बयरु न कर काहू सन कोई / राम प्रताप बिषमता खोई।।
रामराज्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि कोई किसी से शत्रुता नहीं करता था, राम जी के प्रताप से सबने विषमता खो दी थी।
चंबल घाटी में जाते समय विनोबा जी ने यह चौपाई 9 मई 1960 को उद्धृत की थी। तब से अब तक नदियों का कितना पानी बह चुका है और ‘राम’ शब्द के सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ भी मनमाने कर लिये गये हैं। पर समतामूलक समाज की दिशा में तुलसी और विनोबा का यह जो संकेत है, उसकी अर्थवत्ता कभी नहीं खो सकती।
उसी दिन विनोबा जी ने कहा था, ‘जंगल के कानून में कोई किसी की परवाह नहीं करता। एक की खुशी दूसरे की नाखुशी पर आश्रित हुआ करती है। शेर हिरण को मारकर खुशी पाता है। जंगल का यह कानून भले ही जानवरों को अनुकूल पड़ता हो, पर यह मनुष्यों के मतलब का नहीं है … सर्वोदय सभी की खुशहाली की आकांक्षा करता है, यह जरूरी है कि हर कोई खुश रहे और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह लाजिमी है कि किसी का भी शोषण नहीं होना चाहिए …” चंबल घाटी में हिंसा की घनीभूत समस्या का इतिहास बहुत पुराना रहा है, लेकिन उसकी जड़ें इसी शोषण-वृत्ति में ठहरी हैं।
मई 1960 में विनोबा जी चंबल घाटी के शांति-प्रवास पर निकले थे, एक अनूठे अहिंसक प्रयोग के लिए – एक महीने से अधिक उनकी यह यात्रा रही और बीस हथियारबंद बागियों ने, जिन्हें समाज डाकू कहता है, विनोबा जी की प्रेरणा से आत्मसमर्पण किया। शोषण से उपजी हिंसा का शमन करने में अहिंसा और सदाशयता कितनी प्रभावी हो सकती है, यह इसका जीता-जागता प्रमाण है।
श्रीकृष्ण दत्त भट्ट ने 4 मई 1960 से 8 जून 1960 तक इस यात्रा के दौरान विनोबा जी के सान्निध्य में रहते हुए अपनी डायरी में जो विवरण दर्ज किये, वे इस शांतियज्ञ के दस्तावेज के रूप में सर्व सेवा संघ प्रकाशन से 1962 में ‘एंड दे गेव अप डेकोइटी’ (और उन्होंने डकैती छोड़ दी) नाम से प्रकािशत हुए थे। इसमें चंबल घाटी में हिंसा की समस्या के इतिहास एवं उससे जुड़ी सामाजिक स्थितियों के अध्ययन-विश्लेषण के विविध अध्याय भी जोड़े गये थे।
आज भी, जब चंबल घाटी का माहौल बदल चुका है, यह किताब प्रासंगिक है, क्योंकि शोषण और हिंसा आज भी समाज में व्यापक रूप से मौजूद हैं। हिंसा के विरुद्ध हिंसा से लड़ने की पैरवी करने वाले चिन्तक और प्रशासक तब भी बहुलता में थे, अब भी हैं। पर यह देखना और नतीजों के साथ देखना एक मर्मस्पर्शी अनुभव है कि थोड़े-से लोग, जिनके हृदय में अहिंसा वास्तव में प्रतिष्ठित थी, किस तरह हिंसा को, बिना हिंसा का प्रयोग किये, पराजित और विलीन कर सकते हैं।
मीरा बहन को लिखे बापू के एक पत्र के अंश को उद्धृत करते हुए इस अनमोल किताब का आरंभ होता है – ”यह शब्द ‘अपराधी’ हमारे शब्दकोश में वर्ज्य होना चाहिए। अथवा हम सभी अपराधी हैं। ‘तुममें से जो पाप से रहित हो, वही पहला पत्थर फेंके।’ और किसी का साहस नहीं हुआ कि उस पतिता पर पत्थर फेंके। जैसा कि एक जेलर ने कभी कहा था, चोरी-छिपे तो सभी अपराधी ही होते हैं। इस कथन में गहरा सच है, हालांकि कहा इसे आधे मजाक की तरह गया है…”
वैयक्तिक जीवन और सामाजिक जीवन में हम सभी को बारंबार इस तथ्य की प्रतीति होती है कि शुभ और अशुभ दोनों के बीज हर मनुष्य के भीतर हैं। किन्तु जो अशुभ है, हिंसक है, उसका प्रतिकार जब हम अशुभता और हिंसा से करते हैं, तो हम भी वही बन जाते हैं, जिसका हम विरोध कर रहे होते हैं। मुश्किल यह है कि इस बात पर हमारा भरोसा नहीं ठहरता कि अशुभता का मुकाबला शुभता को त्यागे बिना भी किया जा सकता है, यह सच हमें कोरा आदर्शवाद लगता है जो अमल की नहीं, बातें बनाने की बात है। गांधी और विनोबा जैसी विभूतियों का महत्त्व यह है कि उनका जीवन हमें पग-पग पर इस सत्य के दर्शन कराता है कि शुभत्व और अहिंसकता वस्तुत: ‘प्रैक्टिकल’ हैं, इनसे परिणाम आते हैं, बदलाव आता है, व्यष्टि में, अतएव समष्टि में भी।
‘एंड दे गेव अप डेकोइटी’ पुस्तक भी हमें इसी सच्चाई के पदार्थ पाठ से रू-ब-रू कराती है।
पुस्तक में उन कारणों की सोदाहरण िववेचना है जिनके चलते कोई शोषित हथियार उठा लेता है। यह शोषण कभी समुदाय के लोग करते हैं, कभी पुलिस भी करती है। जो जहां बलशाली होता है, वहां दूसरे को दबाता है, और उस दबाव के असह्य हो जाने पर हिंसक प्रतिरोध का विस्फोट होता है। इसके बाद वह भय के बीहड़ में प्रश्रय ले लेता है। ऐसी अनेक घटनाओं में से एक है :
”मेरी बहन को गांव के जमींदार द्वारा अपमानित किया गया, उससे बलात्कार किया गया। मैंने शिकायत की, किन्तु कोई नतीजा नहीं निकला। इससे मेरे भीतर गहरा क्रोध जागा, मैंने एक बंदूक हासिल की और अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए एक बागी की जिन्दगी अपना ली।”
इस तरह एक ऐसा इलाका बनता जाता है, जहां कोई भी सुरक्षित नहीं है, इसलिए हर किसी को हथियारबंद सुरक्षा पर निर्भर रहना पड़ता है, और इस प्रकार हिंसा का वर्तुल बढ़ता जाता है। हिंसा के इस फैलाव को विराम देने की शक्ति केवल अहिंसा में है, जो अभय देती है और अभय रहती है। यही आध्यात्मिकता की पहचान है, सच्चे धर्म का मूल है। विनोबा जी ने अध्यात्म को मनुष्य और मनुष्य के बीच भरोसे और सहयोग से जोड़ा – ”अध्यात्म का अर्थ है ऐसा भाव कि मेरा वास केवल मेरे व्यक्तिगत शरीर में ही नहीं है। मेरा वास इस धरती पर बसे सभी शरीरों में है। अतएव मेरे लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि औरों में भी मेरा वैसा ही भरोसा रहे, जैसा कि मेरा भरोसा अपने आप में है। जब हम इस अवस्था में पहुंचते हैं तो जीवन में अध्यात्म खिलना शुरू हो जाता हैा”
विनोबा जी के अंतस् में अहिंसा स्थापित प्रतिष्ठित थी, इसलिए उनकी सन्निधि में वैरत्याग सहज हो सका। जब एक बागी बाबा के चरणों में हथियार समर्पित करके कहता है : ”आज तें हमारी नयी जिंदगी शुरू है रही है”, तो उसके मन से हिंसा के साथ-साथ भय भी धुल चुका होता है, जो भी अपराध उससे हुए हैं, उसकी सजा को स्वीकार करने के लिए अब वह किसी दुविधा में नहीं रहा।
श्रीकृष्णदत्त भट्ट ने पूरे मनोयोगपूर्वक हृदय से यह किताब लिखी है, इसमें जिस समाज का वर्णन है, वह हर युग, हर देश में दिखायी पड़ता है, अलग अलग रूपों में, कहीं स्थूल तो कहीं सूक्ष्म। इसे पढ़कर हमारे भीतर अहिंसा के प्रति एक भरोसा जागता है, और अपने जीवन को, अपनी प्रतिक्रियाओं को हम एक नयी दृष्टि से देख पाते हैं। आज का का जो माहौल है, उसमें यह भरोसा ही सच्चे धर्म की दीपशिखा है।
-शक्ति कुमार
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