चुनाव खर्च की सीमा और चंदे की पारदर्शिता, दो अहम मुद्दे हैं, जिन पर बात तो कई दशक से हो रही है, पर बात बनने के बजाय बिगड़ती ही गयी है. अभी चुनाव आयोग ने एक नया सुझाव देकर बहस को फिर से ज़िन्दा कर दिया है. माना जाता है कि राजनीतिक दल अपनी दो नंबर या भ्रष्टाचार की कमाई को लोगों से नक़द चंदा दिखाकर एक नंबर में बैंक में लाते हैं और फिर चुनाव के दौरान अनिवार्यत: एक नंबर में होने वाले खर्च में एडजस्ट करते हैं. सबको मालूम है कि राज्यों या केंद्र में सत्तारूढ़ दलों की आय का एक बड़ा ज़रिया विकास कार्यों, यानि सरकारी निर्माण और ख़रीद फ़रोख़्त में मिलने वाला कमीशन है. यह कमीशन तीस से चालीस प्रतिशत तक होता है. चुनाव आयोग ने भारत सरकार के क़ानून मंत्रालय को सुझाव दिया है कि राजनीतिक दलों को नक़द मिलने वाले चंदे की सीमा घटाकर दो हज़ार रुपये कर दी जाय और कुल चंदे में नक़द की सीमा बीस प्रतिशत या बीस करोड़ रुपये तक सीमित कर दी जाय. लेकिन यह समस्या का बहुत छोटा पहलू है. राजनीतिक दलों के पास ऐसे हिसाब- किताब बनाने वाले हैं, जो इसको भी मैनेज कर लेंगे और कोई ठोस फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. अभी कुल चंदे में नक़द का हिस्सा दस फ़ीसदी से कम है और अगर चुनाव आयोग की सलाह के मुताबिक़ क़ानून बदल भी गया, तो भी, चंदे के अज्ञात स्रोत का खुलासा नहीं होगा.
अब चंदे का दूसरा बड़ा अज्ञात स्रोत एलेक्टोरल बांड हैं. बड़ी-बड़ी कंपनियां ये बांड ख़रीदकर राजनीतिक दलों को देती हैं. ऐसा लगता है कि इस व्यवस्था से लाभान्वित क्षेत्रीय या राष्ट्रीय दल एलेक्टोरल बांड की व्यवस्था में पारदर्शिता नहीं चाहते. कंपनियाँ दलों की राजनीतिक हैसियत के मुताबिक़ उन्हें एलेक्टोरल बांड देती हैं. लेकिन इस सांठगांठ का खुलासा होना ज़रूरी है. एलेक्टोरल बांड के इस गोरखधंधे के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में सालों से याचिका लंबित है और उस पर सुनवाई शुरू भी नहीं हुई है. ऐसे में अगर चुनाव आयोग सचमुच राजनीतिक दलों के चंदे में पारदर्शिता चाहता है, तो उसे एलेक्टोरल बांड को पारदर्शी बनाने की मुहिम चलानी चाहिए और ज़रूरी हो तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा भी खटखटाना चाहिए.
पैसा इकट्ठा करने या दो नंबर से एक नंबर करने के लिए राजनीतिक दल कूपन भी बेचते हैं. राष्ट्रीय दलों ने पिछले साल कूपन बेचकर क़रीब एक सौ सत्तर करोड़ रुपये कमाये. चुनाव आयोग को चाहिए कि इस कूपन वाली व्यवस्था में भी सुधार लाये. कम से कम कूपन ख़रीदने वालों का नाम-पता तो मालूम होना ही चाहिए.
बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दल अनिवार्य हैं और उन्हें अपने कामकाज के लिए लोगों, उद्योग घरानों या कंपनियों से चंदा मिलना चाहिए. इसमें भी कोई ऐतराज़ नहीं हो सकता. सवाल उसे पारदर्शी बनाने का है. लोगों को पता चलना चाहिए कि किस राजनीतिक दल को कौन-सी कंपनियां या औद्योगिक घराने आर्थिक मदद दे रहे हैं. इससे नागरिकों को यह अंदाजा लगाने में भी सुविधा होगी कि राजनीतिक दल जो उद्योग, कृषि और अर्थनीति प्रस्तावित करते हैं, उनके पीछे कौन-सी ताक़तें हैं.
चंदे के साथ-साथ खर्च की सीमा भी एक अहम सवाल है. यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि लगभग शत प्रतिशत उम्मीदवार खर्च का झूठा विवरण जमा करते हैं. चुनाव आयोग की तरफ़ से तैनात होने वाले प्रेक्षक, उम्मीदवारों के खर्च पर बहुत कारगर रोक नहीं लगा पाते. प्रत्याशी न केवल अपने बूथ मैनेजर्स, बल्कि वोटरों को भी नक़द प्रलोभन देते हैं, जिसका हिसाब में ज़िक्र नहीं होता. इसके अलावा राजनीतिक दलों पर किसी चुनाव क्षेत्र में होने वाले खर्च की कोई सीमा ही निर्धारित नहीं है. अब तो इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया, उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों से प्रचार का पैकेज तय करते हैं. इसमें एक बड़ा हिस्सा ब्लैक मनी का होता है. लाभार्थी मीडिया भला इस मुद्दे पर क्यों अभियान चलायेगा?
अब यह काम आम नागरिकों का है कि चुनावी चंदे की पारदर्शिता और खर्च की सीमा बांधने के लिए अभियान चलायें. हमें यह समझना होगा कि कारपोरेट घरानों के गुप्त चंदे और भ्रष्टाचार की काली कमाई से चुनाव लड़ने वाले दलों और प्रत्याशियों से लोकतंत्र मज़बूत नहीं हो सकता। इस तरह से चुनी गयी संसद और विधान सभाएँ सरकार को जवाबदेह नहीं बना सकतीं। ब्लैक मनी से चुनाव जीतने वाले जन प्रतिनिधियों से स्वच्छ और जनता के प्रति संवेदनशील राजनीति तथा जन पक्षधर शासन प्रशासन की उम्मीद करना भी अपने आपको धोखा देना है.
-राम दत्त त्रिपाठी
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