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भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं

हिन्दुस्तान वह सब कुछ है, जिसे उन्होंने समझ रखा है, लेकिन वह इससे भी बहुत ज्यादा है। हिन्दुस्तान के नदी और पहाड़, जंगल और खेत, जो हमें अन्न देते हैं, ये सभी हमें अजीज हैं, लेकिन आखिरकार जिनकी गिनती है, वे हैं हिन्दुस्तान के लोग, उनके और मेरे जैसे लोग, जो इस सारे देश में फैले हुए हैं। भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं, मेरे मुंह से यह सुनकर जनता की आंखों में चमक आ जाती, मानो उन्होंने कोई बड़ी खोज कर ली हो।

अजीब बात है कि देश को मानव-रूप में मानने की प्रवृत्ति को कोई रोक नहीं सकता। हमारी आदत ही ऐसी पड़ गयी है और पहले के संस्कार भी ऐसे ही हैं। भारत ‘भारत माता’ बन जाता है – एक सुंदर स्त्री, बहुत ही वृद्ध होते हुए भी देखने में युवती, जिसकी आंखों में दु:ख और शून्यता भरी हुई है, विदेशी और बाहरी लोगों के द्वारा अपमानित, पीड़ित और अपने पुत्र-पुत्रियों को अपनी रक्षा के लिए आर्त स्वर से पुकारती हुई। इस तरह का कोई चित्र हजारों लोगों की भावनाओं को उभार देता है और उनको कुछ करने और कुर्बान हो जाने के लिए प्रेरित करता है, लेकिन हिन्दुस्तान तो मुख्यत: उन किसानों और मजदूरों का देश है, जिनका चेहरा खूबसूरत नहीं है, क्योंकि गरीबी खूबसूरत नहीं होती। क्या वह सुंदर स्त्री, जिसका हमने काल्पनिक चित्र खड़ा किया है, नंगे बदन और झुकी हुई कमर वाले, खेतों और कारखानों में काम करने वाले किसानों और मजदूरों का प्रतिनिधित्व करती है? या वह उन थोड़े से लोगों के समूह का प्रतिनिधित्व करती है, जिन्होंने युगों से जनता को कुचला और चूसा है, उस पर कठोर-से-कठोर रिवाज लाद दिये हैं और उनमें से बहुतों को अछूत तक करार दे दिया है? हम अपनी काल्पनिक सृष्टि से सत्य को ढंकने की कोशिश करते हैं और असलियत से अपने को बचाकर सपनों की दुनिया में विचरने का प्रयत्न करते हैं।


हिन्दुस्तान या किसी भी मुल्क का खयाल आदमी के रूप में करना एक फिजूल-सी बात थी। मैंने ऐसा नहीं किया। मैं यह भी जानता था कि हिन्दुस्तान की जिन्दगी में कितनी विविधता है, उसमें कितने वर्ग, कौमें, धर्म और वंश हैं और सांस्कृतिक विकास की कितनी अलग-अलग सीढ़ियां हैं, फिर भी मैं समझता हूं, किसी देश में, जिसके पीछे इतना लंबा इतिहास हो और जिन्दगी की जानिब जहां एक आम नजरिया हो, वहां एक ऐसी भावना पैदा हो जाती है, जो और भेदों के रहते हुए भी समान रूप से वहां रहने वालों पर अपनी छाप लगा देती है। इस तरह की बात क्या चीन में किसी से छिप सकती है, वह चाहे किसी दकियानूसी अधिकारी से मिले, चाहे किसी कम्यूनिस्ट से, जिसने गुजरे जमाने से अपना ताल्लुक तोड़ रखा है? हिन्दुस्तान की इस आत्मा की खोज में मैं लगा रहा–कुतूहलवश नहीं–अगरचे कुतूहल यकीनी तौर पर मौजूद था – बल्कि इसलिए कि मैं समझता था कि इसके जरिये मुझे अपने मुल्क और मुल्क के लोगों को समझने की कोई कुंजी मिल जायेगी, विचार और काम के लिए कोई धागा हाथ लग जायेगा। राजनीति और चुनाव की रोजमर्रा की बातें ऐसी हैं, जिनमें हम जरा-जरा से मामलों पर उत्तेजित हो जाते हैं। लेकिन अगर हम हिन्दुस्तान के भविष्य की इमारत तैयार करना चाहते हैं, जो मजबूत और खूबसूरत हो, तो हमें गहरी नींव खोदनी पड़ेगी।
कौन हैं भारत माता!


अक्सर जब मैं एक जलसे से दूसरे जलसे में जाता और इस तरह चक्कर काट रहा होता था, तो इन जलसों में मैं अपने सुनने वालों से अपने इस हिन्दुस्तान या भारत की चर्चा करता। भारत एक संस्कृत शब्द है और इस जाति के परंपरागत संस्थापक के नाम से निकला हुआ है। मैं शहरों में ऐसा बहुत कम करता, क्योंकि वहां सुनने वाले कुछ ज्यादा ही सयाने थे और उन्हें दूसरे ही किस्म की गिजा की जरूरत थी। लेकिन किसानों से, जिनका नजरिया महदूद था, मैं इस बड़े देश की चर्चा करता, जिसकी आजादी के लिए हम लोग कोशिश कर रहे थे और बताता कि किस तरह देश का एक हिस्सा दूसरे से जुदा होते हुए भी हिन्दुस्तान एक था। मैं उन मसलों का जिक्र करता, जो उत्तर से लेकर दक्खिन तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक, किसानों के लिए यकसां थे, और स्वराज्य का भी जिक्र करता, जो थोड़े लोगों के लिए नहीं, बल्कि सभी के फायदे के लिए हो सकता था। मैं उत्तर-पश्चिम में खैबर के दर्रे से लेकर धुर दक्खिन में कन्याकुमारी तक की अपनी यात्रा का हाल बताता और कहता कि सभी जगह किसान मुझसे एक-से सवाल करते, क्योंकि उनकी तकलीफें एक-सी थीं.


यानी गरीबी, कर्ज, पूंजीपतियों के शिकंजे, जमींदार, महाजन, कड़े लगान, सूद, पुलिस के जुल्म और ये सभी बातें गुंथी हुई थीं, उस ढढ्ढे के साथ, जिसे एक विदेशी सरकार ने हम पर लाद रखा था और इनसे छुटकारा भी सभी को मिलकर हासिल करना था। मैंने इस बात की कोशिश की कि लोग सारे हिन्दुस्तान के बारे में सोचें और कुछ हद तक इस बड़ी दुनिया के बारे में भी। मैं अपनी बातचीत में चीन, स्पेन, अबीसिनिया, मध्य-यूरोप, मिस्र और पश्चिमी एशिया में होने वाली कशमकशों का जिक्र भी ले आता। मैं उन्हें सोवियत यूनियन में होने वाली अचरज भरी तब्दीलियों का हाल भी बताता और कहता कि अमेरिका ने कैसी तरक्की की है. यह काम आसान न था, लेकिन जैसा मैंने समझ रखा था, वैसा मुश्किल भी न था। इसकी वजह यह थी कि हमारे पुराने महाकाव्यों और पुराणों की कथा-कहानियों ने, जिन्हें वे खूब जानते थे, उन्हें इस देश की कल्पना करा दी थी, और हमेशा कुछ लोग ऐसे मिल जाते थे, जिन्होंने हमारे बड़े-बड़े तीर्थों की यात्रा कर रखी थी, जो हिन्दुस्तान के चारों कोनों पर हैं। या हमें पुराने सिपाही मिल जाते, जिन्होंने पिछली बड़ी जंगों में या घावों के सिलसिले में विदेशों में नौकरियां की थीं. सन् 1930 के बाद जो आर्थिक मंदी पैदा हुई थी, उसकी वजह से दूसरे मुल्कों के बारे में मेरे हवाले उनकी समझ में आ जाते थे।


भारत माता की असली तस्वीर


कभी ऐसा भी होता कि जब मैं किसी जलसे में पहुंचता, तो मेरा स्वागत ‘भारत माता की जय’ के नारे से जोर के साथ किया जाता। मैं लोगों से अचानक पूछ बैठता कि इस नारे से उनका क्या मतलब है? यह भारत माता कौन है, जिसकी वे जय चाहते हैं। मेरे सवाल से उन्हें कुतूहल और ताज्जुब होता और कुछ जवाब न बन पड़ने पर वे एक-दूसरे की तरफ या मेरी तरफ देखने लग जाते। मैं सवाल करता ही रहता। आखिर एक हट्टे-कट्टे जाट ने, जो अनगिनत पीढ़ियों से किसानी करता आया था, जवाब दिया कि भारत माता से उनका मतलब धरती से है। कौन सी धरती? खास उनके गांव की धरती, या जिले की या सूबे की या सारे हिन्दुस्तान की धरती से उनका मतलब है? इस तरह सवाल-जवाब चलते रहते, यहां तक कि वे ऊबकर मुझसे कहने लगते कि मैं ही बताऊं। मैं इसकी कोशिश करता और बताता कि हिन्दुस्तान वह सब कुछ है, जिसे उन्होंने समझ रखा है, लेकिन वह इससे भी बहुत ज्यादा है। हिन्दुस्तान के नदी और पहाड़, जंगल और खेत, जो हमें अन्न देते हैं, ये सभी हमें अजीज हैं, लेकिन आखिरकार जिनकी गिनती है, वे हैं हिन्दुस्तान के लोग, उनके और मेरे जैसे लोग, जो इस सारे देश में फैले हुए हैं। भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं, और ‘भारत माता की जय’ से मतलब हुआ इन लोगों की जय का। मैं उनसे कहता कि तुम इस भारत माता के अंश हो, एक तरह से तुम भी भारत माता हो, और जैसे-जैसे ये विचार उनके मन में बैठते, उनकी आंखों में चमक आ जाती, इस तरह, मानो उन्होंने कोई बड़ी खोज कर ली हो।

-पं. जवाहरलाल नेहरू

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