आज असि की कोख तक निर्माण कर इमारतें तान दी गयी हैं। वाराणसी प्रशासन ने खुली छूट दे रखी है। छूट दे भी क्यों न, जब असि-गंगा संगम स्थल पर पूर्व में गंगा मंत्री रहीं उमा भारती से जुड़ा हुआ उडुपी मठ सीना तानकर खड़ा है! कोरोना की पिछली बंदी का फायदा उठा कर असि के किनारे बहुत तेजी से निर्माण हुए।कोरोना काल में घरों में रहने की मजबूरी, असि को पाटने वालों के लिए संजीवनी बन गयी।
मानव जीवन श्रेष्ठ है। अनमोल है। जिन पांच तत्वों के सम्मिश्रण से मानव शरीर की संरचना मानी जाती है,वास्तव में इन्हीं पांच तत्वों से जीवन संचालित भी होता है। इतिहास गवाह है कि मनुष्य अपनी बौनी आधुनिकता के सवाल पर या छद्म विकास के नाम परो लोभ, लालच और स्वार्थ के वशीभूत होकर इन्हीं का गला भी सबसे ज्यादा घोंटता है।
काशी, दुनिया की प्राचीनतम नगरी के रूप में जानी जाती है। काशी, वाराणसी और बनारस, ये तीन नाम शायद तीन अलग अलग कालखंडों को दर्शाते हैं। काशी को वाराणसी नाम यहां की दो नदियाें – वरुणा और असि ने दिया। वरुणा और असि के मेल से ही वाराणसी बना। काशी का मोक्ष क्षेत्र वाराणसी ही है। वरूणा से असि के बीच के ही क्षेत्र को मान्यताओं के मुताबिक मोक्षक्षेत्र कहते हैं। काशी एक धार्मिक नगरी है। पौराणिक मान्यताओं पर नजर डालें तो वामन पुराण के अनुसार वरुणा और असि के क्षेत्र को योगसायी का क्षेत्र कहा जाता है। असि नदी में स्नान से महादेव को ब्रह्म हत्या से मुक्ति मिली ऐसा वामन पुराण बताता है। काशी के असि घाट पर गंगा-असि संगम पर आज भी एक मंदिर है, असि संगमेश्वर मंदिर, जिस पर इसकी मान्यताओं का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि दुनिया के सारे तीर्थों से जो पुण्य मिलता है, उसके बराबर का पुण्य इस गंगा-असि संगम पर गोता लगाने मात्र से मिलता है।
धार्मिक आस्था से इतर अगर अगर देखें, तो असि इस शहर को बाढ़ काल में डूबने से बचाती रही है। क्या आप जानते हैं कि आज किस हाल में हैं ये दोनों नदियां! वरुणा तो नदी रूप में कम से कम विद्यमान है, लेकिन असि अपने अस्तित्व से जूझती हुई नाला होने की गाली सुन रही है। आचमन के लायक जब गंगा ही नहीं रही, तो वरुणा और असि से क्या उम्मीद?
वर्ष 2009 में असि के उद्धार हेतु आंदोलित और कटिबद्ध काशी प्रेमियों के एक सम्मिलन असि बचाओ संघर्ष समिति द्वारा असि को बचाने की मुहिम शुरू हुई। वाराणसी प्रशासन कई सालों के संघर्ष के बाद इसकी लंबाई चौड़ाई का अनुमानित ब्यौरा दे पाया। उसके बाद जब असि आंदोलन मुखर हुआ, तो उत्तर प्रदेश शासन द्वारा 8 करोड़ अस्सी लाख रुपये असि के उद्धार हेतु पास किये गए,जिसकी मीटिंग तत्कालीन एडीएम सिटी एम पी सिंह की अध्यक्षता में राइफल क्लब में हुई। यह धनराशि अखबारों तक ही सिमट के रह गयी। उसके बाद महाराष्ट्र के एक इंजीनियर द्वारा नमामि गंगे योजना के तहत एक करोड़ रुपये लगाकर इसके पचास मीटर के दायरे में तार लगा कर कुछ पत्थर बिछाए गए,जिसमें एक मीडिया हाउस की अापत्तिजनक भूमिका भी उभर कर सामने आयी।
गंगा के किनारे 200 मीटर दोनों तरफ, वरुणा के किनारे 100 मीटर दोनों तरफ और असि के किनारे 50 मीटर दोनों तरफ हरित क्षेत्र घोषित कर निर्माण प्रतिबंधित रहा है। 2031 की महायोजना के तहत इसे घटा कर वरुणा के किनारे 50 मीटर और असि के किनारे 25 मीटर कर दिया गया। कालांतर में असि चुनाव के भाषणों तक पहुंच गयी। 2014 के लोकसभा चुनाव में चुनावी सभा में असि के उद्धार को भी कई जगह माननीयों ने मुद्दा बनाया। हद तो तब हो गयी, जब विकलांग को दिव्यांग कहने की छप्पन इंची आसमानी छाती वाले लोग असि को राष्ट्रीय जलमार्ग से जोड़ने की बातें करने लगे।
आज असि की कोख तक निर्माण कर इमारतें तान दी गयी हैं। वाराणसी प्रशासन ने खुली छूट दे रखी है। छूट दे भी क्यों न, जब असि-गंगा संगम स्थल पर पूर्व में गंगा मंत्री रहीं उमा भारती से जुड़ा हुआ उडुपी मठ सीना तानकर खड़ा है! कोरोना की पिछली बंदी का फायदा उठाकर असि के किनारे बहुत तेजी से निर्माण हुए। कोरोना काल में घरों में रहने की मजबूरी, असि पाटने वालों के लिए संजीवनी बन गयी। वर्तमान में असि के किनारे घसियारी टोला के समीप असि के हरित क्षेत्र की खाली जमीन पर उत्तर प्रदेश सरकार के एक मंत्री की शह पर खुल्लम खुल्ला चहारदीवारी खड़ी कर दी गयी है। वहां इमारत बनाने की तैयारी भी है।
हां, इधर दो सफलताएं असि प्रेमियों के हाथ लगी हैं। अब इसे नाला कहने वालों की संख्या थोड़ी कम हुई है। अब गाहे बगाहे लोग इसका हाल जानने में रुचि दिखाते मिल जाते हैं ।दूसरी ये कि जो वाराणसी प्रशासन इसे नाला करार देता था, वह नगर निगम की पट्टिकाओं पर अब अस्सी नहीं, असि लिखता है। बाकी हमें यकीन है कि ये कुहासा छटेगा, क्योंकि, अगर असि नहीं, तो फिर वाराणसी कैसी?
-गणेश शंकर चतुर्वेदी
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असि नदी की दुर्दशा अत्यंत क्षोभजनक है।