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भूदान डायरी; विनोबा विचार प्रवाह : ग्रामोद्योग अपने आप नहीं मरे, मारे गए हैं!

बाबा का कहना था कि ग्रामोद्योगों से आप कहते हैं वे अपने पैरों पर खड़े रहें। यह तो वही बात हुई कि आप मेरी टांगें तोड़ देते हैं और फिर टांगों पर खड़े रहने को भी कहते हैं। आप शाबाशी दें कि फिर भी हम हाथों के बल चल कर काम चला लेते हैं

आज जिस अर्थ में किसी संस्था को अराजनैतिक कहां जाता है, उस अर्थ में हम अराजनैतिक नहीं हैं। जैसे कोई अस्पताल अराजनैतिक होता है, उसका एकमात्र उद्देश्य है बीमारों की सेवा। लेकिन हमारा उद्देश्य केवल सेवा नहीं है। आज जो राजनीति चल रही है, उसे तोड़ना हमारा काम  है। हमारा विचार चलेगा, तो सत्ता की राजनीति खत्म हो जाएगी। अस्पताल से हम भिन्न है, क्योंकि हमें पक्षों और सत्ता की राजनीति को तोड़ना है। राजनीति जब संकीर्ण न होकर व्यापक होने लगती है, तो उसे लोकनीति कहा जाता है। बाबा कहते थे कि समता और करुणा के आधार पर प्लानिंग होनी चाहिए। कोई भी नेशनल प्लानिंग नेशनल कहलाने लायक नहीं हो सकती, अगर वह अपने देश के सब लोगों को काम न दे सके। ऐसा कोई घरवाला नहीं होगा, जो अपने सभी परिवार वालों का ख्याल न रखता हो। सब के लिए रोटी का प्रबंध न जुटाता हो। नेशनल प्लानिंग का यह बुनियादी उसूल होना चाहिए कि सबको काम देने की जिम्मेदारी हमारी है। सबको काम और सबको रोटी के लिए हमें हर एक को औजार देने होंगें और जो उत्पादन होगा, वह सबमें बराबर बांटना होगा।            

योजना आयोग के एक सदस्य ने कहा कि यह नेशनल प्लानिंग नहीं है, बल्कि यह पार्शियल प्लानिंग अर्थात आंशिक नियोजन है। इसमें किसी न किसी का बलिदान तो होगा ही। इसमें यदि पक्षपात होता है तो वह गरीबों के पक्ष में होना चाहिए। अगर बलिदान ही करना है तो खुद का करें। घर का मालिक हमेशा यह चाहता है कि सारे कुटुम्ब को भोजन और काम अविलम्ब मिले। ठीक इसी प्रकार समाज के बारे में सरकार को भी सोचना चाहिए। अगर यह सिद्धांत मानकर योजना बनेगी तो सारी दृष्टि ही बदल जायेगी। सरकार को तो यह कहना चाहिए कि अमुक तारीख से हम सबको काम देंगे, फिर चाहे उसके लिए जैसा भी संयोजन करना पड़े, करे। परंतु वह तो उल्टा ही कहती है कि हमसे सभी को काम देना संभव नहीं मालूम होता। फिर तो इन लोगों को इस्तीफा दे देना चाहिए।   

 आपने देहातियों से कपड़े का धंधा छीन लिया और कपड़ों की मिलें खोलीं, तेल का धंधा छीन लिया और तेल की मिलें खोल लीं, गुड़ का धंधा बंदकर शक्कर के कारखाने खोल लिये। इस तरह देहातों को कंगाल बनाकर आपने उन पर एक तरीके से चढ़ाई कर दी। मेरी राय में सुरक्षित जंगलों की तरह कुछ धंधे भी देहातियों के लिए सुरक्षित क्यों नहीं रक्खे जा सकते?                          

बाबा का कहना था कि ग्रामोद्योगों से आप कहते हैं वे अपने पैरों पर खड़े रहें। यह तो वही बात हुई कि आप मेरी टांगें तोड़ देते हैं और फिर टांगों पर खड़े रहने को भी कहते हैं। आप शाबाशी दें कि फिर भी हम हाथों के बल चल कर काम चला लेते हैं। आपने देहातियों से कपड़े का धंधा छीन लिया और कपड़ों की मिलें खोलीं, तेल का धंधा छीन लिया और तेल की मिलें खोल लीं, गुड़ का धंधा बंदकर शक्कर के कारखाने खोल लिये। इस तरह देहातों को कंगाल बनाकर आपने उन पर एक तरीके से चढ़ाई कर दी। मेरी राय में सुरक्षित जंगलों की तरह कुछ धंधे भी देहातियों के लिए सुरक्षित क्यों नहीं रक्खे जा सकते? ग्रामोद्योग अपने आप  नहीं मरे, मारे गए हैं। -रमेश भइया 

Co Editor Sarvodaya Jagat

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