आज के जमाने में चरखे का अर्थशास्त्र क्या है? क्या चरखा योग, व्यायाम और अध्यात्म साधना का माध्यम भी हो सकता है? हो सकता है। अगर हम अपने श्रम से किसी को एक वस्त्र बनाकर देते हैं, तो इससे उत्तम दूसरी कोई बात नहीं हो सकती. इससे अधिक आनन्ददायक और कुछ नहीं हो सकता. इसमें आध्यात्मिक जुड़ाव भी है। चरखा कातते समय आदमी एकदम से एकाग्र रहता है।मेरे लिए चरखा चलाना योग के बराबर है, पूजा के बराबर है।
महात्मा गांधी ने चरखे का इस्तेमाल ब्रिटिश साम्राज्य का मुकाबला करने के लिए और करोड़ों लोगों को रोजगार देने के लिए किया था। इसके लिए कपास की खेती से लेकर रुई की पूनी बनाने, सूत कातने, कपड़ा बुनने और फिर लोगों को बेचने के लिए गांधी आश्रमों, खादी भंडारों की एक पूरी श्रृंखला सुनियोजित ढंग से विकसित की गयी थी। अब आज के स्वतंत्र भारत में जब हमें लंदन से आयातित कपड़े का ख़तरा नहीं है, तब चरखे की उपयोगिता क्या हो सकती है? आज के जमाने में चरखे का अर्थशास्त्र क्या है? क्या चरखा योग, व्यायाम और अध्यात्म साधना का माध्यम भी हो सकता है? हो सकता है। यह बात मैं उदाहरण देकर बताना चाहूँगा।
इन्हीं सब सवालों के साथ मैं कुछ साल पहले खादी विशेषज्ञ ब्रजभूषण पांडेय से मिला था। हालांकि वे अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनसे हुई वह मुलाक़ात मुझे आज भी याद है। उनका घर लखनऊ के अलीगंज इलाक़े में है। मैं जब उनके आलीशान बंगले पर पहुँचा, तो बरामदे में गांधी का अंबर चरखा चल रहा था। ब्रजभूषण पांडेय युवावस्था से ही नियमित रूप से रोज सुबह पूजा की तरह चरखा चलाते थे।
ब्रजभूषण पांडेय 5 मई 1955 को खादी का काम सीखने बनारस के समीप सेवापुरी गए। वहां प्रशिक्षण में दाखिला लिया। वहां से उपाधि मिली। उन्होंने हर प्रकार के चरखे चलाने का प्रशिक्षण लिया।
उनकी पत्नी ऊषा पांडेय तो स्वतंत्रता सेनानी परिवार से नहीं थीं, लेकिन शादी के बाद अपने पति के साथ -साथ वह भी चरखा चलाने लगीं। ऊषा पांडेय का कहना था कि उनके पास अपने बेटे को कोचिंग में पढ़ाने के लिए पैसे नहीं थे। इसलिए बेटे ने भी चरखा कातकर अपने लिए फीस जुटाई और अब वे एक बड़े डॉक्टर हैं। उन्होंने मुझे बताया कि चरखा चलाने के लिए थोड़ा उसके पुर्ज़ों को समझना पड़ता है।
उन्होंने बताया कि वह चरखे में इतनी सिद्धहस्त हैं कि केवल चरखा ही नहीं चला सकती, बल्कि चरखा चलाने के साथ और कुछ काम, जैसे किताब पढ़ना भी करती रहती थीं।
उन्होंने उससे भी महत्वपूर्ण बात यह बतायी कि अगर हम अपने श्रम से किसी को एक वस्त्र बनाकर देते हैं, तो इससे उत्तम दूसरी कोई बात नहीं हो सकती. इससे अधिक आनन्ददायक और कुछ नहीं हो सकता.
बृजभूषण पांडेय ने हमें बताया था कि दिल्ली, लखनऊ, देहरादून और कई बड़े शहरों में ऊंचे-ऊंचे पदों पर बैठे कई बड़े अफसर और उनकी पत्नियां भी चरखा चलाती हैं।
उन्होंने अपना उन दिनों का एक अनुभव बताया, जब वे मुरादाबाद में तैनात थे। वे एसएसपी मुरादाबाद के पास गये तो देखा कि उनके पास कपड़ों की बहुत कमी थी, वे बहुत ईमानदार व्यक्ति थे। उन्होंने उन्हें भी चरखा दिया, जो उनकी पत्नी चलाती थीं. उन्होंने चरखा चलाकर अपने लिए तथा अपने बच्चों के लिए कपड़े और चादरें तैयार कीं।
रोगों से भी मुक्ति
ऊषा पांडेय का कहना था कि चरखा स्वावलंबन और रोजगार के अलावा रोगों से मुक्ति भी दिलाता है।आप देखिये, हमारे हाथ में यहां गांठ है। बड़े बड़े डॉक्टरों ने बोला कि इसको हम बायप्सी जांच के लिए भेजेंगे, यानी इसका एक टुकड़ा काटकर जाँच करेंगे, तब यह ठीक होगा। बनारस के एक डॉक्टर ने कहा कि रस्सी डाल दीजिये और यूं करके खींचिये। मैंने कहा, मैं बेकार के काम क्यों करूं। मैंने चरखा चलाया और हमारी बीमारी गायब हो गयी।
बृजभूषण पांडेय पर उस समय श्री गांधी आश्रम के संयुक्त महामंत्री की जिम्मेदारी थी। श्री गांधी आश्रम देश भर में खादी और दूसरे ग्रामोद्योगों के संचालन का काम करता है।
उन्होंने मुझे बताया था कि शहरों में तो चरखे का चलन कम हो गया है, पर इस चरखे को गांव में लोग आज भी चला रहे हैं। महिलाएँ भी चलाती हैं।
आध्यात्मिक जुड़ाव
ब्रजभूषण पांडेय का कहना था कि इसमें आध्यात्मिक जुड़ाव भी है। चरखा कातते समय आदमी एकदम से एकाग्र रहता है।मेरे लिए चरखा चलाना योग के बराबर है, पूजा के बराबर है।
एक और खादी कार्यकर्ता महेश ने भी बताया था कि देश भर में करीब 15 लाख ऐसे परिवार हैं, जिनकी रोजी-रोटी चरखे से जुड़ी है। महेश भाई चाहते थे कि खादी का स्वरूप बना रहे। आज सबसे बड़ा सवाल बेरोजगारी का है। देहातों में इसके अलावा नियमित और पक्के रोज़गार का अभी तक कोई रास्ता नहीं मिला है।
वास्तव में खेती फुल टाइम रोज़गार नहीं है। अगर किसान बीच बीच के ख़ाली समय में चरखा कातकर सूत बनाने, कपड़ा बुनने, दरी-क़ालीन बुनने या अन्य किसी कुटीर उद्योग में लगता है, तो उसके परिवार को अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए शहर नहीं भागना पड़ेगा।
खादी के काम में लगे लोगों का कहना है कि भाजपा सरकार की नीतियों से खादी उद्योग को बड़ा झटका लगा है। एक बार मैं खादी ग्रामोद्योग आयोग के एक बड़े अफ़सर आरएस पांडेय के साथ हरदोई के मल्लावाँ क़स्बे में गया था। मल्लावाँ में के बड़ा ख़ादी भंडार और उत्पादन केंद्र है। वहाँ आसपास के गाँवों से बड़ी संख्या में महिलाएँ आज भी सूत कातने आती हैं। कपड़ा बुना और रंगा भी जाता है। पर बातचीत से मालूम हुआ कि ख़ादी ग्रामोद्योग आयोग के नियमों के कारण मज़दूरी कम है। बुनकर की मज़दूरी तो बहुत ही कम है। इस बात की कोशिश होनी ही चाहिए कि दिन भर के काम के बाद कम से कम चार, पाँच सौ रुपए मज़दूरी मिल जाए, अन्यथा आज की मंहगाई में कैसे गुज़ारा होगा और कोई क्यों इस सेक्टर में काम करना चाहेगा?
मैंने यह बात सरकार के अनेक बड़े अधिकारियों को बतायी भी, पर लगता नहीं कि कुछ हुआ। खादी एवं कुटीर उद्योग को बढ़ावा देने से करोड़ों लोगों को घर पर ही रोज़गार मिल सकता है।
बड़े दिनों से मेरी इच्छा है कि मैं चरखा चलाना सीखूँ। मैं साबरमती आश्रम से एक चरखा ख़रीदकर लाया भी हूँ। पर अब तक कोई सिखाने वाला नहीं मिला।
-राम दत्त त्रिपाठी
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