‘बीज’ एक व्यापक अवधारणा है। धरती पर समस्त के प्रस्पुâटन-पैâलाव का कारण ‘बीज’ ही है। बीज यानी मनुष्यता के बीज, विचार के बीज, सामाजिक (परस्पर मैत्री-संवाद) के बीज, लोकतांत्रिक व्यवस्था के बीज, प्रकृति में समृद्धि के बीज, कृषि-पशुपालन-कारीगरी और वनों की समृद्ध परंपरा के बीज, जो सर्वत्र बिखरे हैं और जो कालांतर में वैभवित होते रहते हैं। बीज की महिमा को समझकर पहाड़ी समाज ने समृद्ध-अभय समाज की नींव रखी और विविध लोकतांत्रिक परंपराओं को गढ़ा। सामाजिक-आर्थिक व सांस्कृतिक व्यवस्था की बुनियाद को भी बीज व माटी के संबंधों को समझकर सृजित किया।
लेकिन पिछले डेढ़ साल में मानव जनित एक महामारी ने दुनिया भर के लोगों को शारीरिक-मानसिक व आर्थिक स्तर पर गहरा प्रभावित किया है। इससे जहां मानवीय क्षति बढ़ी, वहीं मनुष्य के सामाजिक ताने-बाने की बुनियादें भी हिलीं। एक ऐसा दौर चल रहा है, जहां निराशा व भय का वातावरण व्याप्त है। या कहें कि तथाकथित मीडिया के माध्यम से लोगों के दिमागों पर नियंत्रण हेतु ऐसा माहौल निर्मित किया जा रहा है कि लोग एक-दूसरे से मिलने-जुलने में भी कतराने लगे हैं। मानव जाति का भविष्य क्या होगा, लोग इसपर चिन्तित हैं। पहाड़ी समाज में भी कमोवेश यही स्थिति है।
चौतरफा असुरक्षा भरे इस वातावरण में सर्वोदय आंदोलन ने एक आशाजनक माहौल बनाने की ठानी। वरिष्ठ सर्वोदयी धूमसिंह नेगी की प्रेरणा व मार्गदर्शन में तय हुआ कि हम ‘बीज-यात्रा’ के माध्यम से लोगों के बीच जायें, जिससे परस्पर मैत्री-संवाद की प्रक्रिया को पुन: आगे बढ़ाया जा सके। इस ‘बीज-यात्रा’ के संयोजन की जिम्मेदारी टिहरी सर्वोदय मंडल के संयोजक साहब सिंह सजवाण ने ली और दो व्यक्तियों का यात्री दल वुंâवर प्रसून स्मृति कुटिया, रायपुर से पदयात्रा प्रारंभ कर ‘बीज यात्रा’ के लिए चल पड़ा। यात्रा के प्रथम चरण में हेवलघाटी, बालगंगा, भिलंगना व अगलाड़ नदी घाटी के गांवों-कस्बों में पदयात्रा व आवश्यकतानुसार वाहन यात्रा कर संपर्वâ-संवाद स्थापित किया गया। इस बीच लोक सांस्कृतिक क्रांति गीतों का गायन भी होता रहा। यात्रा के अधिकांश पड़ाव टिहरी जिला अंतर्गत ही आते हैं।
इस पूरी यात्रा के दौरान बीज यात्री नदी-घाटी के सैकड़ों गांवों-कस्बों से होकर गुजरे और लोगों से संपर्वâ किया। पूरी यात्रा के दौरान यात्री जहां भी ठहरे, वहां सामूहिक लोक प्रार्थना गीत व क्रांतिगीतों के माध्यम से मानसिक वातावरण को स्वस्थ करने की कोशिश की। लोगों से लोकतंत्र, अर्थव्यवस्था, वर्तमान में खेती की स्थिति, सामाजिक-सार्वजनिक कार्यक्रमों पर खुला संवाद हुआ। क्योंकि इस वक्त खेतों में तमाम तरह की फसलें खड़ी हैं। इन फसलों का भी प्रत्यक्ष अध्ययन किया गया। इसी यात्रा के दौरान पता चला कि पारंपरिक अनाज कोदा, झंगोरा, कौड़ी जैसे अनाजों की खेती अब काफी कम हो गयी है, फिर भी लोग बो रहे हैं। लेकिन चींड़ा जैसा अनाज कहीं नहीं दिखा। उसको लोगों ने बोना लगभग बंद कर दिया है। वहीं जौनपुर (अगलाड़ घाटी) के खेतों में मकई की फसलें लहलहाती मिलीं।
सर्वोदय खेती का प्रयोग
वुंâवर प्रसून स्मृति कुटिया, रामपुर में 2018 से सर्वोदयी खेती का प्रयोग किया जा रहा है। जुलाई 2021 में इन खेतों में कोदा, झंगोरा, कौड़ी, बाजरा, मकई, उड़द, मटर, गहत, लोबिया, नौरंगी, तोरदाल, जसिया, तिल, भंगजीर, अरवी, पिनालू, हल्दी, तल्ड, बैंगन, चेरी टमाटर, खीरा, ककड़ी, लौकी, तुमड़ी, कद्दू, करेला, चचेण्डा, सेमीफली, तोरई, मिर्च, चौलाई, हिमालयन बथुआ, मूली, भिण्डी, लेमनग्रास, मरुवा, ब्राह्मी, भूमि आंवला आदि फसलें लहलहा रही हैं। ये फसलें प्राकृतिक-जैविक तरीके से परंपरागत पहाड़ी कृषि शैली के आधार पर उगायी जा रही हैं।
-साहब सिंह सजवाण/सुदेशा बहन
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