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भाजपा की लगातार जीत के पीछे का चक्रव्यूह समझें!

गुजरात की प्रयोगशाला से

यह चुनावी राजनीति के लिए प्रचार और राजकाज का विस्‍थापन है। यह विस्‍थापन लोगों को महसूस नहीं होता है क्‍योंकि उसकी जगह ऐसे खिलाडि़यों ने भर दी है, जो भाजपा के लिए प्रॉक्‍सी काम करते हैं। जो सम्‍प्रदाय भाजपा के लिए काम करते हैं, लोग उनसे तो सचेत रहते हैं, लेकिन तीर्थयात्रा आदि के लोभ में जो जनता यहां की बात वहां करके प्रकारांतर से भाजपा का प्रचार करती है, उससे गाफिल रहते हैं। इसमें आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए कि तमाम हिंदू पंथों और सम्‍प्रदायों का मुख्‍यालय गुजरात में ही है।

बीते 8 दिसंबर को गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से बार-बार एक ही सवाल उठा है कि भारतीय जनता पार्टी के वहां तीन दशक से चले आ रहे राज के पीछे क्‍या कारण हैं। आखिर क्‍यों वहां के मतदाता बार-बार भाजपा को चुन कर सत्‍ता में लाते हैं? गुजरात दंगों के बाद यही हुआ। नोटबंदी के ठीक बाद यही हुआ। कोरोना की भयावह तबाही के बाद हुए इस चुनाव में तो जीत के सारे रिकॉर्ड टूट गए। महंगाई, बेरोजगारी, कोरोना से हुई मौतें, स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं का कुप्रबंधन, सब कुछ जैसे हवा में उड़ गया। क्‍या यह चुनाव इनमें से किसी मुद्दे पर नहीं हुआ? या फिर गुजरात का मतदाता ही अराजनीतिक हो चुका है? उदासीन हो चुका है? मानव विकास के तमाम पैमानों पर गुजरात को देखें तो मुद्दों की लंबी फेहरिस्‍त दिखती है, लेकिन समस्‍या यह भी है कि कुपोषण, शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य और महंगाई जैसे मुद्दे गुजरात में मुद्दा नहीं बन पाते। तो क्‍या यह संभव है कि भाजपा ने गुजरात में इंसानी जीवन और प्रतिष्‍ठा से जुड़े तमाम बुनियादी मुद्दों को दबाने में कामयाबी हासिल कर ली है? यह भी हो सकता है कि भाजपा ने अपने लंबे शासनकाल में इन मुद्दों को विस्‍थापित कर दिया हो यानी उनकी जिम्‍मेदारी राज्‍य से कहीं और स्‍थानांतरित कर दी हो, जहां से उसे अप्रत्‍यक्ष ढंग से वोटों की ऊर्जा मिलती हो!

इनका जवाब इतने सपाट ढंग से नहीं दिया जा सकता, क्‍योंकि इस चुनाव में एक तीसरी ताकत भी मैदान में थी। आम आदमी पार्टी का होना इस चुनाव के प्रति जिज्ञासा जगाने वाला था। चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी की भूमिका को लेकर ज्‍यादातर जानकार दो खेमों में बंटे थे। एक तरफ यह कहने वाले थे कि वह भाजपा के वोट काटेगी। दूसरी तरफ लोग कह रहे थे कि वह कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगी। जब नतीजे आए तो साफ दिखा कि कम से कम पचास सीटें ऐसी थीं, जहां आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के वोट बड़े पैमाने पर काटकर भाजपा को जीत दिलवाई है। इसके अलावा, उसके जीते पांच विधायकों के भाजपा में जाने की कोशिशें और सुर्खियां बताती हैं कि आम आदमी पार्टी का गुजरात में उतरना कोई सामान्‍य लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि एक सुनियोजित उद्देश्‍य से प्रेरित कदम था। आम आदमी पार्टी की बीते दस सालों की राजनीति को यदि कोई करीब से देखे तो इस विचार को पकड़ सकता है।

आम आदमी पार्टी के पास मुद्दे क्‍या थे, यह जानना दिलचस्‍प है। आम आदमी पार्टी तीन तरह के कार्ड बांट रही थी। इसे वह गारंटी कार्ड कहती है। पहला है महिला भत्‍ता गारंटी कार्ड, दूसरा है बिजली गारंटी कार्ड और तीसरा है रोजगार गारंटी कार्ड। दिलचस्‍प है कि गुजरात के गांवों में 2005 से ही बिजली ठीकठाक आ रही है, इसलिए बिजली गारंटी का तो कम से कम शहरों में बहुत मतलब नहीं रह जाता। रोजगार गारंटी भी वहां दी जा रही है, जहां यूपी, बिहार, राजस्‍थान आदि से लोग छिटपुट रोजगारों के लिए बरसों से पहुंच रहे हैं। महिला भत्‍ता बेशक एक लुभावनी चीज है, लेकिन इसमें मुद्दा क्‍या है? आम आदमी पार्टी के नेता कथित ‘दिल्‍ली मॉडल’ को वहां बेच रहे थे, जहां से ‘गुजरात मॉडल’ पूरे देश में आठ साल पहले बेचा जा चुका है। यह मॉल के बगल में गुमटी खोलने जैसी बात थी।

बहरहाल, चुनाव के अंत में बात तो विजेता और नतीजों से ही निकलती है, लड़ने वाले चाहे जो हों। इस लिहाज से देखें तो गुजरात का विधानसभा चुनाव बीते तीन दशक में शायद इकलौती ऐसी परिघटना बन चुका है, जो इस राजनीति-प्रेमी देश में किसी राजनीतिक घटना के रूप में दर्ज नहीं होता है। यह अजीब विरोधाभास है, लेकिन इतना अबूझ भी नहीं है। इसके कारण स्‍पष्‍ट हैं। जनधारणा में यह बिलकुल साफ है कि 27 साल से गुजरात की सरकार में चली आ रही भारतीय जनता पार्टी को वहां की सत्‍ता से कोई हटा नहीं सकता। लोगों को चुनाव परिणाम पहले से पता होता है, इसलिए जिज्ञासा नदारद रहती है। इसके बावजूद, चुनाव नाम की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अपने आप में कुछ महत्‍व तो होना ही चाहिए। विडम्‍बना यह है कि राजनीतिक दलों से लेकर चुनावी पर्यटन करने वाले पत्रकारों तक कोई नहीं जानता था कि इस प्रक्रिया के भीतर के स्‍थानीय मुद्दे क्‍या हैं। इसलिए कह सकते हैं कि गुजरात में चुनाव विशुद्ध लोकतांत्रिक कर्मकांड की अवस्था को प्राप्‍त हो चुका है। चुनाव नाम की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का गूदा गायब हो चुका है, गुजरात में केवल छिलका बचा है। इसीलिए गुजरात चुनाव भारतीय लोकतंत्र की एक विशिष्‍ट परिघटना है, इसके बहाने गुजराती समाज में आए बदलावों पर बात होनी जरूरी है।

गुजराती समाज को समझने के लिए आज से छह साल पहले हुए ऊना कांड पर एक नजर डालना जरूरी लगता है। वह एक ऐसी परिघटना है, जहां से गुजरात में रोजाना होने वाले अन्‍यायों का समाजशास्‍त्र निकलकर सामने आता है और इस सवाल का जवाब मिल सकता है कि गुजरात के लोगों की अपनी पीड़ा आखिर उनका राजनीकि मुद्दा क्‍यों नहीं बन पाती।

ऊना कांड और उसके बाद
बमुश्किल कुछ हजार वोटों से अबकी दूसरी बार चुनाव जीते वड़गांव के कांग्रेसी विधायक जिग्‍नेश मेवाणी आज भी ‘गाय की पूंछ तुम रखो, हमारी जमीन हमें दे दो’ वाला जुमला दुहराते हैं, जो उन्‍होंने आज से छह साल पहले ऊना में दलित उत्‍पीड़न कांड के खिलाफ निकाली दलित अस्मिता रैली में दिया था। वे दावा करते नहीं थकते हैं कि पिछले छह साल में उन्‍होंने 300 करोड़ की जमीन दलितों को पूरे गुजरात में दिलवायी है। इस स्‍वघोषित कामयाबी के पीछे छुपी राजनीतिक हकीकत यह है कि जिस ऊना से जिग्नेश मेवाणी ने अपनी दलित राजनीति शुरू की थी, वहां के दलित और आंबेडकरवादी नेता-कार्यकर्ता जाने किस प्रतिक्रिया में भाजपा के वोटर बन चुके हैं। इतना ही नहीं, 11 जुलाई 2016 को मोटा समढियाला गांव के जिस दलित परिवार के नौजवानों की सरेआम पिटाई हुई थी, वह परिवार महज छह महीने के भीतर राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ का हिस्‍सा बन चुका था और मेवाणी इस बात से गाफिल थे। यह परिवार फरवरी-2017 में भाजपा नेता सत्‍यनारायण जटिया के बुलावे पर दिल्‍ली आया था और उनके आवास पर एक प्रेस कॉन्‍फ्रेंस करने के बाद इसने उत्‍तर प्रदेश चुनाव के लिए निकाली गयी दलित रथयात्रा में हिस्‍सा लिया था। ऐसा कैसे हुआ?

सार्वजनिक कर्ज पर टिका गुजरात मॉडल

मोटा समढियाला में बालूभाई के घर से लेकर दिल्‍ली की रथयात्रा तक हर पड़ाव पर मैं इस प्रक्रिया का प्रत्‍यक्ष गवाह था। इसलिए गुजरात में भाजपा के निर्बाध शासन के पीछे चलायी जाने वाली प्रक्रिया को समझने के लिए इस घटना का रेखांकन करना जरूरी जान पड़ता है। ऊना को राष्‍ट्रीय फलक पर स्‍थापित करने वाली दलित अस्मिता रैली, जो अहमदाबाद से 5 अगस्‍त 2016 को चली थी, उसे 15 अगस्‍त को ऊना पहुंचना था। इसके ठीक दो दिन पहले कर्फ्यू और प्रशासनिक सख्‍ती के बीच मैं बालूभाई के घर पहुंचा था। आवागमन के संकट के चलते संयोग से रास्‍ते में एक बौद्ध भिक्षु भी हमारे संग हो लिए थे, जिन्‍होंने अपना परिचय संघप्रिय राहुल के रूप में दिया था। वे भारतीय बौद्ध संघ के महासचिव थे। यह बौद्ध संघ आरएसएस से सम्‍बद्ध है। वे दिल्‍ली से आए थे। उन्‍होंने अपना विजिटिंग कार्ड दिया था जिस पर करोलबाग का पता लिखा था। बालूभाई के घर पहुंचने पर उन्‍होंने एक सभा की और खुलेआम दलितों से कहा कि कैसे 2002 में मुसलमानों से लड़ने के लिए दलितों की अस्मिता को जगाया गया था और हिंदुओं ने उनके नेतृत्‍व में आस्‍था जतायी थी। इसलिए हिंदू उनके दुश्‍मन हो ही नहीं सकते। उन्‍होंने बालूभाई के परिवार से कहा कि रैली निकालकर राष्‍ट्रविरोधी ताकतें दलितों को भड़का रही हैं, वे झांसे में न आएं।

इस घटना को मैंने तब रिपोर्ट किया था, लेकिन इसके व्‍यापक सामाजिक-राजनीतिक निहितार्थों से अनजान था। छह माह बाद जब ऊना के दलित कार्यकर्ता चंद्रसिंह महीड़ा ने फोन से सूचना दी कि बालूभाई का परिवार दिल्‍ली जा रहा है, तब मैंने अंदाजे से संघप्रिय राहुल से संपर्क साधा। अंदाजा सही निकला। परिवार से पहले मेरी मुलाकात करोलबाग के बौद्ध संघ के दफ्तर में ही हुई। दफ्तर में जहां राहुल बैठते थे, वहां नरेंद्र मोदी और दीनदयाल उपाध्‍याय की तस्‍वीरें लगी हुई थीं। उस वक्‍त तक बालूभाई का परिवार शायद किसी ग्लानि में था, चूंकि तस्‍वीरें खिंचवाने में उसे संकोच हो रहा था। वहां से जटिया के आवास पर पहुंचने और बाद में संघ की दलित रथयात्रा में शामिल होने तक वह खुल चुका था। बाद की कुल कहानी बस इतनी सी है कि चार दशक से आंबेडकरवादी राजनीति कर रहे चंद्रसिंह महीड़ा सहित तमाम दलित कार्यकर्ता और नेता भाजपा के कार्यकर्ता बन गए और 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में ऊना के पीडि़त दलितों ने भाजपा को वोट दिया।

दूसरी ओर, घंटे भर में अपनी रैली करके ऊना से निकल गए और अगले कुछ साल तक फिर कभी वापस नहीं लौटे जिग्‍नेश मेवाणी ने उस इलाके में व्‍यापक प्रतिक्रिया को जन्‍म दे दिया। दरअसल, उनकी ऊना रैली अपने जन्‍म से ही विवादों में घिर गयी थी। उस समय संपर्क में रहे तत्‍कालीन जिलाधिकारी अजय कुमार के मुताबिक आयोजकों ने रैली स्‍थल पर 85,000 लोगों के जुटने की अनुमति माँगी थी। अनुमति का आवेदन पीडि़त दलित परिवार बालूभाई के एक लड़के के नाम से प्रशासन को दिया गया था जबकि आयोजन की सारी देखरेख केवल सिंह नाम के एक शख्‍स को करनी थी, जिसने घटना के बाद इस परिवार की काफी मदद की थी। जिग्‍नेश मेवाणी, केवल सिंह को ज़्यादा नहीं जानते थे सिवाय इसके कि वह बालूभाई के परिवार के साथ जुड़ा था। 14 अगस्‍त 2016 की रात वह प्रशासन और दबंगों के दबाव में ‘अंडरग्राउंड’ हो गया। जिग्‍नेश ने बाद में यह भी बताया कि दबाव और डर से बालूभाई के बेटे ने अनुमति का आवेदन वापस ले लिया था। आखिरी मौके पर आयोजक के गायब हो जाने से अराजकता का आलम हो गया और जिग्‍नेश के मुताबिक ‘’इसी वजह से हम लोग घंटे भर के भीतर ही वहाँ से निकल लिए क्‍योंकि कांग्रेसियों और भाजपाइयों ने मंच पर कब्‍ज़ा कर लिया था।‘

जिग्‍नेश यह कभी नहीं जान पाए कि उनकी रैली से दो दिन पहले ही बौद्ध संघ के मार्फत आरएसएस और भाजपा ने पीड़ित परिवार पर कब्‍जा कर लिया था। ऊना के दलित परिवार के पास न भाजपा गयी, न आरएसएस और न ही विश्‍व हिंदू परिषद। उन्‍हें बौद्ध संघ ने साधा और भाजपा का वोटर बनाया।

ऊना में एक दलित परिवार के हिंदूकरण की यह समूची प्रक्रिया मेरी आंखों देखी रही। इस प्रक्रिया को समाजविज्ञानी अच्‍युत याज्ञिक बाकायदा सैद्धांतिक रूप से समझाते हैं। वे बताते हैं कि गुजरात में जातिगत विभाजन बहुत ज्‍यादा है, लेकिन बीते तीन-चार दशक में हुए तीव्र शहरीकरण ने इन विभाजनों को कम किया है और जातिगत समूहों के आपसी रिश्‍तों को तोड़ा है। अब यहां लोगों के समूह आधुनिक धार्मिक संप्रदायों के भीतर बनते हैं। पहले जो जाति की सम्‍बद्धताएं हुआ करती थीं, वे गुजरात में अब नहीं बची हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो जातिगत समूह होते ही थे। शहरों में भी जातिगत समूह क्षेत्रवार बनते रहे हैं। तीव्र शहरीकरण की प्रक्रिया ने इन रिश्‍तों को तोड़ने का काम किया है। इस सम्‍बद्धता की प्रकृति अब बदल चुकी है। गुजरात में धार्मिक पंथों ने इस खाली हुई जगह को भरने का काम किया है। गांव-कस्‍बे से शहर आये लोगों और शहरीकरण के प्रभाव में टूट रही जातिगत-क्षेत्रगत सम्‍बद्धताओं के चलते आइसोलेशन में पड़ रहे लोगों के काम राजनीतिक दल भाजपा नहीं, उससे सम्‍बद्ध धार्मिक पंथ या समूह आते हैं। जो काम पहले जातिगत समूहों के भीतर हुआ करते थे, वे अब सेक्‍ट के भीतर हो जाते हैं। यही भाजपा के वोट के लिए आधार तैयार करता है। यही सामाजिक सहयोग ढांचा एक नागरिक को उसकी बुनियादी जरूरतों और मुद्दों से गाफिल भी रखता है।

इस मामले में स्‍वामीनारायण संप्रदाय की जगह खास है, जो देश भर में बीएपीएस ट्रस्‍ट के नाम से अक्षरधाम मंदिर चलाता है। स्‍वामीनारायण संप्रदाय ने जिस तेजी से गुजरात में अपना जाल फैलाया है, वह चौंकाने वाला है। स्‍वामीनारायण संप्रदाय के तमाम मंदिर हैं, जो बेहद सुदूर गांव-गिरांव में पिछले कुछ वर्षों के दौरान निर्मित किए गए हैं। यह जानना दिलचस्‍प है कि औपचारिक रूप से स्‍वामीनारायण संप्रदाय के गठन के कई साल पहले ही भुज में इस संप्रदाय का मंदिर बनाया जा चुका था। इन मंदिरों को बनाने और चलाने वाली संस्‍था का नाम है बीएपीएस (बोचासनवासी श्री अक्षरपुरुषोत्तम स्‍वामीनारायण संस्‍था)। यह संस्‍था एक एनजीओ है, जो दुनिया भर की कई संस्‍थाओं और सरकारों के साथ मिलकर काम करती है। कच्‍छ में आए 2001 के भूकंप के बाद जिस बड़े पैमाने पर अंतरराष्‍ट्रीय विकास संस्‍थाओं, बैंकों, वित्‍तीय संस्‍थानों, बीमा कंपनियों, सरकारों, निजी कंपनियों आदि की ओर से यहां पुनर्निर्माण में निवेश किया गया, उसका दूसरा आयाम हमें बीएपीएस और विश्‍व हिंदू परिषद जैसी धार्मिक संस्‍थाओं के धर्मार्थ कार्यों में दिखता है। इस लिहाज से बीएपीएस का काम बहुत अहम रहा, क्‍योंकि उसने कच्‍छ के रण से सटे सबसे ज्‍यादा प्रभावित क्षेत्र खावड़ा के गांवों को पुनर्विकास के लिए गोद लिया।

कच्‍छ के भूकंप के बाद गुजरात में किए गए कार्यों पर स्‍वामीनारायण मंदिर की अपनी रिपोर्ट आंख खोलने वाली है। ‘गुजरात अर्थक्‍वेक: रीहैबिलिटेशन एंड रिलीफ वर्क रिपोर्ट’ नाम के 43 पन्‍ने के इस दस्‍तावेज़ को देखकर स्‍वामीनारायण संप्रदाय और उसे चलाने वाले एनजीओ बीएपीएस का भव्‍य मायाजाल समझ में आता है। इसमें कोई शक नहीं कि इस संप्रदाय ने भूकंप के बाद सेवा के बहुत से काम किए, जिसके लिए इसकी सराहना की जानी चाहिए, लेकिन इस क्रम में इसने कच्‍छ की अस्मिता के साथ जो खिलवाड़ किया, उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। 26 जनवरी 2001 को यहां भूकंप आया था। तब से लेकर अगले डेढ़ महीने तक बीएपीएस ने कुल 11 स्‍थानों पर रसोई का परिचालन किया, जहां भुज, अमदाबाद, अंजार, भचाऊ, भद्रा, गांधीधाम, जामनगर, खावड़ा, मोर्बी, रापर और सुरेंद्रनगर में कुल 37000 लोगों को रोज खाना मिलता था। इनके अलावा बीएपीएस ने 878,299 खाने के पैकेट भी बांटे, कोई 3000 लोगों को अपने राहत शिविरों में जगह दी और अस्‍थायी अस्‍पतालों में हजारों लोगों का इलाज किया। भूकंप के दूसरे हफ्ते में 7 फरवरी को बीएपीएस ने भुज के जुबली मैदान में एक मास मेमोरियल रखा, जहां मृतकों के कोई हजार परिजन और दोस्‍त उन्‍हें श्रद्धांजलि देने के लिए आए। असली काम तब शुरू हुआ, जब गुजरात सरकार ने बीएपीएस से कच्‍छ के गांवों को गोद लेने का आग्रह किया। इसके बाद पुनर्वास के लिए बीएपीएस ने 11 गांवों और 4 कालोनियों को गोद लिया। रिपोर्ट के मुताबिक दूसरे चरण में नए गांवों की योजना बनाने से पहले बीएपीएस के इंजीनियरों ने समूचे कच्‍छ का सर्वे किया और स्‍थायी निर्माण हो जाने तक 655 अस्‍थायी मकान 3480 लोगों को दिलवाए। शानदार भूकंपरोधी मकान बनवाए गए और गांवों को दोबारा बसा दिया गया।

जिन गांवों को गोद लिया गया था, उनका बीएपीएस द्वारा दिलचस्‍प नामकरण किया गया और हर एक गांव में संस्‍कारधाम व स्‍वामीनारायण मंदिर बनवा दिए गए। पुराने नामों को मिटाकर गांवों के जो नये नाम रखे गये, वे सब धार्मिक किस्‍म के थे, मसलन श्रीजीनगर, प्रथम स्‍वामी नगर, सनातन नगर, नारायण नगर, इत्‍यादि। इसके अलावा, माधापार कॉलोनी का नया नाम रखा गया कनाडा नगर और भुज कॉलोनी का नया नाम रखा गया टोरंटो नगर। ऐसा इसलिए किया गया, क्‍योंकि इन परियोजनाओं में पुनर्वास का फंड कनाडा से आया था। बाकी, रिपोर्ट देखने पर पता चलता है कि इस समूची परियोजना के लिए फंड ज्‍यादातर अंतरराष्‍ट्रीय वित्‍तीय संस्‍थानों व हिंदू हितरक्षक संस्‍थानों से आया था।

संदीप विरमानी बीएपीएस के बारे में लिखते हैं, ‘इन्‍होंने विनाश के बाद जुटाये पैसे का इस्‍तेमाल अपनी धार्मिक मान्‍यताओं को आगे बढ़ाने में किया है। जाहिर है, वे सीधे तौर पर धर्मांतरण नहीं कर सकते थे, चूंकि उस पर प्रतिबंध आयद हो जाने का खतरा होता, लेकिन उन्‍होंने ‘कल्‍याणकारी’ काम करने वाले की छवि की आड़ में अपनी सांगठनिक पहचान का प्रसार किया। इन्‍होंने गांवों के नाम बदल दिए और अपने संतों के नाम पर किए गए नामकरण के भव्‍य बोर्ड लगा डाले, जिनमें से अधिकतर के बारे में स्‍थानीय लोग कुछ नहीं जानते।’

गुजरात के भूकम्‍प पर प्रामाणिक पुस्‍तक लिखने वाले लेखक एडवर्ड सिम्‍पसन ने पुनर्निर्माण के बाद ऐसे कई गांवों का दौरा किया था। नानी मऊ के बारे में वे लिखते हैं कि वहां लोग परंपरागत रूप से एक दूसरे को ‘राम राम’ या ‘जय माताजी’ कह कर अभिवादन करते थे। जब उन्‍हें नए मकान मिले, तो बाकायदा उन्‍हें निर्देश दिया गया कि वे अब ‘जय स्‍वामीनारायण’ कह कर सामने वाले का अभिवादन करेंगे और साथ ही दोनों हाथों को आपस में जोडकर छाती से चिपकाये रखने की मुद्रा बनाएंगे।

ज़ाहिर है, ऐसी मुद्रा या संबोधन से लोगों के पारंपरिक धार्मिक आचार-व्‍यवहार और मान्‍यताओं पर ज्‍यादा असर नहीं पड़ता होगा, लेकिन सतह पर एक खास पंथ के विस्‍तार का पता तो चलता ही है।

गुजरात के सामाजिक कार्यकर्ता अशोक श्रीमाली ऐसे ही सम्‍प्रदायों में स्‍वाध्‍याय सम्‍प्रदाय का नाम भी गिनवाते हैं। अहमदाबाद की सहकारी कॉलोनियों और सोसाइटियों के नामों में भी ऐसी ही ‘सॉफ्ट’ धार्मिकता देखने को मिलती है, लेकिन उसका राजनीतिक हिंदुत्‍व के साथ सम्‍बंध कुछ ऐसे बनता है कि कई सोसाइटियों के भीतर प्‍याज या अंडा खाने वालों के लिए भी जगह नहीं है, मुर्गा-मांस की तो बात ही छोड़ दें। अब स्थिति यह आ चुकी है कि अहमदाबाद शहर में जोमैटो या स्विगी से ऑनलाइन खाना ऑर्डर करने पर चौबीस तरह की जैनी खिचड़ी का विकल्‍प सबसे पहले दिखाता है, जिसमें प्‍याज और लहसुन नहीं होता। यह स्‍वाभाविक नहीं है, न ही गुजरात की परंपरागत आबोहवा का हिस्‍सा है। इसे बाकायदे धार्मिक सम्‍प्रदायों ने कुछ दशकों में निर्मित किया है।

यह प्रक्रिया सौराष्‍ट्र, कच्‍छ और मध्‍य गुजरात में बहुत बाद में चली, लेकिन इसने जल्‍द ही अपना राजनीतिक प्रभाव इसलिए दिखा दिया, क्‍योंकि इन क्षेत्रों को मिलाकर करीब 42 प्रतिशत इलाका शहरीकरण की चपेट में आ चुका है। शहरीकरण ने सामूहिकता और सहकारिता को कमजोर किया है। सामाजिक अलगाव और राज्‍य की उपेक्षा से अकेला पड़ा आदमी सम्‍प्रदायों की शरण में गया है। दक्षिणी गुजरात के आदिवासी इलाकों में यही प्रक्रिया कोई डेढ़ सौ साल से चल रही है, तब जाकर आज 17 किस्‍म के आदिवासी मोटे तौर पर भाजपा के वोटर हुए हैं। गुजरात और राजस्‍थान में आदिवासियों के बीच वैष्‍णव पंथ की भूमिका को न समझने के कारण लोग अकसर भील-भिलाला, गोंड, उरांव आदि सब आदिवासियों को एक जैसा मान लेते हैं। हिम्‍मतनगर, दाहोद, छोटा उदयपुर आदि क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के भीतर हिंदू धर्म के वैष्‍णवपंथी कर्मकांडों का जैसा गहरा प्रभाव है, वह ब्राह्मणों में भी देखने को नहीं मिलता। ये प्रभाव लंबे समय की शिक्षाओं का नतीजा हैं।

गुजरात मॉडल का विस्‍तार
अच्‍युत याज्ञिक मानते हैं कि साम्‍प्रदायिक पंथों और तीव्र शहरीकरण ने मिलकर गुजरात की जनता के हिंदूकरण की प्रक्रिया को अब पूरा कर दिया है, इसलिए भाजपा के अलावा किसी और के लिए यहाँ जगह नहीं बची है। मनुष्‍य का स्‍वभाव है कि उसे लंबे समय तक कोई एक चीज पसंद नहीं आती है। गुजरात की जनता का हिंदूकरण अगर मुकम्‍मल हो भी गया है और हिंदू होने का पर्याय उसके लिए अगर भाजपा को ही वोट देना है, इसके बावजूद उसकी इस मान्‍यता को ताजादम रखना जरूरी है। भाजपा इसे अच्‍छे से समझती है। इसीलिए शहरी तबकों में बीते कुछ वर्षों से तीर्थाटन को बहुत तेजी से बढ़ावा दिया जा रहा है।

वाराणसी में हुए काशी तमिल संगमम के जरिये सुदूर (दक्षिण के) वोटरों को साधने की जुगत

पिछली बार महामारी खत्‍म होने पर जब मैं अहमदाबाद गया था, तब मेरे पुराने मित्र पाल साहब काशी विश्‍वनाथ ‘धाम’ की यात्रा करके लौटे थे। इस बार जब यात्रा हुई तो पता चला कि वे कुछ दिनों बाद महाकाल के दर्शन के लिए उज्‍जैन जा रहे हैं। इस सम्‍बंध को समझना बहुत जरूरी है। यह नया ट्रेंड है ओर इसे हर तरीके से लोगों के मानस पर थोपा जा रहा है, ताकि उन्‍हें ये लगे कि उनकी गाड़ी कहीं छूट न जाए। मसलन, 17 नवंबर के गुजराती अखबार ‘संदेश’ के पहले पन्‍ने की पहली लीड खबर बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद पर जिला अदालत के फैसले की थी। यह बड़ी अजीब बात है कि एक भाषायी अखबार जो केवल एक राज्‍य के लोगों के लिए निकलता हो, दूसरे राज्‍य की जिला स्‍तर की खबर को लीड बनाकर छापे। इसके पीछे एक व्‍यापक योजना काम करती है। पिछले कुछ साल में बनारस जाने वाले गुजरातियों की संख्‍या बड़े पैमाने पर बढ़ी है। नरेंद्र मोदी के बनारस से सांसद चुने जाने के बाद बनारस में गुजरात के तीर्थस्‍थलों की बड़ी-बड़ी होर्डिगें लग गयी हैं और काशी के लिए गुजरात में बल्‍क पैकेज टूर चल रहे हैं। केदारनाथ में जब बादल फटा था तो यह बात बहुत चर्चा में रही थी कि कैसे वहां की धर्मशालाओं और होटलों से चुन-चुन कर गुजराती तीर्थयात्रियों व सैलानियों को निकलवाया गया था। इसी तरह उज्‍जैन में महाकाल ‘कॉरीडोर’ बनने के बाद अब गुजरातियों सैलानियों का ट्रैफिक काशी के साथ मध्‍यप्रदेश की ओर मुड़ चुका है।

अभी हाल में बनारस में ‘काशी तमिल संगमम’ नाम का एक महीने भर का आयोजन हुआ है। तमिलनाडु से चुन-चुन कर बुलाए गए 2500 लोगों के बीच इस कार्यक्रम का उद्घाटन खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। उन्‍होंने कहा, ‘काशी भारत की सांस्कृतिक राजधानी है, जबकि तमिलनाडु और तमिल संस्कृति भारत की प्राचीनता और गौरव का केंद्र है। संस्कृत और तमिल दोनों सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक हैं, जो अस्तित्व में हैं। तमिल की विरासत को संरक्षित रखना और इसे समृद्ध करना 130 करोड़ भारतीयों की जिम्मेदारी है। अगर हम तमिल की उपेक्षा करते हैं तो राष्ट्र का बहुत बड़ा नुकसान करते हैं और अगर हम तमिल को प्रतिबंधों में सीमित रखते हैं, तो इसे बहुत नुकसान पहुंचाएंगे। हमें भाषाई मतभेदों को दूर करने और भावनात्मक एकता स्थापित करने के लिए यह याद रखना होगा।’ ऐसा कहते हुए उन्‍होंने 13 भाषाओं में ‘तिरुक्‍कुरल’ का अनावरण किया।

प्रधानमंत्री को अचानक बनारस में तमिल की याद क्‍यों आयी और इसके लिए तमिलनाडु से लादकर अपने लोगों को उन्‍हें क्‍यों बुलवाना पड़ा? एक लेख में बादल सरोज इस ओर अपने ध्‍यान खींचते हैं। वे लिखते हैं कि ‘पूरे देश में एक भाषा–हिंदी–थोपने का प्रबंध और प्रावधान करने वाली अमित शाह की अगुआई वाली संसदीय समिति की सिफारिश को लेकर बहुभाषी भारत के अलग–अलग प्रांतों में क्षोभ और आक्रोश घुमड़ रहा था। इसी विक्षोभ को भटकाने के लिए मोदी गंगा किनारे भी झांसा देने से बाज नहीं आ रहे हैं।’ इसका हालांकि दूसरा आयम जो है, वह गुजरात की जनता के हिंदूकरण की प्रक्रिया से जाकर जुड़ता है। वह तीर्थाटन वाला आयाम है। किताब का लोकार्पण और भाषा पर चिंता तमिलनाडु में जाकर जतायी जा सकती थी, लेकिन यह काम बनारस में इसलिए किया गया ताकि 2500 लोग लौटकर जब अपने देस जाएं तो वहां वे भाजपा का गुणगान करें। यह तो केवल एक दिन का मजमा था। पूरे महीने चलने वाले काशी तमिल संगमम में रोजाना कोई डेढ़ हजार लोग तमिलनाडु से बनारस भेजे गए। भाजपा का पूरा काशी प्रांत उनकी अगुवाई में लगा रहा और एयरपोर्ट से लेकर गोदौलिया व चौक तक ‘वड़क्‍कम’ के बैनर-होर्डिंग टंगे रहे। ये तीर्थयात्री वापस जाकर भाजपा के वोटर बनाने में काम आने वाले हैं।

दक्षिण की राजनीति को गुजरात मॉडल के सहारे बनारस और उज्‍जैन से साधने के लिए ठीक इसी तर्ज पर कर्नाटक की बोम्‍मई सरकार ने काशी दर्शन योजना शुरू की है। मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने कर्नाटक के करीब 30 हजार लोगों को काशी यात्रा कराने का ऐलान किया है। काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन-पूजन करने के इच्छुक सभी तीर्थयात्रियों को पांच-पांच हजार रुपये की आर्थिक सहायता दी जाएगी। इस योजना के पहले चरण में सात करोड़ रुपये की मंजूरी दी गयी है, जिसके इस्‍तेमाल के लिए धार्मिक बंदोबस्ती विभाग को अधिकृत किया गया है।
नरेंद्र मोदी ने नवंबर 2022 में बेंगलुरु के केएसआर रेलवे स्टेशन पर ‘भारत गौरव काशी दर्शन’ ट्रेन को हरी झंडी दिखायी थी। बाद में उन्‍होंने एक ट्वीट में लिखा, ‘भारत गौरव काशी यात्रा ट्रेन शुरू करने वाला पहला राज्य होने के लिए कर्नाटक को बधाई देना चाहता हूं। यह ट्रेन काशी और कर्नाटक को करीब लाती है। तीर्थयात्री और पर्यटक आसानी से काशी, अयोध्या और प्रयागराज की यात्रा कर सकेंगे।’ 13 नवंबर 2022 को भारत गौरव टूरिस्ट ट्रेन जब 600 तीर्थयात्रियों को लेकर बनारस जंक्शन पर पहुंची तो उनके स्वागत के लिए कर्नाटक की धार्मिक बंदोबस्ती मंत्री शशिकला जोले खुद मौजूद थीं।

बंगलुरु से भारत गौरव काशी ट्रेन की रवानगी

बिलकुल इसी तर्ज पर आम आदमी पार्टी ने भी दिल्‍ली और उत्‍तराखंड के चुनाव में राजकीय मदद से तीर्थयात्रा करवाने का वादा किया था, लेकिन असली के सामने नकली कहां चलता है? फिलहाल बनारस, प्रयागराज, उज्‍जैन आदि का दर्शन करवा रही भाजपा के लिए अभी अयोध्‍या का राम मंदिर बाकी है, जिसका भव्‍य अनावरण 2024 के चुनाव से पहले किया जाना तय है। मंदिरों और धार्मिक पंथों के सहारे लोगों को भाजपा का वोटर बनाने की जो प्रक्रिया गुजरात में 27 साल से चल रही है, वह अब पूरे देश में पूरी रफ्तार से आगे बढ़ेगी।
यह वोटर के हिंदू मानस को ‘रिफ्रेश’ करने की एक ऐसी छद्म योजना है, जो भाजपा के कोर वोटर को किन्‍हीं कारणों से बिदकने से रोकती है। इसके साथ ही इससे दूसरा फायदा यह होता है कि गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक से बनारस, अयोध्‍या या उज्‍जैन जाने वाला आदमी अपने साथ अनजाने में अपने यहां का प्रशासनिक मॉडल लेकर जाता है और उसका मौखिक प्रसार करता है। जो काम पार्टी को करना था, वह काम पहले धार्मिक सम्‍प्रदायों ने किया और अब वही काम खुद उसकी लाभार्थी जनता कर रही है। इस तरह पार्टी और उसकी सत्‍ता अपनी जिम्‍मेदारियों से मुक्‍त हो जाती है और वोटों को लेकर आश्‍वस्‍त हो जाती है।

राजकाज का विस्‍थापन
यह चुनावी राजनीति के लिए प्रचार और राजकाज का विस्‍थापन है। यह विस्‍थापन लोगों को महसूस नहीं होता है क्‍योंकि उसकी जगह ऐसे खिलाडि़यों ने भर दी है, जो भाजपा के लिए प्रॉक्‍सी काम करते हैं। जो सम्‍प्रदाय भाजपा के लिए काम करते हैं, लोग उनसे तो सचेत रहते हैं, लेकिन तीर्थयात्रा आदि के लोभ में जो जनता यहां की बात वहां करके प्रकारांतर से भाजपा का प्रचार करती है, उससे गाफिल रहते हैं। इसमें आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए कि तमाम हिंदू पंथों और सम्‍प्रदायों का मुख्‍यालय गुजरात में ही है।

कई मामलों में यह भी देखा गया है कि पंथी या साम्‍प्रदायिक नेता मुख्‍यधारा की राजनीति में भाजपा का टिकट लेकर उतरना चाहते हैं। इसका एक दिलचस्‍प उदाहरण योगी आदित्‍यनाथ के गुरुभाई योगी देवनाथ बापू हैं, जो कच्‍छ के रापर स्थित एकलधाम के महंत हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में उन्‍होंने सारे साधु-संतों को लेकर एक प्रेस कॉन्‍फ्रेंस की थी, फिर भी उन्‍हें टिकट नहीं मिला था। इस बार भी उन्‍हें भाजपा से टिकट नहीं मिला। रुष्‍ट होकर उन्‍होंने 10 नवंबर को भाजपा से इस्‍तीफा दे दिया, हालांकि यह नाराजगी दो हफ्ता भी नहीं टिक सकी। रापर से भाजपा उम्‍मीदवार वीरेंद्र सिंह बहादुर सिंह जडेजा के समर्थन में बीते 23 नवंबर को हुई योगी आदित्‍यनाथ की चुनावी सभा के लिए देवनाथ बापू प्रचार करते दिखे। रैली के प्रचार पोस्‍टर पर देवनाथ की बाकायदा तस्‍वीर छपी थी। यह दिखाता है कि कैसे साधु-संतों और हिंदू पंथों का भाजपा के साथ नाभिनालबद्ध रिश्‍ता है। वे नाराज और असंतुष्‍ट होकर कहीं भी जाएं, पर अंतत: वहीं वापस आएंगे। गुजरात में यही बात भाजपा को आत्‍मविश्‍वास देती है।

हम कह सकते हैं कि भाजपा ने गुजरात में न केवल राजकाज और राजनीतिक मुद्दों को विस्‍थापित कर दिया है, बल्कि हिंदू धर्म को उसके समूचे अंगों-उपांगों सहित चुनावी मशीनरी की सेवा में झोंक दिया है। गुजरात इस मामले में वाकई एक खास परिघटना है कि वहां राजनीति, धर्म और समाज के बीच की विभाजक रेखाएं मिट चुकी हैं। इन तीनों को आपस में जोड़ने वाली एक ही चीज है पैसा, जो 2014 में खुद नरेंद्र मोदी के मुताबिक गुजराती होने के नाते उनके खून में पहले से ही है। यह पैसा कहां से आता है, यह जानने के लिए पिछले कुछ साल में चुनावी बांड्स में भाजपा की हिस्‍सेदारी को देख लेना चाहिए। इस बार भी जब चुनाव फंसने लगा, तब जाकर रिजर्व बैंक ने चुनावी बांड भुनाने की आखिरी तारीख 15 नवंबर रखी और अगले दस दिन में चुनावी राज्‍यों तक भारी मात्रा में जो पैसा पहुंचा, उसने गुजरात में चुनाव को पलट दिया।

गुजरात में पैसे के सहारे राजनीति, धर्म और समाज का आपस में जैसा भाजपाई घालमेल हुआ है, अब वह पूरे देश में लागू किया जा रहा है। 2024 के लोकसभा चुनाव के लिहाज से देखें तो खासकर दक्षिण भारत पर निगाह रखने की जरूरत ज्‍यादा है, जहां की राजनीति को साधने के लिए भाजपा बनारस, अयोध्‍या, उज्‍जैन आदि का इस्‍तेमाल कर रही है। गुजरात इसीलिए अब कोई राज्‍य नहीं रहा, वह एक परिघटना बन चुका है। वह एक फैलता हुआ मॉडल है जिसे रोकना चुनावी राजनीति के बस की बात नहीं है। यह मॉडल आने वाले दिनों में सारे मुद्दों को लील जाएगा।

-अभिषेक श्रीवास्तव

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