दुनिया में आज सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्र में कुछ हलचलें चल रही हैं। कुछ हलचलें ऐसी भी चलती हैं, जैसी हम चला रहे हैं कि समाज-रचना की बुनियाद ही बदल दें – ‘मैं’ की जगह ‘हम’ की स्थापना करें, परिवार बड़ा बनायें और विश्व को कुटुम्ब समझें। यह जो दूसरा काम है, उसकी बुनियाद है नया और परिवर्तित मन। पुराना मन वह है, जो पुराने ढंग से सोचता है। राग-द्वेष, मान-अपमान, ऊंच-नीच भाव, अहंकार, वासना आदि कायम रखकर हम जो सोचते हैं, चित्त की वह आदत छुड़ा देनी चाहिए। चित्त को एक नया परिवेश प्राप्त हो। वह विकारों में न फंसकर निर्विकार भूमिका में रहे और आत्मा में स्थित शक्ति-स्रोत का उसे स्पर्श हो। ऐसे चित्त का नमूना देखने को कहीं मिले, तो वह विश्व में फैल सकता है। आज विश्व को उसकी चाह है।
मुक्त चित्त : चित्त की अनेक शक्तियां हैं। हमें उन सब चैतसिक शक्तियों से परे हो जाना है। सबसे बड़ी आध्यात्मिक वस्तु यह मानी जायेगी कि जैसे हम घड़ी से भिन्न हैं, वैसे ही चैतसिक शक्तियों से भी बिलकुल भिन्न हैं, यह अनुभव करें। मान लीजिये, घड़ी का उपयोग है, इसलिए घड़ी की तरफ ध्यान दिया और उसका उपयोग किया। घड़ी निर्माण की तो अच्छा काम किया, दुनिया के लिए उपयोगी ही काम हुआ। लेकिन कोई आध्यात्मिक कार्य किया, ऐसा नहीं माना जाता। इसी तरह चैतसिक शक्तियों के बारे में सोचना होगा। उसका कुछ सदुपयोग किया जाता है तो कुछ दुरुपयोग भी। जैसे विज्ञान के भी दोनों उपयोग हो सकते हैं। वह भी खोज है और विज्ञान का ही एक विषय है। कोई उसका विज्ञान बनाये और प्रयोग करे तो करे। लेकिन यह पक्का ध्यान रहे कि उसका अध्यात्म के साथ कोई संबंध नहीं। इसलिए उस चित्त से अपनी भिन्नता हमें महसूस करनी चाहिए। काम करते-करते सब कामों से चित्त को अलग रखने का अभ्यास करना चाहिए। यह कहने, सुनने आदि से प्राप्त नहीं होगा। इस दिशा में चित्त को गति देनी होगी।
निवृत्त चित्त : इसके लिए चित्त को निर्लिप्त रखने की चेष्टा करनी होगी। वह सतत जागरूक रहे और उसकी चेष्टा मात्र हो। वह चेष्टा क्रिया न बने। जहां क्रिया आयेगी, वहां वृत्ति आयेगी। हम चाहते हैं कि वृत्ति नहीं, स्थिति रहे। ‘मैं मनुष्य हूं’ इसका हमें जप नहीं करना पड़ता। वह सहज स्मृति है। यद्यपि वह स्मृति निद्रा और मृत्यु में नहीं रहती, इसलिए वह भी मनुष्य की सर्वथा मूलभूत स्थिति नहीं है। लेकिन निरंतर अभ्यास के कारण मनुष्य के लिए ‘मानवता’ स्वाभाविक हो जाती है, तो वह चित्त पर बोझ नहीं बनती।
अज्ञान का ज्ञान : मनुष्य के लिए वाणी ईश्वर की देन है। वह भी आत्मा पर एक अभ्यास है। उपनिषदों में कहा है : तमभित आह जानासि माम्, जानासि माम् – ‘जो परमात्मा के पास जा रहा है, उसके आसपास के लोग उसे देखते हैं और जान लेते हैं कि अंतिम घड़ी आ गयी है; अब यह जा रहा है, तो मां आकर उससे पूछती है : ‘मैं कौन हूं, यह जानते हो?’ बाप भी यही पूछता है। उसने जवाब दिया तो वे समझते हैं कि ‘वह है’ और जवाब नहीं दिया तो समझते हैं ‘नहीं है’।
वाणी का मन में, मन का बुद्धि में, बुद्धि का प्राण में, प्राण का परमात्मा में लीन होना एक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया जैसे निद्रा में होती है, वैसे ही मृत्यु में भी। यह अज्ञान बहुत पवित्र अज्ञान है। इसका ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। आत्मा ज्ञानी नहीं, ज्ञानस्वरूप है। ज्ञानी तो आत्मा से भिन्न है। इसलिए वह आत्मा नहीं, बुद्धि है। इसलिए यह प्रक्रिया होती है और लोग मरने वाले से पूछते हैं।
चित्त की प्रसन्नता : यह एक गलत ख्याल है कि दु:ख मिट जायेंगे तो चित्त प्रसन्न होगा। चित्त प्रसन्न होता है, तब दु:ख मिट जाता है। चित्त की प्रसन्नता कोई बाहरी कार्यक्रम पर निर्भर नहीं। यदि बाहर के किसी कार्यक्रम पर वह निर्भर हो तो कार्यक्रम बदल जाने पर प्रसन्नता भी समाप्त हो जायेगी। यानी वह अपने हाथ की बात नहीं रहेगी। इसलिए प्रथम यह ध्यान में आना चाहिए कि अपनी प्रसन्नता के लिए हम परावलंबी हैं या स्वावलंबी।
त्रि-परावलंबन : परावलंबन तीन प्रकार से हो सकता है : परिस्थिति-अवलंबन, कार्यक्रम – अवलंबन और समाज-अवलंबन। जैसे कुछ बातें परिस्थिति पर निर्भर करती हैं। बारिश अच्छी हुई तो खुश, नहीं तो फसल अच्छी न होने से दु:खी – यह परिस्थिति-अवलंबन हुआ। फिर जिस समाज में हम रहते हैं, उस समाज पर हमारी प्रसन्नता निर्भर रहती है। यदि सामने वाला चिढ़ जाय तो हम भी चिढ़ जायेंगे। यदि वह हमारी सेवा करे तो हम खुश, नहीं तो नाराज–यह हुआ समाज-अवलंबन। तीसरा प्रकार है, कार्यक्रम अवलंबन। कोई एक प्रणाली रही तो प्रसन्नता और उसमें अंतर पड़ा तो प्रसन्नता गायब। हम सब एक जगह रहते हैं, जीवन एक ढंग से चलता है तो आनंद है। कार्यक्रम बदल जाय तो मनुष्य के चित्त की अवस्था गड़बड़ा जाती है। इस प्रकार मनुष्य तीन अवलंबों पर निर्भर रहता है। तीनों अच्छे रहें तो प्रसन्नता है।
जब चाहे तब खोल किवरवा : लेकिन तीनों अच्छे रहने पर भी यदि चित्त में निर्विकारता न हो तो मनुष्य प्रसन्न नहीं रहता। इसके विपरीत तीनों प्रतिकूल रहने पर भी यदि चित्त में निर्विकारता हो तो मनुष्य प्रसन्न रहेगा। इसका अर्थ यह नहीं कि बाहर की ये तीनों चीजें अच्छी न बनायें। उन्हें अनुकूल बनाने की कोशिश करें। फिर भी उनके शत-प्रतिशत अनुकूल होने के बाद ही चित्त प्रसन्न करने की सोचेंगे तो वह कभी प्रसन्न नहीं रहेगा। कारण, ये तीनों स्थितियां शत-प्रतिशत अनुकूल बनें, यह कब संभव है। अनुकूल बनने पर भी चित्त के विकार कायम रहें तो उनकी अनुकूलता में भी अप्रसन्नता ही रहेगी। इसलिए प्रसन्नता हमारे हाथ में रहनी चाहिए। उसमें स्वावलंबी बनना चाहिए। ऐसा होना चाहिए कि जब चाहे तब खोलो किवरवा – हमारे हाथ में ताला-कुंजी है, जब चाहे तब किवाड़ खोलते हैं। हमें आत्म-निर्भर बनना चाहिए। तभी प्रसन्नता का झरना बहेगा।
(अध्यात्म-तत्व-सुधा)
-विनोबा
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