एक उत्सवधर्मी देश के रूप में हमने भारत की आज़ादी का अमृत महोत्सव धूमधाम से मनाकर अपनी पीठ तो ठोंक ली है, लेकिन अगले पचीस सालों का रोडमैप नहीं बना सके. एक ऐसा रोडमैप, जो पिछले पचहत्तर सालों की ग़लतियों और कमियों से सबक़ लेकर भारत के आम लोगों के जीवन में सुख, समृद्धि और शांति भर दे. हमें यह मानने में गुरेज़ नहीं करना चाहिए कि जीवन स्तर के मापदंड से भारत की नब्बे फ़ीसदी आबादी के पास सुखी जीवन के पर्याप्त आर्थिक संसाधन नहीं हैं. आबादी का एक बड़ा हिस्सा दो जून की रोटी के लिए सरकार की रेवड़ियों का मोहताज है. बहुतेरे लोगों को तो राशन की दुकान से जबरन बीस रुपये का तिरंगा झंडा ख़रीदना भी भारी बोझ लग रहा था.
माना गया था कि भारत की जनसंख्या, विशेषकर युवा वर्ग, यानी इतना बड़ा वर्क फ़ोर्स हमारा बहुत बड़ा संसाधन या प्लस प्वाइंट है, लेकिन सच्चाई यह है कि हमने इस बड़ी जनसंख्या को ऐसी ट्रेनिंग या शिक्षा ही नहीं दी कि वह स्किल्ड वर्क फ़ोर्स बन सके. ऐसे लाखों श्रमिक रोज़ शहरों के चौराहों पर मज़दूरी के लिए खड़े होते हैं और उनमें से तमाम लोग निराश होकर मंदिरों के सामने बैठकर मुफ़्त का भोजन करके कुछ लोगों को पुण्य कमाने का मौक़ा देते हैं. अपने अधिकारों के प्रति राजनीतिक रूप से जागरूक शिक्षित बेरोज़गार युवा धरना, प्रदर्शन और आगज़नी करते हुए पुलिस की लाठी खाते हैं और फिर जेल जाने पर इनके परिवार के लोग ज़मानत के लिए कचहरी और जेल के चक्कर काटते हैं. देश में कई करोड़ युवा ऐसे भी हैं, जो अब नौकरी के लिए आवेदन करने की उम्र पार कर चुके हैं.
हमारे शहरों का नियोजन ऐसे हुआ है कि सड़क या पटरी पर खड़े होकर सामान बेचना भी आसान नहीं है और इनको बिज़नेस के लिए जरूरी छोटी पूँजी भी सस्ते ब्याज पर नहीं मिलती. हमने अपनी वर्क फ़ोर्स को परंपरागत घरेलू, कुटीर उद्योगों में लगाकर उत्पादन से नहीं जोड़ा. मशीनीकरण और ऑटोमेशन के युग में बिना टेकनिकल ट्रेनिंग पाये श्रमिक रोज़गार कैसे पायेंगे? विकसित देशों के उद्योगपतियों ने चीन और उसके बाद वियतनाम आदि देशों में अपनी फैक्ट्रियां इसलिए लगायीं, क्योंकि उनके पास तकनीक में कुशल श्रमिक थे. इसलिए भविष्य में शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन कर उसे रोज़गारपरक बनाना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए.
हमारा दूसरा बड़ा संसाधन ज़मीन, जल, जंगल, खनिज और अन्य प्राकृतिक संसाधन हैं. लेकिन ये भी धीरे-धीरे स्थानीय समुदायों के हाथों से निकलकर बड़े पूँजीपतियों, कंपनियों को जा रहे हैं. अधिक लागत वाली खेती बहुसंख्यक छोटे किसानों की बर्बादी का कारण है. हमारा किसान अब बीज और खाद के लिए आत्मनिर्भर नहीं रहा. रिसर्च के लिए ज़रूरी संसाधन न देकर हमने अपने कृषि विश्वविद्यालयों को बेकार कर दिया, सारा बीज और खाद उद्योग बड़ी कंपनियों के पास चला गया है.
खेती के मशीनीकरण के बाद गाय, बैल पालना मुश्किल हो गया है और रासायनिक खादों पर निर्भरता से न केवल खेती की लागत बढ़ी, बल्कि किसान क़र्ज़दार भी होता गया. किसानों को सम्मान राशि की रेवड़ी देने के बजाय हमें कृषि नीति में इस तरह आमूलचूल परिवर्तन करना चाहिए कि किसानों की बीज, खाद और सिंचाई की लागत कम हो, उत्पादन लागत का दोगुना दाम और अधिक से अधिक लोगों को रोज़गार मिले. मनरेगा के वर्तमान स्वरूप में भी परिवर्तन कर इसे कृषि उत्पादन, पशुपालन, बाग़वानी और कुटीर उद्योगों से जोड़ना पड़ेगा.उदाहरण के लिए चरखे से सूत कातने वालों और हाथ से कपड़ा बुनने वालों को मनरेगा से जोड़ने पर विचार करना चाहिए.
बुनियादी सिद्धांत है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय को मुनाफ़ाखोर बिज़नेस का ज़रिया न बनाया जाये. आज हर परिवार का सबसे ज़्यादा खर्च पढ़ाई और दवाई पर है. यह क़र्ज़ और ग़रीबी का कारण बनता है. पढ़ाई के लिए तो बड़ी संख्या में युवा भी बैंकों के क़र्ज़दार हो जाते हैं. भले ही बहुत कम लोग इनकम टैक्स के दायरे में आते हैं, लेकिन आज जीएसटी के चलते गरीब आदमी भी किसी न किसी रूप में टैक्स देता ही है. इसलिए सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य का ढाँचा इतना मज़बूत करना चाहिए कि लोगों को इनके लिए प्राइवेट बिज़नेस वालों के पास न जाना पड़े. पर्यावरण प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन आज अनेक बीमारियों और महामारी के कारण बन गये हैं, इसलिए वातावरण को प्रदूषित होने से बचाना सरकार की हर नीति का अनिवार्य अंग होना चाहिए. आज जब संयुक्त परिवार बिखर चुके हैं, सोशल सेक्योरिटी बहुत बड़ी ज़रूरत है. सरकार को एक ऐसी व्यापक और अनिवार्य सोशल सिक्योरिटी स्कीम लागू करना चाहिए, जिसमें मामूली अंशदान पर हर कोई बेरोज़गारी, दुर्घटना, बुढ़ापे अथवा विधवा या अनाथ होने की स्थिति में न्यूनतम निर्वाह खर्च लायक़ भत्ता पा सके.
समाज में सुख, समृद्धि के लिए शांति चाहिए और शांति के लिए न्याय अनिवार्य तत्व है. राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय के अलावा रोज़मर्रा के कामकाज में अगर कोई अपराध या अन्याय का शिकार होता है तो उसे बिना समय और पैसा गँवाये न्याय मिलना चाहिए. हम जिस ब्रिटिश क़ालीन न्याय प्रणाली को चला रहे हैं, वह बहुत विलंबकारी और खर्चीली है. अगर किसी के मकान या ज़मीन पर कोई क़ब्ज़ा कर ले या किसी करार से मुकर जाये तो सालों की मुकदमेबाजी के बावजूद ज़रूरी नहीं कि न्याय मिले. त्वरित न्याय के लिए माफिया के दरबार खुल गये हैं.
हमें अगले पचीस सालों के लिए इन बुनियादी बातों हेतु न्यूनतम सर्वमान्य एजेंडा बनाना होगा. आज भारत में अनेक दल हैं और यह ज़रूरी नहीं कि जिसे संसद या विधानसभा में बहुमत मिल गया, केवल उसे ही नीति निर्माण का एकाधिकार है. इसलिए हमें एक व्यापक विमर्श के ज़रिये स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व पर आधारित भारत के विकास का सर्वमान्य एजेंडा बनाना चाहिए, ताकि जब हम 2047 में आज़ादी की सौवीं जयंती मनायें तो भारत एक सुखी, संतुष्ट और समृद्ध राष्ट्र हो.
-राम दत्त त्रिपाठी
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