बिहार में ग्यारह साल के बालक सोनू ने पब्लिक एजेंडा तय करने का वह काम कर दिखाया, जो क़ायदे से विधायिका, विपक्ष और मीडिया को करना था। यह काम है समाज, विशेषकर गरीब और कमजोर तबकों की आकांक्षाओं को सरकार के मुखिया के सामने बेहिचक और मज़बूती से रखना। सोनू को जैसे ही पता चला कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उसके बग़ल के गांव में दौरे पर आये हैं, उसने ठान लिया कि वह उनसे मिलकर सरकारी शिक्षा व्यवस्था की नाकामी को सामने रखेगा। उसने साइकिल उठायी, तेज़ी से गया, पुलिस वालों से रास्ता पूछा और हाथ जोड़कर बैरिकेड के पीछे खड़ा हो गया। साधुवाद के पात्र बिहार के अफ़सर और नीतीश कुमार भी हैं, जिन्होंने ठहरकर सोनू की बात सुनी। उत्तर प्रदेश में तो शायद वह सभास्थल तक पहुँचने से पहले ही बुलडोज़र के हवाले हो जाता।
सोनू ने बड़े दृढ़ स्वर में कहा कि सरकारी स्कूलों की व्यवस्था बहुत ख़राब है। उसके बाप गरीब हैं और शराब भी पीते हैं, इसलिए वह उसे किसी अच्छे स्कूल में नहीं पढ़ा पायेंगे। सोनू ने सैनिक स्कूल में एडमिशन में मुख्यमंत्री से मदद माँगी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने किसी अफ़सर को सोनू की मदद का ज़िम्मा सौंपा।
महत्वपूर्ण बात सही सवाल उठाना
यहां यह महत्वपूर्ण नहीं है कि सोनू का एडमिशन सैनिक स्कूल में होगा या नहीं और वह पढ़कर आईएएस अफ़सर बनने का सपना पूरा करेगा या नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि उसने भरी सभा में मुख्यमंत्री को रोककर उनके सामने वह प्रश्न उपस्थित किया, जो भारत के करोड़ों गरीब बच्चों और उनके मां बाप को परेशान कर रहा है, वह सवाल है कल्याणकारी लोकतांत्रिक गणराज्य में सरकारी शिक्षा व्यवस्था का ध्वस्त होना और शिक्षा सेवाओं का मुनाफ़ाख़ोर बाज़ारवादी व्यवस्था के हवाले हो जाना। जब शिक्षा चौपट है, तो रोज़गार कहां से आयेगा? लोगों का जीवन स्तर कैसे सुधरेगा?
मुझे ध्यान है कि शिक्षा व्यवस्था में सुधार जेपी आंदोलन का एक प्रमुख मुद्दा था। जेपी आंदोलन और बाद में मंडल आयोग के चलते देश की राजनीति में एक बुनियादी परिवर्तन यह हुआ कि राज्यों और केंद्र में सत्ता की बागडोर पिछड़े, कमजोर और दलित समुदाय के लोगों के हाथ में आयी। नीतीश कुमार उनमें से एक हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पिछड़े वर्ग से ही हैं, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के लिए व्यवस्था और नीतियों पर जो ध्यान देना चाहिए था, वह नहीं दिया गया।
जब चुनाव आते हैं, तब भी जन सरोकार के मूल मुद्दों पर बात नहीं होती। तब मंदिर, मस्जिद, जाति और नौकरियों में आरक्षण जैसे भावनात्मक मुद्दों पर वोट मांगे जाते हैं। समाज का जो तबका शिक्षा में पिछड़ जायेगा, वह भला आरक्षण का लाभ कैसे ले सकेगा?
भारतीय संविधान राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय व समानता की बात करता है। यह सब कैसे हासिल होगा, जब बुनियाद से ही असमानता शुरू होगी? हमारा क़ानून शिक्षा के अधिकार की बात करता है, उस अधिकार का मतलब गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा है। गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के लिए पर्याप्त संख्या में शिक्षक और शिक्षा के उपकरण चाहिए। चूँकि सरकार पर्याप्त बजट नहीं देती, इसलिए न केवल प्राइमरी, बल्कि माध्यमिक और उच्च शिक्षा व्यवस्था भी चौपट है। बजट उन कार्यों या निर्माण और ख़रीद में जाता है, जिसमें बजट रिलीज़ करते ही कट मिल जाता है। उदाहरण के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय को सरकार मात्र 34 करोड़ रुपए सालाना अनुदान देती है, जबकि केवल सैलरी का खर्च 150 करोड़ रुपये है। कई विभाग ऐसे हैं, जिनमें एक भी टीचर नहीं है। ऐसे में क्या पढ़ाई होगी और क्या रिसर्च! मेडिकल पढ़ाई इतनी महँगी है कि बच्चों को यूक्रेन, चीन और रूस जाना पड़ता है। माध्यमिक शिक्षा का और बुरा हाल है। वित्तविहीन मान्यता प्राप्त विद्यालयों में टीचर को पांच-सात हज़ार रुपये ही मिलते हैं।
न केवल शिक्षा बल्कि पानी, अस्पताल, यातायात हर क्षेत्र में हमने अमीर-गरीब की अलग व्यवस्था कर दी है। मशीनीकरण के चलते उत्पादन के साधनों और बाज़ार पर बड़े पूंजीपतियों का एकाधिकार हो गया है।
सरकार पर नियंत्रण और उसे दिशा देने का काम विधानसभा और संसद का है, लेकिन हमारी चुनाव प्रणाली इतनी खर्चीली है कि ईमानदार सामाजिक, राजनीतिक कार्यकर्ता चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता। राजनीतिक दल भी वही ठीक से चुनाव लड़ पायेगा, जिसके पीछे बड़े पूंजीपतियों का हाथ हो, बल्कि वही लोग नेता भी तय करते हैं।
इसके बाद जनाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति का काम मीडिया का है, वह भी पूरी तरह से बड़ी पूँजी और सरकार के नियंत्रण में चला गया है। बल्कि सत्ताधारी दल का हिरावल दस्ता बन गया है और हर सुबह वही उसका एजेंडा सेट करता है। आम लोगों का ध्यान असली मुद्दों से हटाने के लिए जानबूझकर धर्म और जाति के भावनात्मक मुद्दों पर झगड़ा लगाया जाता है। ऐसे में भारत को एक नहीं, दो नहीं, लाखों सोनू चाहिए, जो जहां अवसर मिले, जन प्रतिनिधियों का कुर्ता खींचकर उनका ध्यान असली मुद्दों पर ले जायें, जो ब्यूरोक्रेसी को भी कह सकें कि योजनाओं का ईमानदारी से ज़मीन पर क्रियान्वयन सुनिश्चित करें और जनता की शिकायतों की पेटी खुद अपने हाथ से खोलें।
भारत को लाखों सोनू इसलिए चाहिए कि वे सरकार, जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों को बता सकें कि देश के आम लोग ही उनके मालिक हैं और उनका काम जनता की सेवा करना है। जो गरीब और पिछड़े हैं, उनका कल्याण और उनकी सेवा का काम प्राथमिकता से होना चाहिए, न कि उनका जो पैसे के बल पर सब कुछ हासिल कर लेते हैं।
-राम दत्त त्रिपाठी
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