Writers

भारतीय राजनीति के नीलकंठ हैं नेहरू!

ज्यादातर आलोचकों को आज़ादी के पहले के नेहरू से कोई खास ऐतराज़ नहीं है। सबकी दिक़्क़त आज़ादी के बाद के नेहरू से है, क्योंकि यहाँ नेहरू अकेले हैं, गांधीजी और अन्य नेता नहीं हैं। इसलिए यहाँ बात सिर्फ इसी नेहरू की होती है। उस नेहरू की जिस पर आज़ादी की लड़ाई की समूची विरासत को आज़ाद भारत में अकेले आगे बढ़ाना था, जिसके हिस्से ‘सत्ता’ का ‘अमृत’ आया था; औपनिवेशिक शोषण और साम्प्रदायिकता से टूटे- बिखरे मुल्क में ‘विष’ भी इसी नेहरू के हिस्से आना था। नेहरू भारतीय राजनीतिक के नीलकंठ हैं।

पिछले कुछ सालों से आज़ादी की लड़ाई के इतिहास पर सुनियोजित हमला किया जा रहा है और नेहरू इस हमले का मुख्य निशाना हैं। साम्प्रदायिक संगठन चाहकर भी गांधीजी के खिलाफ सीधा मोर्चा नहीं खोल पाते। गोडसे के ‘मंदिर’ की बात होते ही गांधीजी की हत्या का भूत उनके पीछे लग जाता है, लेकिन नेहरू का इस देश में कौन पूछनहार है?

नेहरू का नाम आते ही नेहरू परिवार की बात शुरू हो जाती है। देश की हर समस्या, हर मुसीबत का नाम नेहरू के खाते दर्ज़ किया जाता है। नेहरू को एक सत्ता-लोलुप व्यक्ति की तरह पेश किया जाता है, जिन्होंने गांधीजी को किनारे लगाकर अंग्रेजों से सत्ता हथिया ली। या फिर, गांधीजी की कृपा से गांधीजी के उत्तराधिकारी बन बैठे। या यह कि अगर नेहरू इस देश के पहले प्रधानमन्त्री न होते तो देश की सूरत अलग होती, क्योंकि वे निर्णय लेने में बुरी तरह अक्षम थे। वह तो सरदार पटेल थे, जिनकी लोहे जैसी इच्छा शक्ति ने इस देश को बचा लिया था। या फिर, यह कि इस देश में नेहरू की इकलौती विरासत वंशवाद है। यह और इस तरह के जाने कितने आरोप एक साँस में नेहरू पर मढ़ दिए जाते हैं। यहाँ तक कि एक समय तक गांधीजी के अनुयायी भी नेहरू के प्रति दुराव का भाव रखते थे।

दरअसल नेहरू कौन थे, यह बात आम आदमी की याद्दाश्त से गायब हो चुकी है। नयी पीढ़ी, जिसका सबसे बड़ा स्कूल इंटरनेट है, वह यूट्यूब और व्हाट्सएप वाले नेहरू को जानती है। वह नेहरू, जो तथाकथित रूप से आला दर्जे के शौकीन आदमी थे। लड़कियाँ- औरतें, जिनकी चारित्रिक कमजोरी थीं। एडविना माउंटबेटन के साथ उनका नाम तरह-तरह से जोड़ा जाता है। आरोप हैं कि एडविना के प्यार में आसक्त नेहरू माउंटबेटन के सामने नतमस्तक हो गए थे। और नेहरू की मौत, इंटरनेट पर मौजूद तमाम दुष्प्रचारों के मुताबिक़, एसटीडी (सेक्सुअली ट्रांसमिटेड डिजीज़) से हुई थी।

नेहरू के दुश्मन एक नहीं, अनेक हैं। साम्प्रदायिक एजेंडे में वे गांधीजी की तरह ही एक रोड़ा हैं। साम्राज्यवादियों और नव- साम्राज्यवादियों के लिए आज़ादी की पूरी लड़ाई एक झूठ और दिखावा थी, जो ब्रिटिश राज की भलाई देखने के बजाय उसकी जड़ खोदने का काम करती थी। सबाल्टर्न इतिहासकारों के हिसाब से नेहरू उस जमात के नेता थे, जो अभिजात्य थी, जिसका नीचे से यानि जनता के भले से कोई लेना-देना नहीं था। रूढ़ मार्क्सवादी इतिहास-लेखन नेहरू को उस बुर्जुआ नेतृत्व का प्रतिनिधि मानता रहा, जिसने समाजवाद के प्रति प्रतिबद्धता के बावजूद क्रान्ति की ऐतिहासिक सम्भावनाओं को कमजोर किया। गांधीजी की हत्या के बाद गांधीवादियों ने नेहरू से यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि वे भी गांधीजी के अंतिम दिनों की तरह सत्ता से दूर रहेंगे। वे उस गांधीजी को भूल गए, जो अपने हृदय के हर कोने से खांटी राजनीतिक थे। समाजवादियों की जमात ने कभी नेहरू के नेतृत्व में ही समाजवाद का ककहरा सीखा था। आज़ादी के बाद वही समाजवादी नेहरू की जड़ें खोदने पर आमादा हो गए। पटेल 1950 में स्वर्ग सिधार गए। गांधीजी की पहले ही 1948 में हत्या की जा चुकी थी।

आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद दो अलग दौर थे। पहले दौर में गांधीजी के व्यापक नेतृत्व में एक भरी- पूरी कांग्रेस थी, जिसमें नेहरू गांधीजी के बाद बिना शक नंबर दो थे। लेकिन आज़ादी के बाद और गांधीजी की हत्या के बाद सिर्फ और सिर्फ़ नेहरू थे। राजाजी तकरीबन एक दशक तक उनके साथी रहे लेकिन उसके बाद उनके मतभेद गहरे हो गए। आचार्य कृपलानी को लम्बी उम्र मिली, लेकिन वे और नेहरू साथ मिलकर काम नहीं कर सके। आज़ादी और विभाजन के द्वैध को भुगत कर निकला देश एक नाजुक दौर से गुज़र रहा था। दो सौ सालों के औपनिवेशिक शोषण ने देश को अंदर तक खोखला कर दिया था। इस एक तथ्य से ही हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है— 1947 में भारत में औसत आयु मात्र 32 वर्ष थी। यानि इस उम्र तक पहुँचते- पहुँचते एक औसत भारतीय मौत के कगार पर जा पहुंचता था।


ऐसे कठिन दौर में नेहरू ने हिम्मत के साथ मोर्चा सम्भाला। उन्होंने दिन-रात काम किया। उन्होंने अपनी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा सिर्फ चार-चार घंटे सोकर बिताया। जिन्हें नेहरू की मेहनत का अन्दाज़ा लगाना हो, वे गजानन माधव मुक्तिबोध का निबंध “दून घाटी में नेहरू” पढ़ लें।

सबसे पहली बात रियासतों के एकीकरण की। इस काम में सरदार पटेल और वीपी मेनन की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। लेकिन भारत का एकीकरण आज़ादी की लड़ाई का मूल विचार था। जिस देश को पिछले सौ सालों में जोड़ा- बटोरा गया था, उसे सैकड़ों छोटी-बड़ी इकाइयों में टूटने नहीं देना था। आज़ादी के बाद यह काम आज़ाद भारत की सरकार के जिम्मे आया। जिसे पटेल ने गृहमंत्री होने के नाते बखूबी अंजाम दिया, लेकिन भारत को सैकड़ों हिस्सों में तोड़ने वाला मसौदा ब्रिटेन भेजने के पहले माउंटबेटन ने नेहरू को दिखाया। माउंटबेटन के हिसाब से ब्रिटेन को क्राउन की सर्वोच्चता वापस ले लेनी चाहिए, यानि जितने भी राज्यों को समय- समय पर ब्रिटिश क्राउन की सर्वोच्चता स्वीकारनी पड़ी थी, इस व्यवस्था से सब स्वतंत्र हो जाते। नेहरू यह मसौदा देखने के बाद पूरी रात सो नहीं सके। उन्होंने माउंटबेटन के नाम एक सख़्त चिट्ठी लिखी और तड़के उनसे मिलने पहुँच गए। नेहरू की दृढ़ इच्छाशक्ति के आगे मज़बूरन माउंटबेटन को नया मसौदा बनाना पड़ा, जिसे 3 जून-योजना के नाम से जाना जाता है, जिसमें भारत और पाकिस्तान दो राज्य इकाइयों की व्यवस्था दी गयी। ध्यान रहे, पटेल जिस सरकार में गृह मंत्री थे, नेहरू उसके प्रधानमंत्री थे। सरदार पटेल ने बार रियासतों के राजाओं और नवाबों को नेहरू का नाम आगे बढ़ाकर धमकाया। उनका कहना था कि अगर मेरे साथ वार्ता विफल रही तो फिर नेहरू मामला देखेंगे और तब आपको इतनी रियायतें नहीं मिलेंगी। इस तरह, यह निश्चित रूप से पटेल का नहीं, पटेल और नेहरू का साझा काम था जिसकी जिम्मेदारी सरदार पटेल के मजबूत हाथों में थी।

दूसरी महत्वपूर्ण बात भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने की चुनौती थी। देश सांप्रदायिक वहशीपन के सबसे बुरे दौर से गुजर चुका था। लोगों ने गांधीजी के ज़िंदा रहते उनकी बात भी अनसुनी कर दी थी। जिन्ना ने अपना दार-उल-इस्लाम यानी पाकिस्तान बना लिया था। मुस्लिम लीग को मानने वाले मुसलमानों का ‘अपना’ मुल्क पाकिस्तान वजूद में आ गया था। भीषण रक्तपात और विस्थापन के बाद हिन्दू और सिख शरणार्थियों के जगह- जगह पहुँचने के साथ ही ‘हिन्दू’ सांप्रदायिक दबाव बहुत जबरदस्त हो गया था। हिन्दुस्तान का पहला आम चुनाव सामने था। यह ऐसा चुनाव था, जो सीधे-सीधे धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर लड़ा जा रहा था।

नेहरू ने ‘जनभावनाओं’ की मुँहदेखी नहीं की, बल्कि जनचेतना का निर्माण किया। उन्होंने वह कहा, जो बहुतों के लिए उस समय थोड़ा अलोकप्रिय था, लेकिन नेहरू में अलोकप्रिय होने का साहस भी था। उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के हक़ में आवाज़ बुलन्द की और जनता को अँधेरे समय में रोशनी दिखाई। जनता ने अपने नेता को खुद से ज्यादा समझदार माना। इस चुनाव में नेहरू ने तकरीबन पूरा देश नाप लिया। तकरीबन 40,000 किलोमीटर का सफर तय किया। हर दस में एक भारतीय को सीधा सम्बोधित किया। यह वक़्त हिन्दू साम्प्रदायिकता के उभार के लिए सबसे मुफीद था, लेकिन इसी समय इसे बुरी तरह मुँह की खानी पड़ी। यह चुनाव एक तरह से धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में जनमतसंग्रह सिद्ध हुआ।

नेहरू पर एक और बड़ा जिम्मा था। आज़ादी की लड़ाई के दौरान बोये गए लोकतांत्रिक पौधे की जड़ें मजबूत करने का। नेहरू की लोकतंत्र के प्रति निष्ठा की एक रोचक कहानी है। वे हर तरफ अपनी जय-जयकार सुनकर ऊब चुके थे। उनको लगता था कि बिना मजबूत विपक्ष के लोकतंत्र का कोई मतलब नहीं। नवम्बर 1937 में उन्होंने मॉडर्न टाइम्स में अपने ही खिलाफ एक ज़बर्दस्त लेख लिखा। चाणक्य के नाम से “द राष्ट्रपति” नाम के इस लेख में उन्होंने पाठकों को नेहरू के तानाशाही रवैये के खिलाफ चेताया। उन्होंने कहा कि नेहरू को इतना मजबूत न होने दो कि वह सीज़र बन जाए। मशहूर कार्टूनिस्ट शंकर अपने कार्टूनों में नेहरू की खिल्ली नहीं उड़ाते थे। नेहरू ने उनसे अपील की कि उन्हें बख्शा न जाए। फिर शंकर ने उनपर जो कार्टून बनाये, वे संग्रह इसी नाम से प्रकाशित हुए— “डोंट स्पेयर मी, शंकर”। गांधीजी की हत्या के बाद भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लम्बे समय तक प्रतिबन्ध को नेहरू ने ठीक नहीं माना। उनका मानना था कि आज़ाद भारत में इन तरीकों का प्रयोग जितना कम किया जाए, उतना अच्छा होगा। नेहरू को इस बात बड़ी फ़िक्र रहती थी कि लोहिया जीतकर संसद में जरूर पहुंचे, जो हर मौके पर नेहरूजी पर जबरदस्त हमला बोलते थे।

उनकी आर्थिक योजना, जिसे मिश्रित अर्थव्यवस्था कहते हैं, ने देश को एक मजबूत आधार दिया। जिस वक़्त भारत आज़ाद हुआ, उसे 90 प्रतिशत मशीनरी बाहर से आयात करनी होती थी। जर्मनी को छोड़कर हर जगह से तकनीक का आयात किया गया। महालनोबिस योजना का मुख्य उद्देश्य भारी उद्योगों को बढ़ावा देना था। ठहरी हुई खेती के साथ खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता हासिल करना एक बड़ा सवाल था। नेहरू ने लोकतांत्रिक दायरों में रहकर भूमि-सुधार किये। 150 साल पुरानी जमींदारी व्यवस्था को ख़त्म करना कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी। गरीबों को ऊपर उठाने के लिए नेहरू और उनके योजनाकारों ने सामुदायिक व्यवस्था का सहारा लिया। नेहरू ने गाँवों में ग्राम-सेवकों की पूरी फ़ौज़ भेज दी। नेहरू उद्योग और कृषि में कोई फर्क नहीं करते थे। उनके मुताबिक़ दोनों एक- दूसरे से जुड़ी हुई चीजें थीं। उनको विकास का महत्त्व पता था। वे मानते थे कि ग़रीबी का उन्मूलन करने के लिए उत्पादन जरूरी है और उत्पादन के लिए औद्योगीकरण, लेकिन उसके लिए वे खेती से समझौता नहीं करते थे। उन्होंने देश में हरित क्रान्ति की परिस्थितियाँ तैयार कीं। देश के 15 जिलों में एक पाइलट प्रोजेक्ट शुरू भी किया गया। उनकी मृत्यु के बाद शास्त्रीजी ने हरित क्रान्ति को साकार कर दिया। डेनियल थॉर्नर कहते थे कि आज़ादी के बाद जितना काम पहले 21 सालों में किया गया, उतना 200 साल किये गए काम के बराबर है। दुनिया के लगभग सारे अर्थशास्त्री— जिन्होंने नेहरू की अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया— नेहरू की रणनीति को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।

नेहरू के विज़न में गरीब, लोकतंत्र की कसौटी था। उन्होंने यह तय किया कि गरीबों के हित परिदृश्य से बाहर नहीं फेंके जा सकते। उन्होंने गरीबों के प्रति पक्षधरता की वह बुनियादी सोच पैदा की कि उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दबाव के बाजवूद गरीब किसान- मजदूर अभी भी बहस का सामान्य मुद्दा बने हुए हैं। राजनीतिक पार्टियों को अपने पूंजीवादी रुझानों के बावजूद समाजवाद की भाषा बोलनी पड़ती है। नेहरू और वामपंथ की मेहनत का ही नतीजा है कि भाजपा जैसी दक्षिणपंथी पार्टी को भी अपना उद्देश्य गांधीवादी समाजवाद बताना पड़ता है। (भाजपा, गांधीजी और समाजवाद— अपने आपमें अनोखा घालमेल है न! नेहरू मानते थे, “लोकतंत्र समाजवाद के बिना अधूरा है और समाजवाद लोकतंत्र के बिना।

यह नेहरू के महिमामंडन की बात नहीं है। नेहरू की असफलताएँ भी गिनाई जा सकती हैं, लेकिन हर नेता अपने समय के सन्दर्भ में निर्णय लेता है, नीति या बनाता है। जो कमियाँ- कमजोरियाँ आज हमें दिखाई दे रही हैं, वे नेहरू को नहीं दिख रही थीं, क्योंकि के अपने युग में बैठकर दुनिया देख रहे थे। उस पर से तमाम भयानक चुनौतियों के बीच। हमारे बीच एक बड़ा दंगा, एक बड़ी आपदा, सब-कुछ उथल-पुथल कर देती है। नेहरू ऐसे चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह लड़ रहे थे, जहाँ असफलता ही नियति थी। एक बार गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था—हमने अपनी असफलताओं से ही सही, देश की सेवा तो की।

मोहित सेन ने लिखा है कि तिब्बत सीमा विवाद के वक़्त चीन ने नेहरू का कद छोटा करने के लिए उनका चरित्र हनन करना शुरू किया गया था। चीनी नेतृत्व (इसमें माओ शामिल नहीं थे) का मानना था कि नेहरू से टकराने के लिए, नेहरू का कद घटाना जरूरी है। यही बात सांप्रदायिक दलों पर भी लागू होती है, क्योंकि नेहरू उनके लिए खतरनाक हैं। गांधीजी खतरनाक थे तो मार दिए गए। नेहरू के लिए कसक रह गयी। यह कसक ही है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र केसरी ने लिखा कि 1948 में गांधीजी की हत्या करने के बजाय अगर नेहरू को मार दिया जाता तो बेहतर होता। अब इस ऐतिहासिक चूक की भरपाई की जा रही है। नेहरू का कद घटाकर उन्हें बौना बनाने की मुहिम चलाई जा रही है, ताकि जब नेहरू उनके इतने बौने हो जाएं कि उन्हें धराशायी किया जा सके।

यह मान भी लें कि नेहरू असफल नेता थे, तो भी उनकी नीयत दुरुस्त थी। आपने किसी ऐसे नेता के बारे में सुना है, जो हिन्दू दंगाइयों की भीड़ के सामने निडर खड़ा होकर अपना सर पीट-पीटकर रोने लगे? या फिर जिसने मुस्लिम लीग के लोगों से गालियाँ और धमकियाँ सुनने के बावजूद हार ने मानी हो? या फिर ऐसे नेता का, जिसका फ़ोन नंबर आम जनता के पास भी हो? और किसी ऐसे नेता को जानते हैं, जो खुद ही फ़ोन भी उठा लेता हो? अगर नहीं तो आप नेहरू पर कीचड़ उछालने से बाज आइये और दूसरों को ऐसा करने से रोकिये। यकीन मानिए नेहरू होना इतना आसान नहीं है। नेहरू भारतीय राजनीतिक के नीलकंठ हैं।

-सौरभ बाजपेयी

Sarvodaya Jagat

Share
Published by
Sarvodaya Jagat

Recent Posts

सर्वोदय जगत (16-31 अक्टूबर 2024)

Click here to Download Digital Copy of Sarvodaya Jagat

1 month ago

क्या इस साजिश में महादेव विद्रोही भी शामिल हैं?

इस सवाल का जवाब तलाशने के पहले राजघाट परिसर, वाराणसी के जमीन कब्जे के संदर्भ…

1 month ago

बनारस में अब सर्व सेवा संघ के मुख्य भवनों को ध्वस्त करने का खतरा

पिछले कुछ महीनों में बहुत तेजी से घटे घटनाक्रम के दौरान जहां सर्व सेवा संघ…

1 year ago

विकास के लिए शराबबंदी जरूरी शर्त

जनमन आजादी के आंदोलन के दौरान प्रमुख मुद्दों में से एक मुद्दा शराबबंदी भी था।…

2 years ago

डॉक्टर अंबेडकर सामाजिक नवजागरण के अग्रदूत थे

साहिबगंज में मनायी गयी 132 वीं जयंती जिला लोक समिति एवं जिला सर्वोदय मंडल कार्यालय…

2 years ago

सर्व सेवा संघ मुख्यालय में मनाई गई ज्योति बा फुले जयंती

कस्तूरबा को भी किया गया नमन सर्वोदय समाज के संयोजक प्रो सोमनाथ रोडे ने कहा…

2 years ago

This website uses cookies.