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भारतीय होने पर मुझे गर्व क्यों?

भारतीयों में सुसंस्कारों को कूट-कूटकर भरने, उन्हें सदाचारों से परिपूर्ण करने तथा इस महान देश के गौरव एवं सम्मान में वृद्धि करने के काम में केवल कथित उच्च कुलोत्पन्न महापुरुषों, महात्माओं, ऋषिओं और समाज सुधारकों का ही नहीं, अपितु महर्षि वाल्मीकि व कथित निम्न कुलोत्पन्न सन्त रविदास, महात्मा कबीर, भक्त सेन आदि का भी चिरस्मरणीय योगदान रहा है.

भारतीय होने पर मुझे गर्व है. क्या इसलिए कि भारत की मिट्टी से मेरा जन्म हुआ है और भारत-भूमि मेरा पालन-पोषण करती है? नहीं, मैं भारतीय होने पर इसलिए गर्व करता हूँ कि सार्वभौमिक स्वीकृति के साथ ही सहिष्णुता और सहनशीलता भारतवासियों की वास्तविक पहचान है. मैं भारतीय होने पर इसलिए भी गर्व करता हूँ कि भारत में दैनिक मानवीय गतिविधियों व परस्पर व्यवहारों में मन, वचन और कर्म से अहिंसा सर्वोच्च मूल्य के रूप में स्थापित है. सार्वभौमिक स्वीकृति, सहिष्णुता और सहनशीलता के साथ ही सर्वोच्च मानवीय मूल्य अहिंसा, हम भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग है.


जीवन में इन्हीं की उपस्थिति के कारण शताब्दियों से भारत ने धरा के सभी भागों के उन लोगों को आश्रय दिया, जिनका स्वयं अपने देश अथवा महाद्वीप में उत्पीड़न तथा शोषण हुआ. धर्म-सम्प्रदाय-पन्थ, वर्ग-वर्ण अथवा लिंग भेद के बिना भारत ने उन सभी को अपनाया, जो समय-समय पर इसकी शरण में आए. यही शाश्वत–सनातन व्यवस्था द्वारा निर्देशित एवं हजारों वर्ष पूर्व स्थापित भारतीय मार्ग है. मैं और मेरे जैसी सोच रखने वाले करोड़ों हिन्दुस्तानियों के लिए यह गर्व का विषय है.

भारतीय होने पर मुझे गर्व है, क्योंकि मेरे देश भारत में सैंकड़ों वर्ष पूर्व उन यहूदियों को आश्रय मिला, जो रोमियों द्वारा यरुशलम स्थित उनके पवित्र पूजास्थल को 70 ईसवी में तहस-नहस कर दिए जाने के बाद भी अपने पर हो रहे भयंकर अत्याचारों से विवश होकर भारत-भूमि पर शरण पाने के उद्देश्य से हिन्दुस्तान पहुँचे थे. उन्हें भारत में शरण मिली. भारत-भूमि पर उन्हें अपना भरण-पोषण करने की स्वीकृति भी प्राप्त हुई. एकेश्वरवाद का सन्देश देने वाले जरथुस्त्र के अनुयायी पारसी, जब अपने ही देश ईरान में समानता व स्वतंत्रता से वंचित होकर सातवीं-आठवीं शताब्दी ईसवीं में भारत पहुँचे, तो भारतवासियों ने सहर्ष उन्हें अपना लिया. इस प्रकार के शरणार्थियों के भारत आने की एक लम्बी सूची है, जिसमें उन अनेक कबीलों और मानव-समूहों के नाम हैं, जो गत चार हजार वर्षों से भारत-भूमि की सार्वभौमिक एकता, सहिष्णुता और सहनशीलतायुक्त सुगन्ध से आकर्षित होकर इसकी ओर खिंचे चले आते रहे हैं.


भारतीय होने पर मुझे गर्व है, क्योंकि भारत में धरा के समस्त महाद्वीपों के लोगों का रक्त है. सभी महाद्वीपों के लोग भारत में रहते हैं. सभी को स्थापित भारतीय मार्ग के अनुयायी के रूप में गर्व के साथ अपने को भारतीय मानना चाहिए.

मुझे भारतीय होने पर गर्व है, क्योंकि भारतीयों में सुसंस्कारों को कूट-कूटकर भरने, उन्हें सदाचारों से परिपूर्ण करने तथा इस महान देश के गौरव एवं सम्मान में वृद्धि करने के काम में केवल कथित उच्च कुलोत्पन्न महापुरुषों, महात्माओं, ऋषिओं और समाज सुधारकों का ही नहीं, अपितु महर्षि वाल्मीकि व कथित निम्न कुलोत्पन्न सन्त रविदास, महात्मा कबीर, भक्त सेन आदि का भी चिरस्मरणीय योगदान रहा है. महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र, महावीर, गौतम बुद्ध व गुरु नानक के साथ ही ऋषि तिरुवल्लुवर ने भी मानव-समानता सम्बन्धी अपने सन्देश द्वारा भारत के गौरव को बढ़ाया है. यही नहीं, कथित निम्न कुलोत्पन्न तुकाराम जैसे महात्मा मानवतावाद का प्रचार करने में अपने समकालीन किसी भी अन्य सन्त-महापुरुष से कम नहीं रहे. प्रत्येक युग में धर्म और नीति का ज्ञान देने वाले तथा सार्वभौमिक एकता व सर्वसमानता आधारित भारतीय मार्ग को समुचित रूप में जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करने वाले अनेक महापुरुष देश में उत्पन्न होते रहे हैं. वे सभी वर्णो-कुलों, देशवासियों को समान रूप से धन्य करते रहे हैं. वे भारत का स्वर बनते रहे हैं. अपने आचरणों से भारत-भूमि को धन्य करते रहे हैं.

मुझे भारतीय होने पर गर्व है, क्योंकि भारत की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में वैदिककाल से ही प्रजातंत्र के बीज विद्यमान रहे हैं. लिये जाने वाले निर्णयों के केन्द्र में व्यापक जनहित रहा है. आपसी विचार-विमर्श, सहमति और सहयोग, लिये गये निर्णयों के क्रियान्वयन के आधार रहे हैं. भारत माता जनतंत्र की जननी है; हिन्दुस्तान आज भी संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. लोकतंत्र ही भारत के राजनीतिक ढाँचे का निर्माण करता है. लोकतंत्र का एक प्रमुख और अनिवार्य स्तम्भ स्वतंत्रता, समानता के आवरण में भारतीय नागरिकों के जीवन का आभूषण है. यहाँ सबको अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. इस सम्बन्ध में भारत विश्व के किसी भी लोकतान्त्रिक देश से पीछे नहीं है.


यह भारत ही है, जहाँ से बेनजीर भुट्टो ने मुखर होकर अपने देशवासियों की स्वतंत्रता का पक्ष संसार के सामने रखा. यहीं से पाकिस्तान की आस्मा जहांगीर ने अपने देशवासियों के मानवाधिकारों के लिए संघर्ष हेतु समर्थन एवं सहयोग जुटाया. बांग्लादेश की लेखिका तस्लीमा नसरीन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत में ही मिली. सारा विश्व जानता है कि दलाई लामा भारत में रहते हुए तिब्बतियों की स्वतंत्रता, न्याय व उनके अधिकारों के लिए वर्षों से संघर्ष करते आ रहे हैं. भारतवासी उन्हें हर प्रकार का सहयोग देते हैं और ऐसा करते हुए हिन्दुस्तान विस्तारवादी चीन की नाराजगी मोल लेता है. वर्षों तक अपने ही देश में नजरबंद रहीं आंग सान सू की को म्यांमार में लोकतंत्र की पुनर्स्थापना के लिए भारत से जन समर्थन मिला; उनके सैकड़ों समर्थकों ने भारत में रहते हुए अपने देश में लोकतंत्र की पुनर्स्थापना के लिए संघर्ष किया.

एक भारतीय के रूप में मेरे गर्व में तब वृद्धि होती है, जब मैं विश्व के समस्त धर्म-सम्प्रदायों के अनुयायियों को इस देश में रहते हुए तथा अपनी-अपनी रीतियों-परम्पराओं व मान्यताओं के अनुसार स्वतंत्रतापूर्वक जीवन जीते हुए देखता हूँ. मैं गर्व के साथ कह सकता हूँ कि किसी भी दूसरे देश में किसी धर्म सम्प्रदाय अथवा विशेष पन्थ के अनुयायियों के अस्तित्व पर भले ही प्रश्नचिह्न लगे, लेकिन भारत में सभी की आस्था और विश्वास सुरक्षित हैं और भविष्य में भी ऐसा ही रहेगा.


शाश्वत सनातन वैदिक-हिन्दू धर्म के अतिरिक्त विश्व के अन्य प्रमुख धर्म सम्प्रदायों में से तीन, जैन, बौद्ध और सिख की उत्पत्ति अथवा विकास भारत में ही हुआ. ये सभी इस भूमि पर सुरक्षित हैं. यहूदी, जरथुस्त्री, ईसाई और इस्लाम, ये चार धर्म सम्प्रदाय अरब व मध्यपूर्वी एशिया आदि में उत्पन्न तथा विकसित हुए. इन चारों ही धर्म सम्प्रदायों के अनुयायी भारतमाता की गोद में सुरक्षित हैं. कन्फ्यूशी व ताओ, इन दो धर्म सम्प्रदायों की उत्पत्ति चीन में हुई. इनके अलावा जापान में विकसित शिन्तो के अनुयायियों के भी भारत में सुरक्षित रहने की समस्त सम्भावनाएँ विद्यमान हैं. नवोत्पन्न बहाई धर्म सम्प्रदाय के अनुयायी भी भारत में सुरक्षित हैं.

इससे भी अधिक एक भारतीय के रूप में मेरे गर्व में वृद्धि का कारण यह है कि भारत में हजारों वर्ष पूर्व, जब विश्व के अनेक भागों में सभ्यताएँ अभी आँखें खोल रही थीं, मानवीय दिव्यता को सार्वभौमिक और एक मूल राष्ट्रीय मान्यता के रूप में स्वीकार कर लिया गया था.

चहुँओर दिखाई पड़ने वाले इन अद्भुत दृश्यों का आधार मानवीय दिव्यता है. इसीलिए, सृष्टि में अन्य प्राणियों की तुलना में मानव का स्थान सर्वोपरि है. मनुष्य की सम्बद्धता किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, पन्थ या विश्वास से हो, वह समान रूप से दिव्यता प्रकट करती है. भारतीय दर्शन के केन्द्र में यही दिव्य सत्यता होने तथा इसकी स्वीकृति का ही परिणाम है कि हिन्दुस्तान में विश्व के किसी भी भाग से आए किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, पन्थ, वर्ग अथवा वर्ण के व्यक्ति को कभी नकारा नहीं गया. जिस भी आगंतुक ने भारतीय मार्ग का हृदय से अनुसरण किया और भारत को अपना मान लिया, उसे यहाँ न केवल फलने-फूलने का समान अवसर प्राप्त हुआ, अपितु वह सच्चा हिन्दुस्तानी भी बन गया.

कुल मिलाकर, यदि मैं संक्षेप में कहूँ तो भारतीय होने के मेरे गर्व का एक प्रमुख कारण भारतीय मार्ग है. इस मार्ग की वे अनोखी विशिष्टताएँ हैं, जिनका मैंने संक्षेप में उल्लेख किया है, जिन पर मैंने गर्व किया है. यह सम्भव है कि वास्तविक भारतीय मार्ग के सम्बन्ध में मैंने जो कुछ कहा है अथवा जिस पर मैंने गर्व किया है, व्यवहार में उसके विपरीत भी यहाँ कुछ जान पड़े, लेकिन वास्तविक सत्यमय भारतीय मार्ग वही है, जिसका उल्लेख मैंने किया है तथा जो एक भारतीय के रूप में मेरे गर्व के केन्द्र में है. भारतीय मार्ग संकीर्ण नहीं है, वह अति व्यापक है; भेदभावरहित और समन्वयकारी है. वह इस देश की समन्वयकारी, विकासोन्मुख और अनेकता में एकता स्थापित करती संस्कृति का पोषक है. यह भारतीयों की पहचान का आधार एवं गर्व का विषय है. किसी भी रूप में संकीर्णता, मानव-मानव में भेदभाव, कट्टरता, एकांगिता और अलगाववाद का भारतीय मार्ग या राष्ट्रीय दृष्टिकोण से कोई सम्बन्ध नहीं है. यदि कोई इस प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करने की चेष्टा करता है, तो वह वास्तविक भारतीय मार्ग के विपरीत जाता है.

-डॉ. रवीन्द्र कुमार

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