साठ के दशक की बात है। रूस-अमेरिका शीत युद्ध चरम पर था और दोनों महाशक्तियां एटमी हथियारों की अंधाधुंध दौड़ में शामिल थीं। निकट भविष्य में ही क्यूबा संकट के कारण दुनिया एकदम से महाविनाश के कगार पर पहुंच जाने वाली थी।
ऐसे में दो सर्वोदयी मित्रों- सतीश कुमार और प्रभाकर मेनन ने गांधी की धरती से शांति और निःशस्त्रीकरण का संदेश पहुंचाने के लिए पूरी दुनिया का पैदल सफर करने की ठानी। वे विनोबा जी से मिले और उनके पूछने पर बताया कि वैसे तो ठहरने आदि की व्यवस्था के लिए वे मित्रों और उनके संपर्क सूत्रों पर निर्भर रहेंगे तथा सरकार अथवा संस्थाओं से मदद नहीं लेंगे, लेकिन रास्ते की छोटी मोटी जरूरतों के लिए कुछ राहखर्च साथ में रखेंगे। इस पर विनोबा जी ने सलाह दी कि बेहतर होगा कि आप जेब में बिना एक भी पैसा रखे अपने अभियान पर निकलें और अपरिग्रह रूपी चक्र तथा शाकाहार रूपी गदा के साथ सफलता प्राप्त करें। थोड़ी हिचकिचाहट के बाद दोनों मित्रों ने विनोबा की आज्ञा को शिरोधार्य किया और एक जून 1962 को राजघाट पर बापू की समाधि से अपनी कांचनमुक्त यात्रा प्रारंभ की, जो लगभग आठ हजार मील पैदल यात्रा के बाद दो साल बाद जनवरी 1964 में वाशिंगटन स्थित कैनेडी की समाधि पर सम्पन्न हुई।
सतीश कुमार का यात्रा संस्मरण ‘बिना पैसे दुनिया का पैदल सफर’ नाम से हिंद पाकेट बुक्स ने प्रकाशित किया था। आज उसे पढ़े हुए पचास साल बीत जाने के बाद भी उन रोचक प्रसंगों से भरी उस कथा की स्मृति ताजा है। उनके उद्यम की सफलता तब जितनी ही संदिग्ध लगती थी, आज उतनी ही प्रासंगिक लगती है। उनकी यात्रा, साहस और जीवट की एक मिसाल थी। उस समय न इंटरनेट था, न ही मोबाइल फोन, अलग-अलग देशों में हजारों मील के अनजान रास्ते नापते हुए दोनों पदयात्रियों ने अनेक विपरीत हालात का सामना अपने आत्मबल से किया।
इतनी लम्बी, पैदल और बिना पैसे की यात्रा में उन्हें खट्टे मीठे दोनों तरह के अनुभव हुए और अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। सबसे बड़ी चुनौती तो स्वयं पैदल यात्रा ही थी। जरूरत के सामानों से भरे बैग लटकाये रोज़ लगभग 7-8 घंटे पैदल चलना – महीनों और सालों तक चलते ही रहना। खैबर और ईरान के पर्वतों और रूसी टुंड्रा के बर्फीले मैदानों के पार। रास्ते में पैसों के अलावा परिचित, अपरिचित सभी सबसे पहले लिफ्ट देने की ही पेशकश करते – ‘शांति की बात सुनाने के लिए पैदल चलना क्या जरूरी है? अगले शहर तक चले चलिए, किसी को क्या पता चलेगा?’ वे जवाब देते कि हमको और आपको तो पता चल ही जायेगा। खैबर पख्तूनिस्तान के खूंखार कबायली इलाके में पैदल सफर की इजाजत देने में पाकिस्तानी अधिकारी बहुत हिचकिचाहट के बाद तैयार हुए। इसी प्रकार रूसी अधिकारियों ने बारंबार भीषण सर्दी का हवाला देकर पैदल यात्रा के लिए वीसा देने में आनाकानी की।
दूसरी समस्या थी भाषा की। एक तो सतीश बचपन में ही जैन साधु बन गए थे और उनको संस्कृत तथा हिंदी के अलावा और कोई भाषा नहीं आती थी। प्रभाकर अंग्रेजी जानते थे, लेकिन पाकिस्तान को पार करते ही उन्हें अफगानिस्तान, ईरान और रूस में अंग्रेजी की सीमाएं समझ में आने लगीं। देहातों में भला कौन अंग्रेजी समझता! उन्होंने टूटी फूटी फारसी और रूसी सीख कर काम चलाया। भाषा की समस्या पोलैंड, जर्मनी, बेल्जियम और प्रâांस तक बरकरार रही। प्रâांस में तो एक युवती के साथ भाषा को लेकर ऐसी गलतफहमी हुई कि उसके साथी ने पिस्तौल तक निकाल ली।
तीसरी समस्या खर्च की थी। पूरे रास्ते सभी देशों में अनजान लोगों और संस्थाओं ने हर तरह का प्रबंध किया, बल्कि जहां जहां दिलदार हिंदुस्तानी और सहृदय स्थानीय मिले, लोगों ने राह खर्च के लिए पैसे भी देने चाहे, पर दोनों मित्र बिना पैसे सफर करने के अपने व्रत पर हर स्थिति में कायम रहे। इस कारण कभी-कभी वे महीनों तक चिट्ठियां नहीं भेज पाते थे, फटे जूतों से काम चलाना पड़ता और कभी दाढ़ी बाल इतने बढ़ जाते कि वे साधु लगने लगते।
चौथी समस्या थी नौकरशाही की, जिससे उन्हें न सिर्फ अलग-अलग देशों में, बल्कि अपने देश में भी जूझना पड़ा। बावजूद इसके कि उन्हें विनोबा और बट्र्रेंड रसेल जैसे लोगों की शुभकामनाएं हासिल थीं, राष्ट्रपति राधाकृष्णन और पंडित नेहरू ने उनको अनुशंसा के पत्र भेजे थे, वित्त मंत्री मोरारजी देसाई ने उन्हें विदेशी मुद्रा देने से एकदम मना कर दिया। हालांकि जब उन्होंने बिना पैसे सफर का इरादा कर लिया, तब यह मनाही बेमानी हो गयी। पासपोर्ट ऑफिस और विदेश मंत्रालय के अनेक चक्कर काटने के बावजूद यात्रा शुरू करने के दिन तक उनको पासपोर्ट नहीं मिल पाया। आखिरकार खीजकर उन्होंने राष्ट्रपति से अपनी मुलाकात रद्द कर दी और बिना पासपोर्ट के ही अपनी यात्रा शुरू कर दी। अखबारों में खबर छपने के बाद सरकार के कानों पर जूं रेंगी और ऐन सरहद के पास एक अधिकारी आकर उन्हें उनका पासपोर्ट दे गया-पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान के वीसा सहित।
ईरान से आगे रूस के लिए वीसा लेने में उन्हें भारी मशक्कत करनी पड़ी। रूसी अधिकारी उनकी लम्बी पैदल यात्रा के कार्यक्रम से असहज थे। वे यह सोचकर परेशान थे कि बिना मांसाहार और मदिरा के ये दो शांतिदूत रूस की खून जमा देने वाली उस सर्दी का कैसे मुकाबला कर पाएंगे, जिसके सामने हिटलर और नेपोलियन की सेनाओं ने घुटने टेक दिए थे। आखिरकार दोनों को चार महीने का वीसा दे दिया गया और सोवियत रूस में उनका अपेक्षाकृत ज्यादा गर्मजोशी से स्वागत हुआ, लेकिन एक दिन अचानक ऐसा भी हुआ कि उनके वीसा की अवधि को घटाकर अधिकारियों ने उन्हें मास्को से वारसा के हवाई टिकट थमा दिए। सतीश और प्रभाकर अड़ गए। उन्होंने न तो हवाई यात्रा की, न ही अपने वीसा की निश्चित अवधि से पहले रूस छोड़ने के लिए तैयार हुए। अविश्वसनीय ढंग से वे पूरे पैंतालीस दिनों तक सोवियत संघ की अनधिकृत यात्रा करते रहे—लोगों से मिलते जुलते, सभाओं में भाग लेते, इंटरव्यू देते। कहीं भी उन्हें रोका टोका नहीं गया, न ही रूस-पोलैंड की सीमा पर कोई खास परेशानी हुई।
पोलैंड के बाद पूर्वी जर्मनी होते हुए जब वे पश्चिमी जर्मनी पहुंचे तो कम्यूनिस्ट देशों से होकर आने के कारण वहां उन्हें संदेह की नजर से देखा जा रहा था और अधिकारियों का व्यवहार रुक्ष था। एक जगह पुलिस ने उनके परचे भी छीन लिये। इससे भी बुरी गुजरी फ्रांस में। तत्कालीन प्रâांसीसी राष्ट्रपति चाल्र्स द गॉल ने निःशस्त्रीकरण के सभी प्रयासों को ठेंगा दिखाते हुए आक्रामक परमाणु कार्यक्रम चला रखा था। उसके खिलाफ दोनों मित्रों ने राष्ट्रपति भवन के सामने ही भूख हड़ताल करने की घोषणा कर दी। नतीजतन न सिर्फ वे गिरफ्तार कर लिये गए, बल्कि फ्रांस सरकार ने उन्हें अवांछित घोषित करके दिल्ली वापस भेजने की भी तैयारी कर ली। भारतीय राजदूत अली यावर जंग के हस्तक्षेप के बाद अंततः उन्हें पदयात्रा समाप्त कर ट्रेन और स्टीमर से लंदन जाने की इजाजत दी गयी। लंदन में माहौल अपेक्षाकृत खुला खुला सा था और वहां भाषा की समस्या भी नहीं थी। चूंकि आगे अमरीका की यात्रा विमान से करनी थी, इसलिए उन्होंने बीबीसी आदि से साक्षात्कार के बदले पैसे भी स्वीकार किये। अमरीका का वीसा लेने में फिर घनघोर दिक्कत आयी। बारंबार एक ही प्रश्न पूछा जाता—आप कम्युनिस्ट तो नहीं? आखिरकार गांधी के नाम की कुंजी हर जगह काम आयी। जब उन्होंने बताया कि वे गांधीवादी हैं तो झट से वीसा मिल गया। इन कठिनाइयों से इतर भी उनकी यात्रा में अनेक स्मरणीय प्रसंग आए।
खैबर दर्रे में कंधे पर बंदूक लटकाए एक लहीम-शहीम पठान का सन् 62 में गांधी की कुशल क्षेम, पाकिस्तान में भारत के मुसलमानों के हालात और पदयात्रियों की जाति के बारे में लोग कदम-कदम पर पूछताछ करते थे। एक ईरानी मेजबान का अपने नन्हें बेटे का विवाह सतीश की (सद्यःजाता) बेटी से करने का संकल्प; कुर्ता-पाजामा पहन कर ईरान के शाह रजा पहलवी से मुलाकात; एक रूसी किसान द्वारा एक बर्फानी रात में उन्हें शरण देना, लेकिन उसकी पत्नी द्वारा आसमान सर पर उठा लेने के कारण उनका दूसरा ठिकाना खोजना; एक दूसरे रूसी किसान की बेटी द्वारा स्थानीय परंपरा के अनुसार उनका पांव पखारना; एक मेजबान गांव के सामूहिक अनुरोध पर उनका मदिरा के पात्र को मुंह लगाना; एक पोलिश स्कूल के प्रधानाध्यापक द्वारा उनको स्कूल से निकाल दिया जाना और उसी स्कूल के एक विद्यार्थी द्वारा इस दुव्र्यवहार के परिमार्जन हेतु पदयात्रियों को अपने घर पर भोजन कराना आदि अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिन्हें पढ़कर हम चमत्कृत रह जाते हैं।
ऐसा भी नहीं कि सतीश के संस्मरण पूरी तरह पूर्वाग्रह मुक्त हों। वे सोवियत संघ से इस कदर अभिभूत थे कि वहां उनको कहीं भी दोष नहीं दिखा; न गैर रूसी गणराज्यों का शोषण, न गुलामी, न अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभाव, न एकदलीय लोकतंत्र की तानाशाही, वहीं पश्चिमी जर्मनी और अमेरिका आदि की शानदार प्रगति के पीछे उन्हें शोषण और साम्राज्यवादी प्रकल्प दिखे। यह थोड़ा एकांगी लगता है। फिर भी सतीश और प्रभाकर का यह संस्मरण उस समय का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
-संजय कुमार
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