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भूदान डायरी; विनोबा विचार प्रवाह : भूखा भगवान हमारे सामने खड़ा है

भूखा, प्यासा और बिना घर वाला भगवान हमारे सामने खड़ा है। आज वह खुद कह रहा है कि हमें खिलाओ, हमें कपड़े दो, हम ठंड से ठिठुर रहे हैं।

बाबा कहते थे कि आज का भगवान खुद दूध दुहता है, पर उसे पीने को नहीं मिलता। वह फलों के बगीचे में काम करता है, पर उसे फल चखने को नहीं मिलता। वह गेहूं के खेत में काम करता है, पर उसे रोटी खाने को नहीं मिलती। इस तरह भूखा, प्यासा और बिना घर वाला भगवान हमारे सामने खड़ा है। आज वह खुद कह रहा है कि हमें खिलाओ, हमें कपड़े दो, हम ठंड से ठिठुर रहे हैं। जबकि पहले की एक कहानी है कि नामदेव ने भगवान के सामने एक बार दूध रखा, लेकिन भगवान ने नहीं पिया। नामदेव ने हठ पकड़ लिया और आखिर भगवान ने उनका दूध पिया। बाबा कहते थे कि एक तरफ भगवान भूखा, प्यासा, नंगा दिखता है और दूसरी ओर लोग पत्थर की मूर्ति को खिलाते, कपड़े पहनाते और उनके लिए बड़े-बड़े घर बनाते दिखते हैं। यह नाटक हम सब कब तक करेंगें? जब ठंड में ठिठुरने वाला भगवान मेरे सामने खड़ा है, तब उस पत्थर के भगवान को कपड़े पहनाना कब तक चलेगा?

 

हमारा समाज सुखी, आरोग्य और संपन्न तभी होगा, जब छिपा हुआ सत्वगुण बाहर निकलेगा। भूदान यज्ञ का यही काम है।

बाबा का मानना था कि भूदान यज्ञ सत्वगुण को बाहर लाने की एक कोशिश मात्र है, उससे आनंद का निर्माण होगा और समाज आगे बढ़ेगा। गीता कहती है कि जहां सत्वगुण है, वहां आरोग्य सुख और उत्तम गति है। हमारा समाज सुखी, आरोग्य और संपन्न तभी होगा, जब छिपा हुआ सत्वगुण बाहर निकलेगा। भूदान यज्ञ का यही काम है। आज समाज में जो प्रवाह बह रहा है, उसमें कोई नहीं जाना चाहते हुए भी उसे कोई रोक नहीं पा रहा है, इसलिए बाबा एक नया प्रवाह बहाना चाहते हैं। बाबा की यात्रा में रोज हजारों भगवानों के दर्शन तो हो जाते हैं, लेकिन इस नए-नए दर्शन के बाबजूद सोए हुए भगवान को जगाने के लिए हम गांव में सुबह प्रभात फेरी निकालते हैं, जिसकी आवाज सुनकर जब पत्थर के भगवान जाग जाते हैं, तो हमारे सामने बैठे चैतन्य भगवान जरूर जाग जायेंगे। बाबा लोगों को समझाते थे कि आप एक छोटे से शरीर में कैद बंदी नहीं हो, आपके आसपास जितने शरीर दीख पड़ते हैं, वे सारे आप से ही संबंधित हैं। आप सबकी दृष्टि व्यापक होनी चाहिए। लोगों में प्रेम तो है, इसमें कोई शक नहीं है, लेकिन केवल प्रेम से ही जीवन नहीं चलता. उसका सीमित होना ठीक नहीं है, उसको व्यापक होना चाहिए। – रमेश भइया

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