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अपने-अपने आइने! अपने-अपने गांधी!!

लिबरल हो या मार्क्सवादी, सावरकर के अनुचर हों या नेहरू के, सब गांधी की सोच को दक़ियानूसी, विज्ञान विरोधी करार देने पर आमादा थे (और आज भी हैं)। पश्चिमी शिक्षा और सोच से लैस देश का बुद्धिजीवी आज भी गांधी को ‘एक अच्छा इंसान, महात्मा और राष्ट्रपिता’ मानता है, लेकिन उसे ‘पुराना मॉडल’ समझ कर अनदेखा कर देता है। क्योंकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी इस युग का इंजिन है, जिसे गांधी समझ नहीं सके, ऐसा माना जाता है। आइए, समझें कि वास्तविकता क्या है।

 

दूर की सोचने वाला व्यक्ति अपने जीवन काल में अक्सर गलतफहमियों का भी शिकार होता है। उसे जो दिखाई देता है, वह जन सामान्य की निगाहों की पहुँच से काफी दूर होता है, इसलिए उसे न केवल गलत समझा जाता है, बल्कि उस का मखौल भी उड़ाया जाता है। कई ठोकरें खाकर मानवता जब उस मुकाम पर पहुँचती है, जिसे उस युगंधर ने देखा था, तब जाकर वह अपनी सोच की पुनर्समीक्षा करने पर मजबूर होती है. इसकी जीती जागती मिसाल है, गाँधी और विज्ञान पर बनी आम समझदारी.

इस की शुरुआत हुई 1909 में, जब गांधी जी ने ‘हिन्द स्वराज’ लिखी। यह पुस्तक पश्चिमी सभ्यता पर एक करारी चोट थी; प्रौद्योगिकी तो बस उस सभ्यता की उपज मात्र थी। लेकिन समकालीनों ने उसे विकास, प्रौद्योगिकी और विज्ञान पर किया हुआ हमला माना। आल्डस हक्सले ने, जो उस जमाने के महत्त्वपूर्ण विचारक माने जाते थे, लिखा कि टॉलस्टॉय और गाँधी जी के अनुयायी हमें प्रकृति की ओर लौटने को, दूसरे शब्दों में विज्ञान को छोड़कर आदिम मानव जैसे रहने को कहते हैं. दिक्कत यह है कि इस सूचना पर अमल किया नहीं जा सकता. विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने मानवी जनसंख्या को दुगुनी होने में मदद की है. ये लोग तो उस का संहार करने को कहेंगे. इनकी तुलना में तो चंगेज खान और तैमूर लंग भी फीके पड़ जाएंगे। गांधी पर तीखी टिप्पणियों का यह सिलसिला तेजी से आगे बढ़ा। लिबरल हो या मार्क्सवादी, सावरकर के अनुचर हों या नेहरू के, सब गांधी की सोच को दक़ियानूसी, विज्ञान विरोधी करार देने पर आमादा थे (और आज भी हैं)। पश्चिमी शिक्षा और सोच से लैस देश का बुद्धिजीवी आज भी गांधी को ‘एक अच्छा इंसान, महात्मा और राष्ट्रपिता’ मानता है, लेकिन उसे ‘पुराना मॉडल’ समझ कर अनदेखा कर देता है। क्योंकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी इस युग का इंजिन है, जिसे गांधी समझ नहीं सके, ऐसा माना जाता है। आइए, समझें कि वास्तविकता क्या है।


पहले तो हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बीच के फर्क को समझें। विज्ञान यानी वैज्ञानिक पद्धति, यह सत्य की ओर जाने का एक तरीका है. जो प्रयोग, निरीक्षण और उस पर आधारित निष्कर्षों पर आधारित है। यह प्रकृति के रहस्यों/नियमों को खोजने का रास्ता है। हर कोई इसे अपनाकर अपने सवालों के जवाब ढूंढ सकता है। गांधी जी को इस से कोई आपत्ति नहीं थी, बल्कि वे अपने आप को विज्ञान प्रेमी और वैज्ञानिक मानते थे। प्रौद्योगिकी के माने होते हैं इन प्राकृतिक नियमों का उपयोजन। गति के नियम, थर्मोडायनामिक्स आदि विज्ञान है और मोटर कार से लेकर अवकाश यान, मोबाइल फोन जैसे उपकरण ये प्रौद्योगिकी के कुछ उदाहरण हैं। गांधी जी सिंगर की सिलाई मशीन जैसे अन्वेषणों के समर्थक थे, लेकिन उत्पादन की प्रक्रिया से मनुष्य को बेदखल करने वाले प्रौद्योगिकी के खिलाफ थे। इंग्लैंड की कपड़ा मिलें, भारत के कच्चे माल का शोषण करती हैं, साथ ही लाखों बुनकरों की जीविका उन से छिनती है, इसलिए उन्होंने मिल के कपड़े का विरोध किया। लेकिन प्रौद्योगिकी के बिना हम जी नहीं सकते, इस बात से वे वाकिफ थे। इसलिए उन्होंने खादी को वैकल्पिक प्रौद्योगिकी रूप में पेश किया। आज दुनिया पर्यावरणीय संकट से गुज़र रही है। क्योंकि प्रौद्योगिकी का सारा विकास पेट्रोलियम उत्पादों पर निर्भर रहा है। तापमान परिवर्तन की आज की त्रासदी उसी का परिणाम है। आज दुनिया भर के वैज्ञानिक जब प्रौद्योगिकी और विकास के इस मॉडल का विकल्प ढूंढते हैं, तब उन्हें उसका आधार गांधी दर्शन में ही मिलता है।

गांधी : एक विज्ञान प्रेमी
गांधी अपने आप को सत्य की खोज में निकला एक यात्री मानते थे। विज्ञान भी सत्य को खोजने का रास्ता है और वैज्ञानिक पूरी लगन से सत्य की खोज में जुटे रहते हैं, इसलिए वे विज्ञान और वैज्ञानिक दोनों के कायल थे। उस जमाने के भारत के शीर्षस्थ वैज्ञानिक- जगदीशचन्द्र बोस, प्रफुल्लचन्द्र रे तथा सीवी रामन से उनकी व्यक्तिगत मित्रता थी। इतना ही नहीं, ये सभी वैज्ञानिक गांधी जी द्वारा स्थापित अखिल भारतीय खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के सदस्य भी थे। गांधी जी ने यह बोर्ड इसलिए बनाया था कि विज्ञान की मदद से गाँव के गरीबों की उन्नति हो सके तथा ग्रामोद्योगों का विकास कर गाँव आत्मनिर्भर बन सकें। कई विदेशी वैज्ञानिकों से उनका संपर्क और संवाद था। मादाम मेरी क्यूरी की किताब पढ़कर वे अभिभूत हुए और तुरंत सुशीला नय्यर से उसका अनुवाद करने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि मेरी क्यूरी एक तपस्विनी है और हम सब लोगों को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। दक्षिण अफ्रीका में रहते वक़्त ‘इंडियन ओपिनियन’ पत्रिका में उन्होंने इटली के वैज्ञानिक मेतुसी की प्रशंसा में एक लेख लिखा था। मेतुसी एक जागृत ज्वालामुखी के पास रहकर उसका अध्ययन करते थे और अपने निरीक्षण दुनिया भर के वैज्ञानिकों से साझा करते थे। यह काम वे स्वप्रेरणा से, बिना किसी दबाव या लालच के करते थे। ज्वालामुखी फटने से लगभग सौ लोगों की मृत्यु हो चुकी थी, फिर भी अपनी जान पर खेलकर वे यह काम पूरी लगन से करते थे। पाठकों को यह जानकारी देकर गांधीजी लिखते हैं, ‘मैं उनके असामान्य धैर्य को प्रणाम करता हूँ और उनके कार्य से अपने ध्येय की पूर्ति के लिए ऐसा ही साहस दिखाने की प्रेरणा हिंदुस्तान और दक्षिण अफ्रीका के लोगों को मिले,यह आशा करता हूँ।’

1935 में कॅरल हुजेर नाम का विख्यात खगोल वैज्ञानिक बनारस आया हुआ था, यह खबर सेवाग्राम गांधीजी तक पहुंची। उन्होंने उसे सेवाग्राम आने का निमन्त्रण भेजा। उस के आगमन के पश्चात आश्रम में दो सप्ताह तक रोज उसके भाषण का आयोजन किया गया। विषय था–‘खगोल विज्ञान का तत्वचिंतन और उसके आयाम’ और श्रोता थे- आश्रमवासी अबालवृद्ध। उसके पश्चात उन्होंने कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में भी हुजेर के दो व्याख्यानों का आयोजन करवाया। उनका मानना था कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को राजनैतिक समझ के साथ आधुनिक विज्ञान की गतिविधियों का भी ज्ञान होना चाहिए। उस शताब्दी के सब से महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टाइन से उनका गहरा संवाद था और वे गांधी जी से मिलने सेवाग्राम आने वाले थे।

गांधी: एक वैज्ञानिक
गांधी जी खुद को नेता, संत या राजनीतिज्ञ के बजाय एक वैज्ञानिक कहलवाने में गर्व महसूस करते थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा का शीर्षक ‘सत्य के प्रयोग’ रखा, उसके पीछे भी यही प्रेरणा थी। उन्होंने किसी भी बड़े विचारक, दार्शनिक या संत की बात को आँखें मूँदकर नहीं स्वीकारा, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में प्रयोग कर अपने सत्य का अन्वेषण किया। बात चाहे शिक्षा की हो या आहार की, स्वास्थ्य की हो या कृषि की, हर क्षेत्र में उन्होंने खुद कई सारे प्रयोग किए और अपने निष्कर्ष सभी लोगों के साथ बांटे। मैदे के बजाय आटा, शक्कर की जगह गुड़, खजूर या शहद तथा बिना पालिश अनाज व घानी के तेल का प्रयोग, ये बातें आज दुनिया भर में मानी जाती हैं। गांधी जी ने जब ये सवाल खड़े किए थे, तब उनका मज़ाक उड़ाया गया था। आज हम सब अन्न सुरक्षा की बात करते हैं। कीटनाशक तथा केमिकल से प्रदूषित अन्न खाने के बजाय, प्राकृतिक खेती के उत्पादों को चुनते हैं। जहर मुक्त खेती और प्राकृतिक तरीकों से भूमि को ‘सुजलाम, सुफलाम’ बनाने का जो आंदोलन देश और विश्व भर में जाग रहा है, उसकी प्रेरणा गांधी दर्शन ही है। स्वास्थ्य के मामले में उन्होंने देखा कि आयुर्वेद में कोई नया अनुसंधान नहीं हो रहा है। ऐलोपैथी तो मुट्ठी भर लोगों के लिए काम करती थी। तब उन्होंने खुद पर और अपने निकटवर्तियों पर प्रयोग किए और प्राकृतिक द्रव्यों की मदद से स्वास्थ्य प्राप्ति का एक नया विज्ञान खोज निकाला। उसका नाम था–प्राकृतिक चिकित्सा।

सामाजिक आंदोलन के क्षेत्र में सत्याग्रह और नवनिर्माण के क्षेत्र में नयी तालीम; ये दो बेहतरीन अन्वेषण गांधी जी के नाम दर्ज़ हैं। ये गांधी नामक वैज्ञानिक की मनुष्यता को दी हुई देन है। वे अपने आपको कर्मठ या सनातनी हिन्दू मानते थे। लेकिन सार्वजनिक या व्यक्तिगत जीवन में उन्होंने कभी किसी कर्मकांड, पूजापाठ, धार्मिक आडंबर या अंधविश्वास को पनाह नहीं दी, बल्कि उनका घोर विरोध किया। पशुबलि और अस्पृश्यता के सवाल उठाकर उन्होंने धार्मिक सत्ताओं को ललकारा। उन्हीं की प्रेरणा से महाराष्ट्र में तुकड़ोजी महाराज और गाडगे जी महाराज का आंदोलन खड़ा हुआ, जिस में जाति-पांति, कर्मकांड तथा अंधविश्वासों पर ज़बरदस्त प्रहार किए गए।

गांधी: विज्ञान समीक्षक
गांधी मूलतः एक आध्यात्मिक व्यक्ति थे। उनके लिए विज्ञान और अध्यात्म में कोई अंतर्विरोध नहीं था। वे जड़ दुनिया की खोज में विज्ञान और आंतरिक खोज में अध्यात्म के महत्त्व को पहचानते थे। विज्ञान के संबंध में उन्होंने दो मौलिक बातें रखीं. पहली यह कि विज्ञान सत्य की खोज का एक बेहद महत्त्वपूर्ण तरीका हैं, लेकिन वह एकमेव नहीं है। दूसरी यह कि अपने किए की नैतिक ज़िम्मेदारी न स्वीकारना विज्ञान की मर्यादा है। वैज्ञानिकों को अन्वेषण की अमर्यादित छूट नहीं है। उन्हें अखिल मानवता का हित तथा चराचर सृष्टि को क्षति न पहुंचाने के दायरे में काम करना होगा।
आज विज्ञान-प्रौद्योगिकी ने अमर्यादित उपभोग वाली दुनिया का निर्माण किया है, जिससे साधन-सम्पन्न लोगों की तृष्णा बढ़ती ही जाती है, साथ ही विषमता की खाई विकराल हो रही है। विज्ञान व्यापार के हाथ की कठपुतली बन कर रह गया है। व्यापक संहार के लिए नए-नए अस्त्र-शस्त्र ईज़ाद किए जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर निर्मल जल और आहार की कमी से हजारों शिशु मर रहे हैं। आज लोगों की जान से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है बड़ी कंपनियों का मुनाफा। पर्यावरण का संकट तो इतना गहराया है कि अगले पचास वर्षों में पृथ्वी से मानव जाति समाप्त हो जाएगी, ऐसी भविष्यवाणी विश्व के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों ने ही की है।

-रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ

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