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बापू की हत्या पर लज्जित थे विनोबा !

सर्वोदय समाज के स्थापना सम्मेलन में फूटे उद्गार तो सन्न रह गयी सभा

30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की कायरतापूर्ण हत्या होने के बाद उनके बेहद करीबी सहयोगी और संत विनोबा भावे दुखी ही नहीं, ‘लज्जित’ भी थे.

लेकिन क्यों? बापू की हत्या से जुड़ी वह क्या बात थी, जिसे सोचकर विनोबा जैसे संत को ‘लज्जा’ का एहसास हुआ? इसका खुलासा विनोबा ने खुद ही किया है. बापू की हत्या के सिर्फ एक महीने बाद सेवाग्राम में हुए सर्वोदय समाज के स्थापना सम्मेलन में विनोबा ने जब अपना मुंह खोला, तो सभा में सन्नाटा पसर गया।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में हुए इस सम्मेलन में पंडित जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, जयप्रकाश नारायण और जेबी कृपलानी जैसे बड़े नेताओं के अलावा काका कालेलकर, शंकरराव देव, जेसी कुमारप्पा, ठक्कर बापा और संत तुकड़ोजी महाराज जैसे गांधीजन, विचारक और समाजसेवी शामिल थे। बापू की हत्या पर अपने हृदय का क्षोभ प्रकट करते हुए विनोबा ने कहा था. मैं उस प्रांत का हूं, जिसमें आरएसएस का जन्म हुआ. जाति छोड़कर बैठा हूं, फिर भी भूल नहीं सकता कि उसकी जाति का हूं, जिसके द्वारा यह घटना हुई. कुमारप्पा जी और कृपलानी जी ने फौजी बंदोबस्त के खिलाफ परसों सख्त बातें कहीं. मैं चुप बैठा रहा. वे दुख के साथ बोलते थे. मैं दुख के साथ चुप था. न बोलने वाले का दुख जाहिर नहीं होता. मैं इसलिए नहीं बोला कि मुझे दुख के साथ लज्जा भी थी. पवनार में मैं बरसों से रह रहा हूं. वहां पर भी चार-पांच आदमियों को गिरफ्तार किया गया है. बापू की हत्या से किसी न किसी तरह का संबंध होने का उन पर शुबहा है. वर्धा में गिरफ्तारियां हुईं, नागपुर में हुईं, जगह-जगह हो रही हैं. यह संगठन इतने बड़े पैमाने पर बड़ी कुशलता के साथ फैलाया गया है. इसके मूल बहुत गहरे पहुंच चुके हैं. यह संगठन ठीक फासिस्ट ढंग का है. ….इस संगठन वाले दूसरों को विश्वास में नहीं लेते. गांधीजी का नियम सत्य का था. मालूम होता है, इनका नियम असत्य का होना चाहिए. यह असत्य उनकी टेक्नीक, उनके तंत्र और उनकी फिलॉसफी का हिस्सा है.

एक धार्मिक अखबार में मैंने उनके गुरुजी का एक लेख या भाषण पढ़ा. उसमें लिखा था कि हिंदू धर्म का उत्तम आदर्श अर्जुन है, उसे अपने गुरुजनों के लिए आदर और प्रेम था, उसने गुरुजनों को प्रणाम किया और उनकी हत्या की. इस प्रकार की हत्या जो कर सकता है, वह स्थितप्रज्ञ है. वे लोग गीता के मुझसे कम उपासक नहीं हैं. वे गीता उतनी ही श्रद्धा से रोज पढ़ते होंगे, जितनी श्रद्धा मेरे मन में है. मनुष्य यदि पूज्य गुरुजनों की हत्या कर सके, तो वह स्थितप्रज्ञ होता है, यह उनकी गीता का तात्पर्य है. बेचारी गीता का इस प्रकार उपयोग होता है. मतलब यह कि यह सिर्फ दंगा फसाद करने वाले उपद्रवियों की जमात ही नहीं है. यह फिलॉसफरों की भी जमात है. उनका एक तत्वज्ञान है और उसके अनुसार निश्चय के साथ वे काम करते हैं. धर्मग्रंथों के अर्थ करने की भी उनकी अपनी एक खास पद्धति है ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की और हमारी कार्यप्रणाली में हमेशा विरोध रहा है. जब हम जेल जाते थे, उस वक्त उनकी नीति फौज और पुलिस में दाखिल होने की थी. जहां हिंदू-मुसलमानों का झगड़ा खड़ा होने की संभावना होती, वहां वे पहुंच जाते. उस वक्त की (अंग्रेज) सरकार इन सब बातों को अपने फायदे का समझती थी. इसलिए उसने भी उनको उत्तेजन दिया. नतीजा हमको भुगतना पड़ रहा है.

आज की परिस्थिति में मुख्य जिम्मेदारी मेरी है, महाराष्ट्र के लोगों की है…..आप मुझे सूचना करें, मैं अपना दिमाग साफ रखूंगा और अपने तरीके से काम करूंगा, आरएसएस से भिन्न, गहरे और दृढ़ विचार रखने वाले सभी लोगों की मदद लूंगा. जो इस विचार पर खड़े हों कि हम सिर्फ शुद्ध साधनों से काम लेंगे, उन सबकी मदद लूंगा. हमारा साधन-शुद्धि का मोर्चा बने. उसमें सोशलिस्ट भी आ सकते हैं और दूसरे सभी आ सकते हैं. हमको ऐसे लोगों की जरूरत है, जो अपने को इंसान समझते हैं।

-विनोबा

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