बनारस खुदाई का शहर हो गया है। पुरातात्विक खुदाई का नहीं, विकासात्मक खुदाई का। अनेक सड़कें, गलियां और चौराहे हर वक़्त आपको खुदे हुए मिलेंगे। इनके कारण लोग धूल और जाम के शिकार हो रहे हैं और शहर में घूमने की इच्छा कमज़ोर होती जा रही है। हालांकि, बनारस में पुरातात्विक महत्व की जगहें ख़ूब हैं। ये अपने ऐतिहासिक महत्व के साथ वर्तमान समय में भी महत्वपूर्ण हैं। लेकिन एक हरा-भरा पर्यावरण, जो हमें भ्रमण के लिए उत्साहित करता है, इस शहर से ग़ायब होते-होते बिल्कुल ही ग़ायब हो गया है। कोविड के संक्रमण के बाद जो पार्क बंद हुए तो आज भी लगभग बंद ही रहते हैं। हरियाली और जल स्रोतों से भरा आनंद कानन ( बनारस का एक पुराना लाक्षणिक नाम) आज शुष्क है और उसका पानी उतर चुका है। इसकी हवा में प्रदूषण की मात्रा भी अभूतपूर्व है। लेकिन शिक्षा, साहित्य, कला, धर्म और अध्यात्म की राजधानी कहा जाने वाला यह शहर सियासत के चक्कर में ऐसा पड़ा कि करीब करीब बर्बाद ही हो गया। हरियाली और जल स्रोतों जैसी भौतिक समृद्धि से ख़ाली यह शहर ज्ञान और भावनात्मक सम्पदा से भी ख़ाली हो रहा है। यहां केवल व्यक्तिगत वित्तीय समृद्धि का बोलबाला है। इस बोलबाले के पीछे व्यक्तिगत आर्थिक तंगियां नज़रअंदाज़ हो गयी हैं।
लघु और कुटीर उद्योगों के लिए प्रसिद्ध इस शहर से इनका ख़ात्मा हो चुका है। इनकी जगह हर गली में कम्पनियों वाली उपभोक्ता सामग्रियां बेचती दुकानें दिखती हैं। पुराने शहर के कुछ हिस्सों को ढहाकर नया स्वरूप दिया जा रहा है। धर्म की छोटी दुकानों को ढहाकर धर्म के बड़े बड़े मॉल स्थापित किये जा रहे हैं। देशी पर्यटकों की भीड़ है, लेकिन विदेशी पर्यटकों की भीड़ शून्य हो गई है। इस शहर में घुमाई सिर्फ़ घाटों और सारनाथ तक सीमित रह गई है। दो दशक पहले इस जनपद से जंगलों, पहाड़ों, झरनों, वन्य जीवों और आदिवासियों के इलाक़े काटकर चंदौली ज़िला बना दिया गया था। एक जनपद के रूप में बनारस का ग्रामीण क्षेत्र बहुत थोड़ा ही बचा है, वह भी सिकुड़ता जा रहा है। छोटी-छोटी कॉलोनियों और बड़ी-बड़ी सड़कों का विस्तार चारों दिशाओं में हो रहा है। यह सब देखकर लगता है कि बनारस को पूर्वांचल प्रदेश की राजधानी बनाने की तैयारी चल रही है। राजधानी के रूप में यह तैयार हो जाए तो भोजपुरी इलाक़े को पूर्वांचल प्रदेश बना दिया जाए। एक तरफ़ लेना, दूसरी तरफ़ देना। और वह भी ज़बरन। जनता न चाहे तब भी। जैसे किसानों के हित में लाये और किसानों के हित में ही वापस लिए गये कृषि क़ानून, जिन्हें किसानों ने नहीं चाहा था। जैसे चंदौली को ही जिला बनाने की मांग जनता की मांग नहीं थी। यह एक सियासी फैसला था, जो बनारस के एक बड़े हिस्से को काटकर जनता पर थोप दिया गया। नौगढ़ क्षेत्र स्थित ओरवा टांड़ का यह इलाका दो ढाई दशक पहले नक्सलवाद से प्रभावित था। धर्म और संस्कृति की राजधानी नक्सलवाद से कलंकित न हो, इस नाते इस क्षेत्र को बनारस से निकाल दिया गया। हालांकि बाद में इस क्षेत्र से नक्सलवाद खत्म हो गया, लेकिन बनारस कंक्रीट का जंगल बनकर रह गया। कंक्रीट के इस महाजंगल से निकलकर जिसकी हवा प्रदूषित और फ़िज़ा इतनी बे-लुत्फ़ है, बनारस का आदमी आखिर कहाँ जाए!
बनारस के आदमी के आगे यह एक बड़ा सवाल है। पर्यटन के शहर का आदमी घर में पाबंद रहने के लिए विवश है। साहित्यकारों और कलाकारों की विवशता और दुखद है। जमावड़े वाली पुरानी चाय की दुकानें और अड़ियां बंद हो गई हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी काफ़ी कमी आयी है। आपस में मिलना-जुलना बेहद कम हो गया है। एक बार फिर बनारस में सांस्कृतिक और साहित्यिक सन्नाटा मालूम होने लगा है, जो टूटेगा तभी, जब सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियां बढ़ेंगी। इसकी शुरुआत कहाँ से हो? क्यों न यह सन्नाटा बनारस को वृहत्तर करके नये प्रयासों से तोड़ा जाये? चंदौली नामवर सिंह और काशीनाथ सिंह जैसे साहित्यकारों के अलावा डॉ उमेश प्रसाद सिंह, रामजी प्रसाद भैरव समेत अनेक ख्याति प्राप्त साहित्यकारों की जन्म और कार्यस्थली है। अभी कुछ वर्षों पूर्व तक विशिष्ट कहानीकार रामदेव सिंह भी यहीं रहते हुए कथा-सृजन कर रहे थे। इन्हीं विचारों में गुम बनारस का साहित्यिक समाज 6 फरवरी को पुराने बनारस के इस अंतिम छोर पर इकट्ठा हुआ। यह आयोजन था महाभारत आधारित डॉ उमेश प्रसाद सिंह के भावाकुल और प्रश्नाकुल उपन्यास ‘हस्तिनापुर एक्सटेंशन’ पर चर्चा का।
बनारस की जन-संकीर्ण सड़कों से राजा बनारस के क़िले को पार करते हुए चकिया की ओर जाती सुंदर और चौड़ी सड़कों की यात्रा ताज़गी से भर देती है। सड़कों के दोनों ओर दूर तक फैले हरे-भरे खेत और उन पर उतरते जाड़े की नरम और उजली धूप के नज़ारे आह्लादित कर देते हैं। दो तलैयाएं दिखीं, जिनमें बत्तख़ों की भरमार आनंदित कर गयी। चरने के लिए अपने मालिक के साथ जाता तीतरों का झुण्ड बड़ा मज़ेदार लगा। चकिया तिराहे से आगे बढ़ने पर पहाड़ दिखाई देने लगते हैं और फिर पहाड़ों की श्रृंखला शुरू हो जाती है, उसी के साथ जंगलों का सिलसिला भी। गाड़ियों का काफ़िला नयनाभिराम दृश्यों से होता हुआ, चन्द्रप्रभा वन्य जीव विहार को पार करता हुआ एक घंटे बाद औरवा टांड जलप्रपात पहुंचा। जलप्रपात के इस पार जंगल, जलप्रपात के उस पार जंगल। पचासों फ़ीट नीचे घाटी में गिरती जलप्रपात का दूधियां धाराएं और उनका मधुर कोलाहल मंत्रमुग्ध कर देता है। घाटी के पार जो एक धुंधला-सा गांव दिखाई देता है, वह बिहार का कोई गांव है। कई ख़ूबसूरत कंदराएं दिखीं। अगर आप प्रकृति प्रेमी हैं तो आपके लिए यहां प्रकृति प्रदत्त तमाम ख़ुशियां अपने पूरे उरूज में मौजूद हैं।
इसी माहौल में हस्तिनापुर एक्सटेंशन पर चर्चा शुरू हुई, जिसमें सभी मित्रों ने खुलकर अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम के व्यवस्थापक विनय कुमार वर्मा, एल उमाशंकर एवं उस क्षेत्र के साहित्य-प्रेमी ग्राम प्रधान थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक राम सुधार सिंह ने की। कृतिकार उमेश प्रसाद सिंह ने इस उपन्यास के लेखकीय प्रयोजन को विस्तार से बताया। कवि और समालोचक रामप्रकाश कुशवाहा ने उमेश प्रसाद सिंह को ॠषि परम्परा का सत्यद्रष्टा साहित्यकार बताया। उमेश जी की रचना प्रक्रिया कल्पना पर आधारित न होकर, सत्यान्वेषण के लिए किए गए गम्भीर चिन्तन पर आधारित है । यह कृति हस्तिनापुर को केन्द्र में रखकर आधुनिक लोकतंत्र और सत्ता के चरित्र पर गम्भीर विमर्श करती है। केंद्रीय चरित्र भीष्म के पुरुष सत्तात्मक तथा नारी विरोधी आचरण पर संवेदनात्मक प्रश्न उठाए गए हैं।
इस अवसर पर प्रसिद्ध गीतकार ओम धीरज, कथाकार संजय गौतम, राजेश प्रसाद, हिमांशु उपाध्याय, शैलेंद्र सिंह, कवीन्द्र नारायण और चंदौली जनपद के साहित्यकार डॉ अनिल यादव, दीनानाथ पाण्डेय देवेश समेत कई पत्रकार भी उपस्थित थे। इस आयोजन ने न सिर्फ़ साहित्यिक वातावरण में सरगर्मी पैदा की, बल्कि पर्यावरण की ताज़गी भी दी।
-केशव शरण
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