महात्मा गांधी के विचारों एवं राजनीतिक गतिविधियों में सांप्रदायिक सद्भाव एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। उनके विचारों में यह भावना यत्र-तत्र मिलती है। सांप्रदायिक एकता उनके विचारों में बहुत पहले जन्म ले चुकी थी, जिसके संबंध में गांधी जी ने भारत-विभाजन के एक माह पश्चात अपने एक मित्र को लिखे पत्र में स्वयं के विचार अभिव्यक्त किये थे। उक्त पत्र में उन्होंने लिखा था कि सांप्रदायिक सद्भाव उनके जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। यह भावना तब जन्म ले चुकी थी, जब उनके खद्दर तथा ग्रामीण उद्योग संबंधी विचारों का जन्म भी नहीं हुआ था। जब वे केवल 12 वर्ष के थे और उन्होंने अंग्रेजी पढ़ना आरंभ ही किया था, उसी समय उनके अंदर सांप्रदायिक एकता की भावना जन्म ले चुकी थी। उन्होंने अनुभव किया कि हिन्दू, मुसलमान सब एक ही भूमि की संतान हैं और वे पूर्ण भ्रातृत्व की भावना के प्रति वचनबद्ध हैं। ये विचार उनके अंदर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बहुत पूर्व जन्म ले चुके थे।
सांप्रदायिक सद्भाव रखने वाले गांधीजी ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने के बहुत समय पूर्व ही हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य के प्रति अपने उद्गार ‘हिन्द स्वराज’ नामक लघु पुस्तिका में अभिव्यक्त कर दिये थे। ‘हिन्द स्वराज’ में अभिव्यक्त उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। उन्होंने लिखा कि भारत सदैव से एक राष्ट्र रहा है। उसका यह स्वरूप खत्म नहीं हो सकता। जो भी नये लोग यहां आये, वे राष्ट्र के स्वरूप को तोड़ नहीं सके, बल्कि उसी में घुलमिल गये। जब ऐसा हो तभी कोई देश राष्ट्र माना जायेगा। ऐसे देश में दूसरे लोगों का समावेश करने का गुण होना चाहिए। भारत ऐसा ही था और आज भी है। यों तो यहां जितने व्यक्ति हैं, उतने धर्म मानने वाले हैं। एक राष्ट्रीयता की भावना के प्रति सचेत लोग एक-दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते। यदि वे दखल देते हैं, तो यह समझना चाहिए कि वे एक राष्ट्र होने के लायक नहीं है। अगर हिन्दू मानें कि सारा भारतवर्ष सिर्फ हिन्दुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें तो उसे सपना ही समझिए। हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक-दूसरे के हित के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा। विश्व के किसी भी भाग में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं माना गया है, भारतवर्ष में तो ऐसा था ही नहीं।
इस प्रकार के सांप्रदायिक सद्भाव में अटूट विश्वास रखने वाले गांधी जी का सक्रिय राजनीति में प्रवेश तथा भारतवर्ष में खिलाफत आंदोलन का जन्म (1919) लगभग साथ-साथ हुआ, यह भी एक संयोग था। यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना थी, साथ ही गांधी जी के सांप्रदायिक सद्भाव का परीक्षण भी था। यह सर्वविदित है कि खिलाफत आंदोलन मूलत: मुस्लिमों की धार्मिक भावना से जुड़ा हुआ था। खिलाफत का प्रश्न विशुद्ध रूप से वैश्विक इस्लाम की बंधुत्व भावना से प्रेरित था, जिससे मुस्लिम समाज उद्वेलित था। भारतीय मुसलमानों के बहुसंख्यक वर्ग ने राष्ट्रीय स्तर पर 1919 के प्रारंभिक वर्षों में खिलाफत आंदोलन का सूत्रपात किया था, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार पर दबाव डालना था कि तुर्की के साथ होने वाली संधि में उसके साथ न्यायोचित व्यवहार हो सके। कारण, भारतीय मुसलमान तुर्की के सुल्तान को अपना खलीफा मानते थे।
1915 में दक्षिण अफ्रीका से वापस आने के बाद भी महात्मा गांधी सक्रिय राजनीति से दूर रहे। यह अवश्य है कि उन्होंने चंपारण के नील आंदोलन, अहमदाबाद के मिल-श्रमिकों की हड़ताल तथा खेड़ा के कृषक आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया था। परंतु इन आंदोलनों का स्वरूप स्थानीय था। 1919 का वर्ष भारतीय राजनीति में विशेष महत्त्व का था, जब महात्मा गांधी ने रौलट सत्याग्रह के लिए देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया था। रॉलैट सत्याग्रह के साथ खिलाफत कान्फ्रेंस का जुड़ना भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। खिलाफत आंदोलन से संबद्ध उल्मा एवं अन्य लोग रौलट सत्याग्रह से जुड़े और 1922 में असहयोग आंदोलन के स्थगन के बाद हिन्दू-मुस्लिम एकता का जो दौर चला, वह राष्ट्रीय आंदोलन के बाद के चरणों में उतना प्रभावशील न रहा।
रौलट सत्याग्रह में संचालित की जाने वाली हड़तालों में गांधीजी ने ऐसे कार्यक्रम रखे, जिनसे मुस्लिम जनों की धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुंचे। यही कारण है कि खिलाफत के प्रश्न पर नाराज भारतीय मुस्लिम गांधी जी के आवाहन पर चलाये गये रौलट सत्याग्रह में भाग लेने के लिए बहुत उत्साहित हुए। उनका यह उत्साह 6 अप्रैल, 1919 में बम्बई में गांधी जी के नेतृत्व में हुई सभा में दृष्टिगत होता है। वह सभा बम्बई के एक मस्जिद के सामने हुई थी, जिसमें 5 हजार मुसलमान मौजूद थे। ये मुसलमान, सद्भावना के साथ हिन्दुओं से मिले। गांधीजी, सरोजिनी नायडू, जमनादास, द्वारिकादास तथा दूसरे नेता झरोखे में लाये गये।
महात्मा गांधी उस सभा के विशेष आकर्षण थे। उन्होंने अपने भाषण में हिन्दू-मुस्लिम मित्रता पर विशेष बल दिया। इसी सभा में उन्होंने सत्याग्रह की शक्ति और महत्ता के बारे में बताया। सत्याग्रह में वह शक्ति है कि वह भारतवर्ष के दो प्रमुख समुदायों को एकता के सूत्र में बांध सकती है। हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे के साथ भाई की तरह व्यवहार करना चाहिए। हिन्दुओं को मुसलमानों के संकट के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए तथा मुसलमानों को भी हिन्दू भाइयों की तकलीफों के साथ उसी प्रकार की सहानुभूति रखनी चाहिए। उन्हें अपनी मित्रता को सुदृढ़ रखना चाहिए तथा जो भी वैचारिक मतभेद हों, उन्हें समाप्त करना चाहिए।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए कृतसंकल्प गांधीजी ने इस दौरान बहुत कुछ लिखा। 8 अप्रैल, 1919 में सत्याग्रह से संबंधित मुक्त विचार-पत्र (Pamphlet) ‘The vow of Hindu-Muslim Unity’ में उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों को एकता के सूत्र में बंध जाने का आवाहन किया। उन्होंने लिखा कि यह एकता तभी वास्तविकता बन सकती है, जब दोनों ही समुदाय अपनी बहुत सी बातों का परित्याग कर दें। इसके लिए उन्हें अपने विचारों में मौलिक परिवर्तन करना होगा। एक समुदाय के लोग जब दूसरे समुदाय के सदस्यों के संबंध में कुछ कहते हैं तो अशिष्ट शब्दों का प्रयोग करते हैं, इससे दोनों के बीच संबंध बिगड़ जाते हैं।
महात्मा गांधी यह मानते थे कि दोनों समुदायों के बीच संबंधों को बिगाड़ने में कहावतों का बहुत योगदान रहा है। ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने लिखा था कि ‘मियां और महादेव की नहीं बनती’ जैसी कहावतों को ऐसा ही समझना चाहिए। कुछ कहावतें हमेशा के लिए रह जाती हैं और नुकसान करती ही रहती हैं। हम कहावत की धुन में इतना भी याद नहीं रखते कि बहुतेरे हिन्दुओं और मुसलमानों के पूर्वज एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला, इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गये? धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं। हम दोनों अलग-अलग रास्ते लें, इससे क्या हो गया? उसमें लड़ाई किस बात की?
यही नहीं, गांधीजी बताते हैं कि ऐसी कहावतें भारतीय समाज में अलग-अलग धार्मिक मतों को मानने वालों में भी प्रचलित हैं। ‘हिन्द स्वराज’ में ही वे लिखते हैं कि ऐसी कहावतें तो शैवों और वैष्णवों में भी चलती हैं, पर इससे कोई यह नहीं कहेगा कि वे एक राष्ट्र नहीं हैं। वैदिक धर्म और जैन मत के बीच बहुत अंतर माना जाता है, फिर भी इससे वे एक अलग राष्ट्र नहीं बन जाते। हम गुलाम हो गये हैं, इसीलिए हम अपने झगड़े तीसरे के पास ले जाते हैं। जैसे मुसलमान मूर्ति का खंडन करने वाले हैं, वैसे ही हिन्दुओं में भी मूर्ति का खंडन करने वाला एक वर्ग देखने में आता है। ज्यों-ज्यों सही ज्ञान बढ़ेगा, त्यों-त्यों हम समझते जायेंगे कि हमें पसंद न आने वाला धर्म दूसरा आदमी पालता हो, तो भी उससे बैर भाव रखना हमारे लिए ठीक नहीं, हम उस पर जबरदस्ती न करें।
रौलेट सत्याग्रह के दौरान गांधीजी ने दोनों संप्रदाय के लोगों से आग्रह किया था कि ईश्वर को साक्षी मानते हुए हम हिन्दू और मुसलमान यह घोषित करें कि हम एक दूसरे के प्रति ऐसा व्यवहार करेंगे कि हम एक ही मां-बाप की संतान हैं, कि हम लोगों में कोई भेद नहीं होंगे, कि एक का दुख दूसरे का दुख होगा तथा यह कि एक-दूसरे का दुख दूर करने में परस्पर सहयोग करेंगे। हम एक दूसरे के धर्म और धार्मिक भावनाओं का सम्मान करेंगे तथा दोनों की धार्मिक प्रथाओं के मार्ग में कोई अवरोध नहीं उत्पन्न करेंगे। हम एक दूसरे के धर्म के नाम पर हिंसा से दूर रहेंगे।
महात्मा गांधी खिलाफत आंदोलन के शीर्षस्थ नेताओं की धार्मिक कट्टरता को देख चुके थे। फिर भी वे एक राष्ट्र की भावना के तहत मुस्लिम संप्रदाय के निजी हितों को देखते हुए उन्हें पूर्ण सहयोग देना चाहते थे। गांधीजी का मानना था कि शक्तिशाली ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जन आंदोलन चलाने के लिए मुस्लिम संप्रदाय का सहयोग लेना आवश्यक है। यहां यह बताना आवश्यक है कि गांधीजी ने ‘असहयोग’ शब्द का प्रयोग पहली बार दिल्ली में 23 नवंबर, 1919 में अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन में किया था। इस सम्मेलन की अध्यक्षता गांधीजी ने ही की थी और यहीं असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम की व्याख्या की थी।
गांधीजी ने 4 मई, 1920 को मगनलाल गांधी को लिखे पत्र में इस भावना को स्पष्ट किया कि यदि वे खिलाफत आंदोलन में सम्मिलित नहीं होते तो वे अपना सब कुछ खो बैठते। इस आंदोलन में सम्मिलित होकर उन्होंने अपने धर्म का पालन किया। इस आंदोलन के माध्यम से वे अहिंसा की वास्तविक प्रवृत्ति दिखाना चाहते थे। वे हिन्दुओं और मुसलमानों के मध्य एकता स्थापित कर रहे थे। वे यह समझते थे कि असहयोग आंदोलन सही ढंग से चलता है तो पशु शक्ति पर आधारित महान शक्ति को साधारण सी दिखने वाली शक्ति के आगे समर्पण करना होगा। खिलाफत आंदोलन ने भारत के समाज में मंथन कर दिया। इस संबंध में भारतीयों को यह चिन्ता नहीं होनी चाहिए कि इसके क्या परिणाम निकलेंगे।
गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन में सम्मिलित होने का कारण स्पष्ट किया कि यदि वे मुसलमानों को अपना भाई मानते हैं तो उनका कर्त्तव्य है कि उनके संकट के समय उनकी हर संभव सहायता की जाय। गांधीजी ने स्पष्टत: कहा कि यह उनके नैतिक दायित्व की भावना थी, जिसके कारण उन्होंने खिलाफत के प्रश्न को उठाया और अपने आपको मुस्लिमों से जोड़ा।
गांधीजी दिलों की एकता की विचारधारा में दृढ़ विश्वास रखते थे। वे नहीं चाहते थे कि हिन्दू-मुस्लिम एकता पैबंद लगी हुई हो। इसीलिए उन्होंने खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के पीछे मुसलमानों के सामने गौहत्या न करने की शर्त नहीं रखी थी। गौहत्या को निषेधित करने का प्रस्ताव मुस्लिम लीग के अमृतसर अधिवेशन में पारित करना मुस्लिम लीग का ही विचार था। मुस्लिम लीग का यह प्रस्ताव हिन्दुओं का समर्थन प्राप्त करने के लिए पारित किया गया था। अखिल भारतीय खिलाफत कान्फ्रेंस के दिल्ली अधिवेशन में दिये गये भाषण में गांधीजी ने स्पष्टत: कहा था कि वे चाहेंगे कि हिन्दू गौ-रक्षा के प्रश्न को नहीं उठायें, क्योंकि मित्रता का सही परीक्षण संकट के समय में ही होता है और वह भी बिना शर्त की मित्रता। सहयोग, जो कि शर्त पर आधारित हो, व्यावसायिक अनुबंध है न कि मित्रता।
यद्यपि गांधीजी ने खिलाफत आंदोलन को धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान करने का प्रयास किया था, तथापि इस आंदोलन से जुड़े प्रमुख नेता इस्लाम की विधि का कट्टर रूप से अनुपालन करते थे। उदाहरण के लिए खिलाफत आंदोलन के नेता धर्म के नाम पर अपील करते थे और फतवा एवं अन्य धार्मिक प्रतीकों का भरपूर प्रयोग करते थे। परिणाम यह हुआ कि पुराणपंथ की पकड़ मजबूत हुई और राजनीतिक प्रश्नों को धार्मिक दृष्टि से देखने की आदत पड़ गयी। वह तो गांधीजी का ऐसा व्यक्तित्व था कि वे खिलाफती नेताओं की धार्मिक असहिष्णुता को सहन किये हुए थे। गांधीजी का यह मानना था कि शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती देने के लिए हिन्दुओं और मुस्लिमों का एकजुट होना अति आवश्यक है।
वस्तुस्थिति तो गांधी जी भी जानते थे कि खिलाफत आंदोलन मूलत: तुर्की की समस्या से जुड़ा हुआ था। फिर भी गांधीजी ने बिना शर्त के मुस्लिमों की भावनाओं का सम्मान करते हुए, उन्हें सहयोग किया। तुर्की में जैसे ही मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की स्थापना हुई, वैसे ही भारतवर्ष में खिलाफत आंदोलन प्रभावहीन हो गया। खिलाफत आंदोलन के बहुत से नेताओं के स्वर सांप्रदायिक हो गये थे। असहयोग आंदोलन के स्थगन के पश्चात अवसाद और निराशा के वातावरण में हिन्दू और मुस्लिम सांप्रदायिक संगठन सक्रिय हुए। इस दौर में हिन्दुओं के बीच संगठन और शुद्धि तथा मुसलमानों में तंजीम और तबलीग आंदोलन चले। इन आंदोलनों का उद्देश्य सांप्रदायिक था। फलत: 1923-24 में उत्तर भारत के अनेक शहरों में सांप्रदायिक दंगे हुए। गांधी जी ने सांप्रदायिक दंगों और हिंसा के लिए दोनों समुदायों को फटकारा। उन्होंने कहा कि दोनों समुदाय कायर हैं और इस कायरता के कारण ही सरकार दोनों संप्रदायों को दास की तरह देखती है।
महात्मा गांधी इस प्रकार के धार्मिक उन्माद तथा हिंसा से बहुत क्षुब्ध थे। उनका मानना था कि अहिंसा ही ऐसा मार्ग है, जिससे हमारे धर्म और देश की रक्षा हो सकती है। कोई भी धर्म तलवार की शक्ति पर न तो स्थाई रह सकता है और न रहेगा। इस्लाम फकीरों की शक्ति पर और हिन्दू धर्म तपस्वियों की शक्ति पर जिन्दा है। आज लगभग एक शताब्दी बीत जाने के बाद, इक्कीसवीं शती के दूसरे दशक में भी धर्म, तलवार की शक्ति पर ही जीवित है, यह गांधीजी की कल्पना के भारत की तस्वीर नहीं हो सकती।
-प्रोफेसर आभा नवनी
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