मुझे आज यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि मैंने बुद्ध के जीवन से बहुत कुछ प्रेरणा पाई है। कलकत्ते के नये बौद्ध मन्दिर में किसी वार्षिकोत्सव पर मैंने यही खयाल जाहिर किये थे। उस सभा के नेता थे अनागारिक धर्मपाल। वे इस बात पर रो रहे थे कि उनके प्रिय कार्य की ओर लोग ध्यान नहीं देते और मुझे याद है कि इस रोने के लिए मैंने उन्हें बुरा-भला कहा था। मैंने श्रोताओं से कहा कि बौद्ध धर्म के नाम से प्रचलित चीज भले ही हिन्दुस्तान से दूर हो गई हो, मगर बुद्ध भगवान का जीवन और उनकी शिक्षाएं तो हिन्दुस्तान से दूर नहीं हुई हैं। यह बात शायद तीन साल पहले की है और अब भी मैं अपने उस मत में कोई फेरबदल करने की वजह नहीं देखता।
गहरे विचार के बाद मेरी यह धारणा बनी है कि बुद्ध की शिक्षाओं के प्रधान अंग आज हिन्दू धर्म के अभिन्न अंग हो गये हैं। गौतम ने हिन्दू धर्म में जो सुधार किये, उनसे पीछे हटना आज हिन्दू-भारत के लिए असम्भव है। अपने महान त्याग, अपने महान वैराग्य और अपने जीवन की निर्मल पवित्रता से गौतम बुद्ध ने हिन्दूधर्म पर अमिट छाप डाली है, हिन्दूधर्म अपने उस महान शिक्षक से कभी उऋण नहीं हो सकता। अगर आप मुझे क्षमा करें तो मैं कहूंगा कि हिन्दू धर्म ने आज के बौद्ध धर्म का जो अंश आत्मसात नहीं किया है, वह बुद्ध के जीवन और शिक्षाओं का मुख्य अंश ही नहीं था।
मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि बौद्ध धर्म, या कहिए बुद्ध की शिक्षाएं हिन्दुस्तान में पूरी तरह फलीभूत हुईं। इसके सिवा दूसरा कुछ हो भी नहीं सकता था, क्योंकि गौतम स्वयं हिन्दुओं में श्रेष्ठ हिन्दू थे। उनकी नस-नस में हिन्दू धर्म की सभी खूबियां भरी पड़ी थीं। वेदों में दबी हुई कुछ शिक्षाओं में, जिनके सार को भुलाकर लोगों ने छाया को ही ग्रहण कर रखा था, उन्होंने जान डाल दी। उनकी महान हिन्दू भावना ने निरर्थक शब्दों के जंजाल में दबे हुए वेदों के अनमोल सत्यों को जाहिर किया। उन्होंने वेदों के कुछ शब्दों से ऐसे अर्थ निकाले, जिनसे उस युग के लोग बिलकुल अपरिचित थे और उन्हें हिन्दुस्तान में इसके लिए सबसे अनुकूल वातावरण मिला।
बुद्ध का अनुयायी कहे जाने का खतरा उठाकर भी मैं इसे हिन्दू धर्म की ही विजय कहता हूँ। उन्होंने हिन्दू धर्म को कभी अस्वीकार नहीं किया, केवल उसका आधार विस्तृत कर दिया। उन्होंने इसमें एक नई जान फूंक दी, इसको एक नया ही रूप दे दिया।
परमात्मा के नियम शाश्वत और अटल हैं। वे परमात्मा से अलग नहीं किये जा सकते हैं। ईश्वर की पूर्णता की यह अपरिहार्य शर्त है, इसलिए यह भ्रान्ति फैली कि गौतम बुद्ध का परमात्मा में विश्वास नहीं था और वे सिर्फ नैतिक नियमों में ही विश्वास करते थे. स्वयं ईश्वरके बारे में यह भ्रान्ति फैलने से ही निर्वाण के बारे में भी मतिभ्रम हुआ है। निर्वाण का अर्थ अस्तित्व का सम्पूर्ण अन्त तो बेशक नहीं है। बुद्ध के जीवन की मुख्य बात जो मैं समझ सका हूँ, वह यह है कि निर्वाण का अर्थ है, हममें से सभी बुराइयों का बिलकुल नष्ट हो जाना, सभी विकारों का नेस्तनाबूत हो जाना, हमारे अन्दर जो कुछ भ्रष्ट है या भ्रष्ट हो सकता है, उसकी हस्ती मिट जाना। निर्वाण श्मशान की मृत शान्ति नहीं है। वह तो उस आत्मा की जीवन्त शान्ति और सुख है, जिसने अपने आपको पहचान लिया हो और अनन्त प्रभु के हृदय के भीतर अपना निवास ढूंढ़ निकाला हो ।
उन्होंने सभी प्राणियों के जीवन का आदर करना सिखलाया, चाहे वे कितने ही छोटे क्यों न हों। मैं जानता हूँ कि उनका अपना भारत उस ऊँचाई तक नहीं उठा, जितना ऊँचा वे उसे देखना चाहते थे, मगर जब उनकी शिक्षाएँ दूसरे देशों में बौद्ध धर्म के नाम से पहुँचीं, तब उनका यह अर्थ लगने लगा कि पशुओं के जीवन की वही कीमत नहीं है, जो मनुष्यों के जीवन की है। मुझे लंका के बौद्ध धर्म के रिवाजों और विश्वासों का ठीक पता नहीं है, मगर मैं जानता हूँ कि चीन और बर्मा में उसने कौन-सा रूप धारण किया है। खासकर बर्मा में कोई बौद्ध खुद एक भी जानवर नहीं मारेगा, मगर दूसरे लोग उसे मार और पकाकर लायें तो उसे खाने में उसको कोई झिझक नहीं होगी। संसार में अगर किसी शिक्षक ने यह सिखाया है कि हरएक कर्म का फल अनिवार्य रूप से मिलता है तो गौतम बुद्ध ने ही सिखाया है, मगर तब भी, आज हिन्दुस्तान के बाहर के बौद्ध यदि उनसे बने तो, अपने कमों के फलों से बचने की कोशिश करने से बाज नहीं आयेंगे, मगर मुझे आपके धैर्य की और परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। मैंने उन कुछ-एक बातों का थोड़ा जिक्र-भर किया है, जिन्हें आपके सामने लाना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ और मैं बड़ी नम्रता के साथ और आग्रहपूर्वक आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप उन पर ध्यान से विचार करें।…
(यंग इंडिया (24-11-1927) से)
-महात्मा गांधी
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