History

भारत के दीप-स्तम्भ हैं गांधी


राष्ट्रपिता महत्मा गांधी बीसवीं शताब्दी के एक मात्र ऐसे नेता हैं, जिनकी तुलना उनके काल के सभी बड़े नेताओं के साथ करने का प्रयत्न उन नेताओं के अनुयायी करते हुए दिखते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि भारत के अलग-अलग महापुरुषों की तुलना गांधी जी से किए बिना उनकी महानता साबित नहीं होती। गांधीजी का व्यक्तित्व सर्वसामान्य के मानस पटल पर इतनी गहराई से अंकित है कि जिन्हें गांधी पसंद नहीं आते, वे भी उनकी चर्चा किए बिना नहीं रह पाते।


सुभाष चन्द्र बोस ने गांधीजी को राष्ट्रपिता कहा तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें महात्मा नाम दिया। फिर भी गांधी से उनके विरोध का प्रचार किया जाता है, जबकि इन दोनों का गांधी से कोई नैतिक विरोध था ही नहीं। भगतसिंह को लगता था कि गांधी की अहिंसा के विचार से देश को स्वतंत्रता नहीं मिल सकती, फिर भी गांधी जी के त्याग, बलिदान, समर्पण व देश को एक सूत्र में बांधने की उनकी सोच पर भगतसिंह को पूरा विश्वास था। इसलिए उन्होंने आजीवन गांधी जी का सम्मान किया। विकास की प्रक्रिया के बारे में जवाहर लाल नेहरू व गांधी जी के विरोधी मत थे, पर मानवीय मूल्यों पर विश्वास दोनों का एक बराबर था। दोनों का एक दूसरे के प्रति प्रेम और समर्पण तो जग जाहिर है। महात्मा गांधी का युग भारत में बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से शुरू होकर सातवें दशक तक विकसित होता रहा। उसी के परिणाम स्वरूप स्वतंत्रता व अधिकार प्राप्ति के लिए खुद कर्तव्य करने की भावना का संचार दूरदराज के जन-जन में हुआ। स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाली, बलिदान देने वाले असंख्य लोगों की अहिंसक फौज देश में तैयार हुई। इसी का परिणाम हुआ कि ब्रिटिश साम्राज्य को गांधी जी की अहिंसक लड़ाई के आगे झुककर वापस जाना पड़ा। आज दुनिया भर के राजनीतिक, विचारक, वैज्ञानिक गांधी के जीवन से प्राप्त विचार व मानवीय मूल्यों पर आधारित समाज का विकास करने के लिए प्रयत्नशील हैं।


उनके आन्दोलनों से देश भर की जनता में मानवीय हक के प्रति जागृति पैदा हुई। इससे शिक्षित प्रबुद्धों की फौजें गांधी जी के प्रति आकर्षित होने लगीं। इस तरह गांधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए जनमानस तैयार होने लगा। सेवाग्राम आश्रम क्षेत्र के सैकड़ों गांवों में गांधी जी के अनुयायियों ने १९३४ से ग्रामस्वराज्य की दिशा में अनेक वर्ष सतत् प्रयास किया है। कम से कम एक पीढ़ी जागृत होने तक सातत्यपूर्वक स्वच्छता व श्रम के संस्कार अपने क्षेत्र में करने चाहिए, इस विचार से गांधी जी ने १९३४-१९३६ के दरम्यान मगनवाड़ी के अपने सहयोगियों के साथ पड़ोस के सिंदी (मेघे) गांव में नियमित सफाई व सेवा का कार्य किया। ईश्वर के बाद मेरे जीवन में सबसे ज्यादा स्वच्छता का महत्व है, ऐसा वे कहते थे। अस्पृश्यता को सदा के लिए समाप्त करके ही हम अपने धर्म को पुनः जागृत कर सकते हैं, ऐसा गांधीजी का मत था। अपने चित्त से अस्पृश्यता की भावना पूर्णरूप से निकालने के लिए शरीर व मन को संस्कारित करने की आवश्यकता है, ऐसा उनका मानना था।


भारत में विविध धर्मों के लोग रहते हैं, ऐसे देश में अगर स्वराज प्राप्त करना है तो धार्मिक समन्वय साधे बिना हम स्वराज्य प्राप्त नहीं कर पाएंगे, ऐसा उनका दृढ़ मत था। गांधी जी कहते थे कि मेरा धर्म इतना विशाल है कि मैं हिन्दू के मंदिर, मुस्लिम के मस्जिद व ईसाई के गिरजाघर में एक ही भक्ति भाव से जा सकता हूं। सेवाग्राम आश्रम का प्रार्थना स्थल खुले आसमान के नीचे है। सभी प्रकार की उत्तम सद्भावनाओं का, विचारों का, जीवन मूल्यों का प्रवेश अपने हृदय में हो, व्यक्तिगत धर्म उपासना से अन्य धर्मियों के बीच भी सद्भाव तथा मैत्री भाव का निर्माण हो, धर्म के संदर्भ में ऐसी व्यापक संकल्पना गांधी जी की थी।
गांधी जी के जीवन में आत्मिक साधना से सत्य की प्राप्ति हुई। इसी सत्य को उन्होंने ईश्वर माना। वे सभी धर्मों के मूल्यों को मानवीय और नैतिकता के विकास की दृष्टि से देखते थे। इसलिए उन्हें प्रत्येक धर्म की शिक्षा एक ही जैसी लगती थी। आग्रह सत्य का होना चाहिए, अपने मत का नहीं। इसलिए गुणग्राही, सत्यग्राही मनुष्य धीरे-धीरे अहिंसक होता जाता है। मानवीय संवेदनाओं को जीने वाले संपूर्ण मानव का दर्शन गांधी जी के व्यक्तित्व में, उनके विचारों में, आश्रम के जीवन में, रचनात्मक कार्यक्रमों में व सत्याग्रह की भूमिका में दिखाई देता है। ऐसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भारत के दीपस्तम्भ के रूप में सतत प्रकाशमान रहेंगे।

-अविनाश काकड़

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