्षणों में हम जान बूझकर अनजान बनते हैं। विवेक को विश्राम दे देते हैं। विवेक का ऐसे क्षणों में विश्राम का अहसास बुद्धि को जड़ बना देता है। बुद्धि में पत्थर पड़ जाता है। बुद्धि के देवता ब्रह्मा की बेटी अहिल्या भी पत्थर हो जाती है। जीवन की योग साधना के ब्रह्ममुहूर्त में जान बूझकर भोग की ओर यह विचलन हम सबके जड़ बनने और बुद्धि में पत्थर पड़ने का सत्य है।
इन्द्र के क्षणभंगुर भोग सौन्दर्य के आकर्षण के कारण आने वाली बुद्धि की जड़ता का निस्तार तो योग साधना के शाश्वत सौंदर्य रूपी राम से मिलकर ही होता है। योगी गौतम, ब्रह्ममुहूर्त तक ही साथ दे सकते हैं। ऊषा काल का प्रकाश तो सूर्य वंश के बाल-पतंग के हमारे जीवन में उदित होने से ही हो सकता है। हमारी बुद्धि का पत्थर, जड़ से पूर्ण चैतन्य हो सकता है। योग की पूर्णता हो सकती है। अहिल्या की बुद्धि की जड़ता भी परम सौंदर्यवान राम के पैर की धूलि का स्पर्श पाकर पूर्ण चैतन्य हो जाती है। वह योगी गौतम की साधना को पूर्णता से प्राप्त कर लेती है। भोगी इन्द्र की पूर्णता अभी शेष है। उसकी भोग वासना के हज़ार रूप हैं। उसके शरीर में योगी गौतम हज़ार छिद्र देखते हैं। इन छिद्रों से उसके तमाम सत्कर्म निष्फल हो रहे हैं। हम सबके जीवन के सत्कर्म हमारी भोग वृत्ति के प्रभाव से निष्फल होते रहते हैं।
इन्द्र जब जनकपुर बारात में राम के परम सौंदर्य का दर्शन दूल्हे रूप में करते हैं, तो अपने भोग की निरर्थकता को हज़ार प्रकार से समझते हैं। उनके शरीर के हज़ार छिद्र, हजार नेत्रों में बदल जाते हैं। वे अपने को अन्य बारातियों; आठ नेत्रों वाले ब्रह्मा, बारह नेत्रों वाले सेनापति कार्तिकेय और पन्द्रह नेत्रों वाले शंकर से भी ज़्यादा सौभाग्यशाली पाते हैं। इन्द्र देवताओं के राजा हैं। कहते हैं कि इंद्र का सिंहासन सबसे ज़्यादा पुण्य करने वाले को मिलता है। जो इसे प्राप्त कर लेता है, फिर छोड़ना नहीं चाहता। आज भी सिंहासन प्राप्त करने के बाद कौन छोड़ना चाहता है! जब कोई ज़्यादा पुण्य करने लगता है तो इंद्र का सिंहासन डोलने लगता है। सिंहासनधारी इन्द्र उसे पथभ्रष्ट करने के लिए तमाम षड्यन्त्र करने लगता है। सभी सिंहासनधारी ऐसा ही करते हैं। भोग के सिंहासन पद का यह स्वभाव है। केवल राम पद का सिंहासन ही इस विचलन से जीव को मुक्त करता है। उसकी बुद्धि की अहिल्या के विचलन की मुक्ति होती है। पत्थर की जड़ता चैतन्य हो जाती है।
यह राम का बाराती बनकर ही हो सकता है, काम का बाराती बनकर नहीं। देहराज से विदेहराज जनकपुर का यात्री बनकर ही हो सकता है, तभी हमारी बुद्धि की अहिल्या की जड़ता टूटेगी और हृदय की वैदेही से राम-मिलन का परम आनन्द हम प्राप्त कर सकेंगे। परन्तु अभी जीवन के अहंकार के धनुष का टूटना और अपने अन्दर के आवेशावतार रूपी परशुराम का राम से साक्षात्कार होना शेष है।
ऋषि विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान को महाराज दशरथ से माँगकर ले आये और अपने कार्य के बाद महाराज जनक के धनुष यज्ञ की पूर्णाहुति कराने के लिए भी चल दिये। रास्ते में अहिल्या का भी उद्धार कराया। वे विश्वामित्र थे। सबके मित्र। सबकी भलाई करने वाले। महाराज दशरथ से दो भाइयों को माँग कर ले आये और चार बहुओं सहित वापस किया।
धनुष तो शंकर का था। कहते हैं वृत्तासुर का वध शंकर ने इसी से किया था। वृत्तासुर से सभी त्रस्त थे। उसके वध की ख़ुशी में देवताओं ने दिवाली मनाई। यह देव दीपावली आज काशी का सबसे प्रमुख उत्सव है। इतने महत्वपूर्ण धनुष को जनक ने सम्भाल रखा था। कार्य पूर्ण होने के बाद शिव ने खुद को उससे बांधे नहीं रखा। अपने साथ ढोते नहीं रहे। वे निरभिमानी हैं। अहंकार का भक्षण करने वाले मूर्तिमान विश्वास हैं। उन्हें किसी को धनुष का प्रमाण नहीं दिखाना है कि इसी से उन्होंने वृत्तासुर का वध किया था।
जानकी ने अहंकार रूपी इतने भारी धनुष को स्वाभाविक रूप से उठाकर एक जगह से दूसरी जगह रख दिया। वे मूर्तिमान परम शक्ति हैं। उनको जनक सर्व शक्तिमान को ही सौंप सकते हैं। यह जानने की कसौटी उसी धनुष को उठाने, तोड़ने और हलका साबित करने की है।
सभी देशों के एक से बढ़कर एक अहंकारी राजा आये थे। कहते हैं कि रावण ने जानबूझ कर इस यज्ञ में भाग नहीं लिया। पाना तो वह भी परम शक्ति को ही चाहता था। स्वयं शंकर को उठा लाया था। निरभिमानी शंकर अत्यन्त हलके हैं। लेकिन अहंकार के भक्षक का धनुष अत्यधिक भारी है। अहंकारशून्य द्वारा परित्यक्त अहंकार को कोई अहंकारशून्य ही हलका साबित कर सकता है। बड़े से बड़े अहंकारी के लिए भी यह सम्भव नहीं है, चाहे रावण स्वयं ही क्यों न हो।
सभी राजाओं ने अलग-अलग और फिर एक साथ मिलकर अपने अहंकार से शंकर के इस परित्यक्त अहंकार को हल्का साबित करने का पूरा प्रयास किया और सबके अहंकार का भक्षण हो गया। जनक ही नहीं, पूरा जनकपुर घोर चिन्ता में डूब गया। तब विश्वामित्र ने सूर्यवंश के बाल-सूर्य को चिन्ता और निराशा की अंधेरी रात्रि में सुबह का प्रकाश विखेरने भेजा। इतने भारी अहंकार को हलका साबित करने के लिए सर्वशक्तिमान को भला किस प्रयास की ज़रूरत है! यह तो उनके लिए सहज ही है। वे इसी सहज भाव से इसे करने के लिए गये।
जब राम धनुष उठाने का उपक्रम करते हैं, तो शेषावतार लक्ष्मण सभी दिक्पालों सहित शेष नाग को भी पृथ्वी को मज़बूती से पकड़े रहने के लिए सावधान करते हैं- राम चहहिं शंकर धनु तोड़ा। कहीं उसकी भीषण ध्वनि-ऊर्जा से सब कुछ तहस-नहस न हो जाये। परन्तु इतना बड़ा कार्य करने जा रहे राम की सहजता में कोई अन्तर नहीं है। कोई उद्वेग नहीं है। कोई अहंकार नहीं है। वास्तव में धनुष उठाने और तोड़ने के लिए वे कुछ करते ही नहीं। वे कर्ता हैं ही नहीं। ब्रह्म तो वेदान्त के अनुसार केवल द्रष्टा हैं।
तुलसी के शब्दों में वे केवल- गुरुहिं प्रणाम मनहिं मन कीन्हा, अति लाघव उठाइ धनु लीन्हा। गुरु का शब्दार्थ भारी, वज़नी है। इसी से गुरुत्वाकर्षण बना है। भारीपन के आकर्षण का बल। शंकर त्रिभुवन गुरु हैं। गुरु के भारीपन के सामने करबद्ध होकर भुजा रूपी तराज़ू के एक सिरे पर उसका भार रख दिया तो धनुष वाले सिरे की क्या बिसात! वह तो अत्यंत लघु बन ही जाएगा। और सर्वशक्तिमान के हाथ में आने के बाद उस अहंकार की क्या बिसात कि वहाँ टिक पाये- लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़े, काहु न लखा देख सबु ठाढ़े।
काल शून्य हो गया। किसी ने देखा ही नहीं कि यह सब कब हुआ। इसी कालशून्यता के क्षण में राम ने धनुष तोड़ दिया। यह धनुष जनक की कसौटी थी। वास्तव में उसके टूटते ही विवाह हो गया और सारे जनकपुरवासी अलौकिक आनंद से भर गये। शतानंद जी की आज्ञा पाकर सीता, राम को जयमाल पहनाने गयीं। और हाँ, ऐसे आनन्द के क्षण में भी सखियाँ विनोद करने से बाज नहीं आतीं। वे सीता से राम के चरण छूने को कहती हैं और सीता अहिल्या को याद करके सकुचा जाती हैं कि जैसे वे पदस्पर्श पाकर मुनिलोक को उड़ गयीं, वैसे ही कहीं मैं भी विष्णुलोक को न चली जाऊं। इस समय का गीत और विनोद हमारे विवाह उत्सवों का बहुत महत्वपूर्ण अंग है।
परशुराम के आवेश की शांति और अवधपुर को बारात लाने की पाती
परशुराम विष्णु के आवेशावतार हैं। अवतारों की विकास यात्रा में पहले जलचर यानी मत्स्यावतार, उभयचर यानी कच्छपावतार, शूकरावतार, नरसिंहावतार, बामनावतार के बाद आवेशावतार परशुराम का ज़िक्र होना चाहिए। अन्याय उन्हें बर्दाश्त नहीं है। कहते हैं कि उन्होंने 21 बार अन्यायी राजाओं को धरती से समाप्त कर अन्याय से अर्जित उनकी राज सम्पदा को धर्मानुरागियों में बांट दिया था। अवतार, धर्म की स्थापना के लिए ही होते हैं। भक्त अपनी प्रार्थना से निर्गुण ब्रह्म को सगुण करता है- यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः।
आवेश में अधर्म पर प्रहार करने से अधर्म की समस्या का दीर्घकालिक हल नहीं हो पाता, परन्तु व्यक्ति में अधर्म के ख़िलाफ़ आवेश का जागना भी आवश्यक है। अन्याय के विरुद्ध क्रोध आना भी ज़रूरी है। इसलिए परशुराम चिरंजीवी हैं। वे सतयुग, द्वापर, त्रेता सब युग में थे और आज भी अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों के कंठ में जीवित हैं।
लेकिन परशुराम के होने के बावजूद रावण के अत्याचार का निदान नहीं हो पाता। भक्तों के करुण क्रन्दन से द्रवित होकर भगवान राम अवतार लेते हैं। राम, धर्म की मर्यादा स्थापित करते हैं, परन्तु शील की अपनी विशिष्टता के साथ। वे मर्यादा पुरषोत्तम और शील सिंधु हैं।
विवाह की प्रक्रिया में बहुतों का अहंकार टूटता है। पिता दामाद का पैर पूजता है। बहुतों को आवेश भी आता है। यद्यपि खिचड़ी की रस्म के परम्परागत स्वरूप का विलोप हो रहा है, परन्तु उस समय दूल्हे पक्ष का आवेशित होना स्वाभाविक माना जाता रहा है।
वरमाला होने के बाद ही धनुष यज्ञ में आये प्रतिभागी राजाओं को समय का भान होता है। अभी तक वह रुक गया था। उन्हें लगता है कि कहीं कुछ जादू हुआ है। किसी ने राम को धनुष उठाते और तोड़ने के लिए खींचते हुए देखा ही नहीं। राम ने धनुष तोड़ा नहीं, कुछ जादू किया है। वे शक्तिवान कम, जादूगर अधिक हैं।
वास्तविक शक्तिशाली तो हम राजा हैं। धनुष पर जादू चल गया, परन्तु हमारी शक्ति पर नहीं चल सकता। हम दोनों भाइयों को हराकर स्वयं परमशक्ति रूपी सीता को प्राप्त कर सकते हैं और अपने को सर्व शक्तिमान साबित कर सकते हैं। धनुष टूटने के जादू के ख़िलाफ़ प्रतिभागी राजाओं के आवेश से उत्पन्न कोलाहल के बीच उन्हें शान्त कराने के लिए स्वयं आवेशावतार परशुराम का प्रवेश होता है। उनके प्रवेश करते ही शेष सभी का आवेश शान्त हो जाता है। सभी अपना भाग्य मनाने लगते हैं कि भला हुआ, जो धनुष उनसे नहीं टूटा। सभी अपने पिता के साथ अपना नाम बताकर परशुराम की गुडबुक में अपनी हाज़िरी दर्ज कराने लगते हैं। परशुराम न आते तो ये अहंकारी राजा विवाहोत्सव के रंग में भंग करने का तय कर चुके थे। परशुराम ने अपने प्रबल आवेश के प्रकाश से विवाह के रंग में भंग होने से बचा लिया। परशुराम लक्ष्मण संवाद आज भी रामलीलाओं का सबसे आकर्षक अंग होता है। तुलसी ने रामकथा की उत्कृष्टता की तीन कसौटी रखी है- बुध विश्राम सकल जन रंजन, राम कथा करि कलुष विभंजन। अर्थात रामकथा बुद्धिमानों की जिज्ञासा की शान्ति, सामान्य लोगों का मनोरंजन और सबके मन के मैल की सफ़ाई करती है।
परशुराम-लक्ष्मण संवाद सभी के लिए बहुत उपयोगी है। वास्तव में लक्ष्मण भी आवेशावतार ही हैं, परन्तु मर्यादा की सीमा के अंदर रहते हैं, क्योंकि वे मर्यादा पुरषोत्तम की छत्रछाया में रहते हैं। आवेश मर्यादा की छत्रछाया में ही पूर्ण सार्थक हो पाता है। वे मानो परशुराम से कहते हैं कि आप भी मर्यादा की छत्रछाया में आ जाइए। मर्यादा पुरुषोत्तम राम मॉडरेटर की भूमिका में हैं। वे कहते हैं- विप्रबंस कै असि प्रभुताईं, अभय होइ जो तुम्हहिं डेराई। वे शब्द रचना कौशल के सर्वोच्च शिखर पर हैं। परशुराम अत्यंत कुशल इस शब्द रचना कारीगर की जयकार करने लगते हैं।
राम के गूढ़ वचन सुनकर उनके बुद्धि-पटल खुल गये। हृदय के शंका समाधान के लिए परशुराम अपने विष्णु अवतार के धनुष को खींचकर दिखाने के लिए देते हैं, पर यह क्या! जिस धनुष को वे विष्णु होने का प्रमाण बताकर सबको दिखा रहे थे, वह तो राम को पहले से ही पहचानता था- देत चाप आपुहिं चलि गयऊ, परसुराम मन बिसमय भयऊ। और परशुराम बोल पड़ते हैं- जय मद मोह कोह भ्रम हारी।
उनका क्रोध, भ्रम सब ख़त्म हो गया। वे क्षमा के मन्दिर रूपी दोनों भाइयों से क्षमा माँगकर वन में तपस्या के लिए प्रस्थान कर गये। केवल राम ही क्षमा के मन्दिर नहीं हैं, उनकी छत्रछाया में आवेशावतारी लक्ष्मण भी क्षमा-मंदिर हैं। जब आवेशावतारी परशुराम ही जयकारा लगाने लगे, तो कुटिल राजाओं को कायरों की भाति भागने के अलावा रास्ता ही क्या बचा? सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न होकर पुष्प-वर्षा करने लगे। बाजे बजने लगे। कोकिल-बयनी स्त्रियों के गीत गुंजायमान होने लगे। जनक और जानकी के सुख का क्या कहना! दूत पाती लेकर अवधपुर चला गया। …और उधर अयोध्या में खबर मिलते ही- भुवन चारिदस भरा उछाहू, जनकसुता रघुबीर बिआहू।
अयोध्या से बारातियों का प्रस्थान और बारात की शोभा-यात्रा
जनकपुर से दूत अयोध्या के लिए प्रस्थान कर गया। जनकपुर सजने लगा। सबसे गरीब के घर की भी सजावट देखकर देवराज इन्द्र मोहित हो गये। जनक की पाती महाराज दशरथ स्वयं भावविह्वल होकर राज-दरबार में पढ़कर सुनाते हैं। भरत के पुनीत प्रेम-भाव देखकर पूरी सभा गदगद है। गुरु वशिष्ठ सहित रनिवास में राजा दशरथ पाती पढ़कर स्वयं सुनाते हैं। हर्ष चौतरफा नृत्य करने लगा। सबको समाचार मिल गया। चौदहों दिशाएँ उल्लास से भर गयीं। अवधपुर सजने लगा। राम और सीता का नाम ले लेकर सुन्दर स्त्रियाँ गीत गाने लगीं।
राजा के कहने पर भरत बारात ले जाने की तैयारी में जुट गये। घोड़े हाथी रथ और सभी बाराती सजकर नगर के बाहर इकठ्ठे होने लगे- चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर, लागी जुरन बरात। दो सुंदर रथों पर इन्द्र और उनके गुरु की भांति राजा दशरथ और वशिष्ठ विराजमान हुए और गुरु की आज्ञा से शंख बजाकर जनकपुर की ओर प्रस्थान किया। इस सबसे शुभ बारात के प्रस्थान की बात सुनकर सभी सुन्दर सगुन नाचने लगे और कहने लगे- अब कीन्हें बिरंचि हम साँचे। इतनी दूर की बारात के रास्ते में पड़ने वाली नदियों पर जनक ने पुल बनवा दिये थे और- बीच-बीच बर-बास बनाये। वह भी खाने पीने और विश्राम की उत्कृष्ट व्यवस्था के साथ।
आज की उन्नत मार्ग व्यवस्था के हिसाब से भी यह अयोध्या से 460 किलोमीटर दूर जाने वाली बारात थी। जनकपुर के बाहर ही दधि-चिऊड़ा आदि उपहारों से बारात का स्वागत हुआ और घराती बराती का मिलन ऐसा हुआ कि- जनु आनंद समुद्र दुइ, मिलत बिहाइ सुबेल। सीता की आज्ञा से सभी सिद्धियाँ बारात की सेवा में जनवासे पहुँच गयीं। जनवासे की अद्भुत शोभा के पीछे मूर्तिमान लक्ष्मीरूपा जानकी के प्रभाव को समझकर रघुनायक गदगद हो उठे। पहले से ही जनकपुर पहुँचे दूल्हे सरकार से पिता, भाइयों और बारातियों का मिलन अद्भुत आनन्द का क्षण था। बारातियों के समय से आ जाने से जनकपुर गदगद था। आजकल भी जब बारात विलम्ब से आती है, तो घरातियों में होने वाली व्याकुलता से जनकपुर के इस आनंद को समझा जा सकता है। कुछ दिनों तक बाराती जनकपुर की आवभगत का आनन्द लेते रहे। जनकपुर वासी सुन्दर स्त्रियाँ तो चारों भाइयों पर इस कदर मोहित थीं कि ब्रह्मा से जनकपुर में ही सभी के विवाह होने की आँचल पसार कर विनती करने लगीं।
विवाह में भाग लेने आये राजा भी दूल्हा भाइयों को देखकर आनंदित हो उठे। लग्न विचारकर ब्रह्मा ने राम विवाह के लिए अगहन सुदी पंचमी तिथि का संदेश नारद से भेजवा दिया। जनक के गणितज्ञों ने गणना की और- कहहिं जोतिषी आहिं विधाता। हमारे एक मित्र राजीव सिंह को जनकपुर जाने पर पता चला कि वहाँ ज्योतिषी आज भी इस तिथि को विवाह नहीं होने देते, पर ब्रह्मा और देवताओं को तो इस विवाह के बाद बहुत कुछ अभीष्ट था। ब्रह्मा और ज्योतिषियों की लगन गणना में विप्रों ने गोधूलि बेला को सुमंगल और अनुकूल सगुन बताया। जनक को अब विलम्ब सहन नहीं हो रहा है। उपरोहित शतानंद, मंत्री के साथ मंगल सामग्री सजाकर आयस देने जनवासे पहुँच गये।
राम बारात की शोभा यात्रा और विवाह
महाराज जनक के आयस का ही इन्तज़ार था। वर का मतलब ही श्रेष्ठ होता है। जनवासे में पूरी सेवा होती है। परन्तु बाराती चाहे जितना श्रेष्ठ हो, अपनी इच्छा से कन्या के दरवाज़े पर बारात लेकर नहीं पहुँच सकता। कन्या पक्ष की मर्यादा उससे भी श्रेष्ठ है। उसके आयस की प्रतीक्षा करनी ही पड़ती है। आयस आते ही बारात सज-धजकर जनक के दरवाज़े के लिए चल दी। चारों भाई दूल्हा बने हैं। जनक पुरवासियों की चारों भाइयों के रूप सौंदर्य पर मोहित, यहीं विवाह होने की प्रार्थना मान ली गई है।
वर रूप में चारों भाइयों की शोभा अद्भुत है। चारों भाई सुन्दर घोड़ों पर सवार हो, उन्हें नचाते हुए जा रहे हैं। रघुबीर कुँवर के घोड़े की गति से तो आज उनके विष्णु रूप के वाहन गरुण भी शर्मिंदा हो रहे हैं। स्वयं कामदेव ने घोड़े का रूप धारण किया है। शिव ने उन्हें जलाकर राख कर दिया था और रति की प्रार्थना पर बिना शरीर के जीवन दान दिया था। राम उन्हें घोड़े का शरीर देकर नचा रहे हैं। सामान्यतः काम हमें नचाता है, परन्तु यदि उसे नियंत्रित कर हम नचायें, तभी वह सार्थक है। अपने जीवन की लगाम को हम जैसे संचालित करते हैं, वैसे ही हमारे काम की सिद्धि होती है।
रघुबीर कुँअर के रूप लावण्य पर अनुरक्त पंचमुखी शंकर को अपने सभी पन्द्रह नेत्र अत्यन्त प्रिय लग रहे हैं। स्वयं विष्णु भी लक्ष्मी के साथ अपने ही इस रूप पर मोहित हो गये हैं। हर दूल्हा अपने इस दिन के रूप पर जीवन पर्यन्त अनुरक्त रहता है। सालगिरह मनाकर अपनी यादों को ताजा करता रहता है। ब्रह्मा अपने आठ नेत्रों से यह सौंदर्य-सुख लेते हुए भी और ज़्यादा नेत्र न होने के लिए दुखी हैं। यह बुद्धि की विडम्बना है। सामान्य लोगों से चौगुना होने के बाद भी शंकर के आधे के बराबर हैं ब्रह्मा। हम अपने लाभ से कम प्रसन्न होते हैं, पड़ोसी का ज्यादा लाभ होने से दुखी अधिक होते हैं। सेनापति षडानन को दूसरों से कम होने की चिंता नहीं है, बल्कि अपने पड़ोसी ब्रह्मा से ड्योढ़े बारह नेत्र होने का अपार सुख है। हर सेनापति को पड़ोसी से ड्योढ़ा होने का सुख होता है। शापित इन्द्र को तो आज का ही इन्तज़ार था। वासना के घोड़े उन्हें हज़ारों प्रकार से नचा रहे थे। रघुबीर कुँवर को उसी काम को हज़ारों प्रकार से नचाते देख उन्हें हज़ार नेत्रों का सुख मिल रहा है।
और अंततः बारात जनक के दरवाज़े पर पहुँच गई। दूल्हे सरकार का परिछन और आरती होने लगी। दूर से देखने से मन नहीं भरता। अलौकिक सुन्दरता को सुन्दर दीपक के प्रकाश में नज़दीक से निरखने-परखने का अलौकिक सुख प्राप्त हो रहा है। परिछन के समय दूल्हे के रूप-रंग में किसी कमी को भी परखा जाता है। इसके बाद अरघे में सुगंधित जल चढ़ाकर, वहाँ की वायु और धरती को शीतल व सुगंधित बनाकर दूल्हे सरकार को मण्डप में लाया जाता है। सम-समधी दशरथ और जनक का अत्यन्त प्रेमपूर्ण मिलन देखकर आनन्दित लोग महसूस कर रहे हैं कि अभी तक जितने समधियों का मिलन देखा, सब विषम थे, लोग पहली ही बार यह सम दृश्य देख रहे हैं- सम समधी देखे हम आजू। विवाह मण्डप में विराजमान दूल्हे सरकार तो अद्भुत सुन्दर लग रहे हैं- रामचंद्र मुख चंद्र छवि लोचन चारु चकोर, करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोद न थोर।
वशिष्ठ के शतानन्द को आयस देने पर पुरोहित की वाणी सुनकर कुल रीतिगान गाकर, सखियाँ अत्यंत सुन्दर रूप से सजी सीता को मण्डप में ले आयीं। पुनीत रूप सौंदर्य राशि देख सभी ने मन ही मन लक्ष्मी को प्रणाम किया और- देखि राम भए पूरनकामा। जनक-सुनयना ने दूल्हे सरकार के पैर पख़ारे। पिता-माता तुल्य, श्वसुर और सास द्वारा किसी भी दूल्हे का पैर धोना, उसके जीवन का सर्वोच्च सम्मान होता है। पैर धोकर दामाद के इधर उधर भटके पांवों की धूल साफ़ कर पिता अपनी कन्या को उसे सौंपता है।
पाँव पूजन के बाद दोनों कुलों के पुण्य प्रताप का गायन साखोच्चार के बाद दूल्हे दुल्हन का हाथ मिलवाया (पाणि ग्रहण) जाता है और उसके बाद कन्यादान होता है। वर वधू द्वारा सात फेरों में सात प्रतिज्ञाएं लेने के बाद ही सिंदूरदान होता है। पहले तीन बार वधू आगे, फिर चार बार वर आगे चलकर अग्नि को साक्षी मान शपथ लेता है। ये शपथ सप्ताह के हर दिन के लिए होती है। इसके बाद विवाह की सबसे महत्वपूर्ण रस्म सिन्दूरदान होती है। तुलसी का सिन्दूरदान का वर्णन अद्भुत और पूरे मानस का उच्चतम शिखर तथा पूरे विश्व साहित्य और दर्शन की अनुपम धरोहर है- राम सीय सर सेन्दुर देहीं, सोभा कहि न जाइ बिधि केहीं। अरुन पराग जलजु भरि नीके, ससिहिं भूष अहि लोभ अमी के।
सिंदूर, सूर्योदय की लालिमा का पराग, सूर्यवंशी दूल्हे राम की गोरी अंजलि रूपी कमल और उस कमल को साँवले हाथ रूपी सर्प अपने फ़न रूपी कलाई से पकड़, उसमें खूब ढेर सारा पराग लपेटकर जानकी के मुख रूपी चंद्रमा के ऊपर खूब अच्छी तरह पोत रहा है, जिससे चंद्रमा से बरसने वाले अमृत का पान कर यह काल कवलित करने वाला सर्प रूपी क्षणभंगुर काम अमर हो जाय। राम स्वयं सूर्य वंश के उदित होते सूर्य हैं। जनकपुर आते ही सभी जगह उनकी लालिमा का प्रकाश बिखर गया है। उधर शादी की देर रात तक चली रस्म के बाद भौतिक सूर्य की लालिमा सामने पूर्णिमा के सुन्दर चाँद पर फैल रही है। चंद्रमा से बरस रहे प्रेम रूपी अमृत से समूचा काल, कालातीत हो रहा है। विवाह क्षरणशील काम को शाश्वत आधार प्रदान कर संतति के माध्यम से पूरी श्रृष्टि को अमरता प्रदान करने का प्रयोजन है।
रघुबीर कुँवर के बाद बाक़ी सभी भाइयों का विवाह भी उसी मण्डप में उसी रीति से होता है। आज महाराज दशरथ धन्य हो गये हैं- मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहार, ज्यों पाये महिपाल मणि क्रियन सहित फल चार।
यहाँ तुलसी ने ‘क्रियन सहित फल चार’ की उपमा से पूरे मानस और राम कथा को समझने की अलौकिक कुंजी दे दी है। दशरथ के चारों पुरषार्थ अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष सभी आज क्रियाशील हो गये हैं। शत्रुघ्न अर्थ हैं और उनकी पत्नी श्रुतिकीर्ति वेदों की कीर्ति। वेदों का मूल यज्ञ है। यज्ञ में सबको उसके अंश के हविश्य की आहुति अग्नि को समर्पित की जाती है। यह वितरण की क्रिया है। दान की प्रक्रिया है। अर्थ वितरण के लिए है, संचय और दिखावे के लिए नहीं। पूरे मानस में तुलसी शत्रुघ्न को एक शब्द नहीं बोलने देते। कहते हैं कि जहाँ अर्थ बोलता है, वहाँ अनर्थ होता है। रामराज्य में अर्थ मौन रहेगा।
नाम शत्रुघ्न है, पर वे किसी का वध नहीं करते। लेकिन अयोध्या की मूल शत्रु मन्थरा, मूर्तिमान लोभ है और लोभ पर प्रहार शत्रुघ्न ही करते हैं। प्रहार भी ऐसा कि मुँह से रक्त निकल जाता है। लोभ का रक्त निकाल, शत्रुघ्न उसे विरक्त बना देते हैं। लोभ प्रेरित लाभ की तृष्णा शत्रुता की मूल है- जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई। हमारे यहाँ लाभ नहीं, शुभ लाभ की कामना की गई है।
भरत मूर्तिमान धर्म हैं। शत्रुघ्न उन्ही के अनुगामी हैं। धर्मानुरागी अर्थ का यह रूपक देखिये! अर्थात धर्म के रास्ते ही अर्जन हो और धर्म के निर्वाह में ही व्यय। सदविवेक से आना और खर्च होना ही समीचीन है। भरत एकदम राम जैसे हैं- अनुहारी। उनकी प्रतिच्छाया हैं। और राम प्रेम के मूर्तिमान स्वरूप। धर्म का मूल स्वरूप ही राम रूपी समस्त अच्छाइयों से अनुराग है, उनको जीवन में धारण करने में है, सबकी भलाई में है। परिणामस्वरूप भौतिक सुखों की लालसा का त्याग करना होता है। अयोध्या के सिंहासन का भी। ‘प्रेममूर्ति भरत’ और ‘धर्मसार भरत’ में अद्भुत वर्णन पंडित राम किंकर महाराज ने किया है।
भरत वास्तव में धर्म के सार हैं। वे मोह रूपी कैकेयी पर कठोर वचन प्रहार कर, उन्हें राम प्रेम की ओर ले जाते हैं। मोर-तोर के मोह से उठाकर भगवान से सम्मोह कराते हैं। वे राम से मिलने अकेले चित्रकूट नहीं जाते, पूरे अयोध्या के समाज को भगवदप्राप्ति कराते हैं, मोह में भगवदविमुख हुई कैकेयी को भी। धर्म केवल अपने तक सीमित नहीं रहता, वह सबको धारण करता है। तभी इस भरत का भारत बोलता है- वसुधैव कुटुम्बकम्।
मुझे तो यह भारत राम के भाई भरत का ही लगता है। जब राम गद्दी पर बैठते हैं, तो राज-छत्र लेकर वे सिंहासन के पीछे खड़े होकर राम को ही छाया नहीं करते, वरन अपने सहित समस्त दरबार और पूरे समाज को राम की छत्र छाया में ला देते हैं।
अयोध्या में 14 वर्षों तक राम खड़ाऊँ की आराधना के साथ उनकी तपस्या वहाँ के लोगों का परिष्कार करती है, जिससे रामराज्य का सुदृढ़ मानसिक धरातल तैयार होता है। उस धरातल के सिंहासन पर राम विराजमान होते हैं और रामराज्य आता है। धर्म द्वारा बिना जन मानस के परिष्कार के रामराज्य आ ही नहीं सकता। यानी प्रेम और धर्ममूर्ति भरत, रामराज्य के मूल कारक हैं।
राम तो साक्षात मोक्ष हैं। उसके बाद तो पुरुषार्थ उन्हीं में समाहित हो जाता है। उसकी क्रिया शान्ति रूपी सीता हैं। राम ब्रह्म हैं। वे द्रष्टा हैं, कर्ता हैं ही नहीं। रामराज्य की स्थापना के लिए भी नहीं। कृष्ण भी पूर्ण ब्रह्म थे, परन्तु वहां रामराज्य नहीं आया। महाभारत हुआ, रामायण नहीं हुई। क्योंकि कोई भरत नहीं था।
रामराज्य लाने का प्रयास दशरथ ने भी किया था और लाते-लाते कैकेयी के सौंदर्य व प्रेम वासना के वशीभूत होकर रामराज्य को चौदह वर्ष का बनवास दे दिया था। वे भगवान के पिता थे, परन्तु व्यक्ति के नाते उनमें भी कमियाँ थीं। सबमें होती हैं। दशरथ को राम से अनन्य प्रेम था। लेकिन राम और काम प्रेम के विसंगति की क़ीमत उन्हें कामी शरीर का त्याग करके चुकानी पड़ी। राम में खुद को विलीन कर देना पड़ा।
अब न तो कोई राजनेता और न ही कोई भगवान रामराज्य लायेगा। वह तो धर्ममूर्ति भरत ही लोगों के मानसिक धरातल का परिष्कार करके ला सकते हैं। यदि जनता की सोच का वैसा परिष्कार हो गया तो वह राम के अलावा किसी अन्य को राज सिंहासन पर बैठायेगी ही नहीं। जिसको बैठना होगा, उसे हर हाल में राम की योग्यता प्राप्त करनी होगी। समाज के डिज़र्वेंस का स्तर सुधारकर ही गवर्नेंस को सुधारा जा सकता है।
गाँधी जब रामराज्य की बात करते थे तो स्वयं अपने को भरत की भूमिका में ही रखते थे। तमाम समाज सुधारक भरत के कार्य को ही आगे बढ़ाते रहे हैं। यह भारत ही नहीं, पूरे विश्व में उस आदर्श की सोच लाने की बात है। यही वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना है। यह सनातन सार्वभौमिक धर्म की बात है, केवल किसी एक पंथ या संप्रदाय की नहीं।
अर्थ, धर्म और मोक्ष के चिन्तन में काम की बात रह ही गई। विवाह में भी कोहबर और जेवनार बाक़ी रह गया। बारात अभी जनकपुर से जाने की जल्दी में भी नहीं है। लक्ष्मण मूर्तिमान काम हैं। सौन्दर्य के प्रति आकर्षण ही काम है और सौंदर्य के सृष्टिकर्ता से सुन्दर कुछ नहीं है। राम सौंदर्य की सीमा है, शास्वत हैं, लक्ष्मण उनके परम अनुगामी हैं। राम रूपी सौंदर्यानुगामी काम का यह रूपक देखने योग्य है।
महाराज दशरथ सहित सभी बाराती विवाह सम्पन्न होने के बाद जनवासे लौट आये हैं। चारों दूल्हे कोहबर में मधुर हास विलास का आनन्द ले रहे हैं। उन्हें आनन्द लेने दीजिये, तब तक कुछ काम की बात हो जाये। लक्ष्मण रामानुगामी काम हैं, योगी हैं। योग यानी जोड़। आत्मा का परमात्मा से अनन्य, शाश्वत जुड़ाव। वे इंद्रियजीत हैं। कहते हैं कि वनवास के चौदह सालों में अहर्निश भगवान की सेवा में कभी सोये ही नहीं। वे वासनामूलक काम पर प्रहार करते हैं। पिता दशरथ को भी नहीं बख्शते हैं। मंत्री सुमन्त को श्रृंगवेरपुर में पिता दशरथ के लिए भी खरी-खोटी सुना देते हैं। वे वासना में डूबी सूपनख़ा की नाक काटते हैं। उसकी वासना के नाखून सूप जैसे हैं। आज भी नाखूनों को बड़ा और सौंदर्यवान बनाकर शारीरिक सौंदर्य दिखाने का प्रचलन है। शारीरिक सौंदर्य साधना जब सूप जैसी बड़ी हो जाती है तो नाक कटती ही है। समाज तिरस्कृत करता ही है। बेइज़्ज़ती होती ही है। समाज के मर्यादा रूपी राम इसे दंडित करते ही हैं। सामाजिक मर्यादा को बनाए रखने के आग्रही साधक दण्ड देते ही हैं।
इंद्रियजीत ही इंद्रजीत का वध कर सकता है। रावण के बेटे मेघनाद के पास देवताओं के राजा इंद्र से भी ज़्यादा भोग संसाधन थे। वह परम मायावी भी था। योगी लक्ष्मण उसकी सारी मायाओं को काटकर उसका बध करते हैं। लक्ष्मण विलक्षण हैं। राम की यश पताका के मज़बूत दण्ड हैं। यह दण्ड ही राम की शील पताका, सनातन काल से विश्व में फहरते रहने का आधार है। वे राम प्रेम पीयूष का पान करने वाले दुधमुँहे बच्चे हैं। वे चातक चतुर श्याम घन हैं। चातक पक्षी के बारे में मान्यता है कि वह केवल स्वाति नक्षत्र के वर्षा जल का पान कर अपनी प्यास बुझाती है। गंगा का पवित्र जल भी उसे स्वीकार नहीं है। यह प्रेम साधना की पराकाष्ठा है।
और अब कोहबर के बाद खिचड़ी जेवनार। विवाह और कोहबर के बाद सभी वर वधू जनवासे आते हैं। नई बहुएँ अवधपुर के परिवारों से परिचित होती हैं। हमारे यहाँ तो बहुएँ जेवनार खिचड़ी और माड़व हिलाई के बाद वर के साथ ससुराल आकर ही वहाँ के लोगों से परिचित हो पाती हैं। माड़व हिलाई विवाह की पूर्णता का लड़के के पिता का उद्घोष होता है। जेवनार खिचड़ी पर दूल्हे का मुँह जूठा करने का अवसर होता है। इसे कहा तो खिचड़ी जाता है, पर छप्पनों व्यंजनों की भरमार होती है।
जनकपुर की सुन्दर और कोकिलकंठी स्त्रियाँ अपने गाली गीतों के सुमधुर गान से माहौल हल्का और ख़ुशनुमा करती हैं- पंच कवल करि ज़ेवन लागे, गारि गान सुनि अति अनुरागे। बहन शांता के शृंगी ऋषि से विवाह को लेकर तो बहुत सारे गाली गीत गाये जाते हैं। हास विकास के माहौल में बारात कुछ दिन और जनकपुर में रुकी रहती है। जनकपुर की स्त्रियाँ दूल्हों के सौंदर्य रस से अघा ही नहीं रही हैं। वे बार-बार एक ही विनती कर रही हैं- हे पहुना! मिथिलेपुर में रहु ना, जो आनन्द विदेहनगर में, देहनगर में कहुं ना।
ये स्त्रियाँ राम को बस एक महीने की सेवा, उबटन और हल्दी लेप की मालिश से सांवले से गोरा कर देने का लालच भी देती हैं। वे अपने साथ जलक्रीड़ा से लेकर नृत्यादि बहुत कुछ का लालच देती हैं। वे कहती हैं कि एक महीने में आपको अवधपुर अपने आप ही भूल जायेगा।
प्रेमरस में डूबा रसिक भक्त भला कब भगवान को छोड़ना चाहता है! अयोध्या में आज भी मिथिला के सखी भाव वाले रसिक सम्प्रदाय के भक्तों की बहुत बड़ी संख्या है। कई सारे स्थान हैं। वहाँ कुछ समय रुककर उस प्रेम रस के आनंद का अनुभव किया जा सकता है।
-रामनारायण सिंह
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