केंद्र सरकार ने 2017-18 के केंद्रीय बजट में चुनावी बॉन्ड योजना की शुरुआत की थी। इसका उद्देश्य देश में राजनीतिक फंडिंग की प्रणाली को साफ करना था। आज पांच साल बीत जाने के बाद सवाल यह है कि क्या यह लक्ष्य हासिल हुआ?
चुनावी बांड वे बांड हैं, जिन्हें निजी इकाइयां नामित किये गये बैंक (वर्तमान में भारतीय स्टेट बैंक) से खरीद सकती हैं और उन्हें किसी राजनीतिक दल को दान कर सकती हैं। माना जाता है कि राजनीतिक दलों को धन दान करने का यह एक गुमनाम तरीका है, क्योंकि इसमें दाता की पहचान का खुलासा नहीं किया जाता है। राजनीतिक दलों को कथित रूप से वैध धन प्रदान करने के लिए ये बांड चुनावों के समय के आसपास उपलब्ध हो जाते हैं। आंकड़े बताते हैं कि ज्यादातर फंड सत्ताधारी दल के पास जाते हैं और उन्हें सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने में मदद करते हैं।
योजना
इस योजना में इस तरह की व्यवस्था की गयी है कि चंदे की गोपनीयता बनाये रखने के लिए आयकर विभाग चंदे की जांच नहीं कर सकता, चुनाव आयोग उनकी जानकारी नहीं मांग सकता, इसलिए जनता को पता नहीं चल सकता कि कौन दान कर रहा है। उल्लेखनीय है कि तत्कालीन चुनाव आयोग ऐसी गैर-पारदर्शिता के पक्ष में नहीं था। भारतीय रिजर्व बैंक ने ऐसी किसी योजना को मंजूरी नहीं दी थी। वास्तव में योजना की घोषणा से पहले इन दोनों में से किसी से भी परामर्श नहीं किया गया था। संसद में वित्त मंत्री ने इस बात का जिक्र किया था कि लोग गुमनामी चाहते हैं, लेकिन जब सूचना के अधिकार कानून के जरिए पूछा गया कि ये कौन लोग हैं, तो कोई जवाब नहीं मिला।
आम जनमानस के लिए बॉन्ड की अपारदर्शिता को देखते हुए, यह संभव है कि सत्ताधारी दल और दाता के बीच इस अनैतिक आदान प्रदान के जरिये लाभ का रिश्ता बन जाए। वास्तव में इसे खुली आँखों के सामने ली जाने वाली रिश्वत कहा जा सकता है।
अजीब बात है कि जनता और चुनाव आयोग यह पता नहीं लगा सकता कि कौन किसे दान कर रहा है, लेकिन सत्ता में रहने वाली पार्टी इस जानकारी तक पहुंच सकती है। बॉन्ड जारी करने वाले बैंक के पास दान देने वाली संस्था और बॉन्ड को भुनाने वाली पार्टी का रिकॉर्ड होता है। यह देखते हुए कि बैंक प्रबंधन काफी हद तक वित्त मंत्रालय के नियंत्रण में होता है, सत्ता पक्ष इस सूचना तक आसानी से पहुँच सकता है।
इन विषमताओं और अपारदर्शिता को देखते हुए कुछ जागरूक सार्वजनिक संस्थाएं 2018 में ही योजना के खिलाफ अदालत में गयीं। तब से यह मामला विचाराधीन है और सुप्रीम कोर्ट ने अपने विवेक से इस योजना पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया है।
चुनाव में काला धन
भारत में चुनाव लड़ने के लिए, चाहे वह स्थानीय निकायों के लिए हो या राज्य या राष्ट्रीय विधायिकाओं के लिए, बड़ी मात्रा में अवैध धन का उपयोग किया जाता है। 1998 के लोकसभा चुनावों में 14 सांसदों के एक सर्वेक्षण में, इस लेखक ने पाया कि वास्तविक औसत व्यय, अनुमानित व्यय का आठ गुना था। साक्षात्कार में शामिल सांसदों ने कहा कि दानदाताओं ने उनसे अनुचित लाभ की अपेक्षा की। समय के साथ इस खर्च में गुणात्मक वृद्धि होती ही गयी है।
चूंकि चुनावी खर्च की सीमा से ऊपर का कोई भी खर्च अवैध है, इसलिए ये खर्च चोरी-छिपे होते हैं। इन ख़र्चों को बही खातों में नहीं दर्ज किया जा सकता, इनकी पूर्ति अवैध स्रोतों और काली आय से की जाती है। चुनाव के दौरान चुनाव आयोग की चेकिंग ने इसमें थोड़ी बहुत सेंध लगाई है।
आदान प्रदान के जरिये लाभ के इस खेल में नीतियों में उलटफेर किया जाता है और आम मतदाताओं को हाशिए पर धकेल दिया जाता है, जो आम तौर पर ख़ास उम्मीदवार को वोट देने के लिए रिश्वत लेते हैं। हालाँकि, चुनाव के समय मतदाताओं को जो कुछ मिलता है, वह उनके खिलाफ नीतियों को उलटने से होने वाले नुकसान की तुलना में बहुत कम होता है। इसके विपरीत, उम्मीदवारों को धन देने वाले निहित स्वार्थ अपने अवैध चंदे का कई गुना लाभ लेते हैं। डाटा व्यापारिक घरानों के लिए यह सबसे अच्छा निवेश है, क्योंकि उन्हें उनके अनुकूल नीतियां, अनुबंध और गलत काम करने के लिए अभियोजन पक्ष से सुरक्षा मिलती है।
राष्ट्र और लोक कल्याण के लिए सरकार चलाने वाले राजनेताओं को काले धं कि इस अर्थव्यवस्था के प्रभाव से मुक्त करने की आवश्यकता है। कानूनी या अवैध धन द्वारा वित्तपोषित चुनावी बांड के माध्यम से दिया जाने वाला दान, नीति निर्माताओं पर अनुचित प्रभाव को रोकने में भला कैसे मदद करेगा?
ये बांड्स क्यों?
क्या चुनावी बांड का उपयोग देश में काले धन के निर्माण को रोकने के बड़े उद्देश्य को पूरा कर सकता है? पांच साल के एक चक्र में विभिन्न चुनावों में लगभग दो लाख करोड़ रुपये का उपयोग किया जाता है, यानी लगभग 40,000 करोड़ रूपये प्रति वर्ष। वर्तमान सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 270 लाख करोड़ रूपये का यह 0.15 प्रतिशत होता है। सालाना जारी किए जाने वाले कुछ हज़ार करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड, जीडीपी और ब्लैक इकॉनमी दोनों का और भी छोटा प्रतिशत होते हैं, इसलिए इलेक्टोरल बॉन्ड चुनावों में काली कमाई के इस्तेमाल की समस्या का समाधान नहीं हो सकते।
सीमा से अधिक चुनाव खर्च अवैध धन के माध्यम से किया जाता है। इलेक्टोरल बॉन्ड का इस्तेमाल न तो इस जरूरत को पूरा करने के लिए किया जा सकता है और न ही ये व्यक्तिगत उम्मीदवारों को मिलते हैं, इसलिए अवैध फंड की जरूरत खत्म नहीं होती है।
राजनीतिक दलों के खातों की ऑडिटिंग से चुनावों में काली कमाई के इस्तेमाल को रोकना मुश्किल है। कंपनियों के खातों का ऑडिट होता ही है, फिर भी वे विभिन्न माध्यमों से काली कमाई करते रहते हैं। राजनीतिक दल भी गुप्त रूप से प्राप्त वास्तविक राशि को छिपाने के लिए समान हथकंडे अपनाते हैं। इस प्रकार, भले ही चुनावी बॉन्ड वैध धन पर आधारित हों, वे राजनीतिक दलों द्वारा जुटाए गए अवैध धन के उपयोग को नहीं रोक सकते।
महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनावी खर्च की सीमा उम्मीदवारों पर लागू होती है, न कि राजनीतिक दलों पर। इलेक्टोरल बांड केवल राजनीतिक दलों को दान किया जा सकता है, न कि व्यक्तिगत उम्मीदवारों को। इसलिए, सीमा से अधिक और व्यक्तिगत उम्मीदवार के भारी खर्च को अवैध धन के माध्यम से पूरा करना पड़ता है। जबतक जीतने के लिए उम्मीदवारों को लेन-देन का सम्मान करने की मजबूरी बनी रहेगी, तबतक यह अवैधता बनी रहेगी, चाहे कोई बॉन्ड हो या न हो।
क्या है, जो चुनावों को महंगा बनाता है?
वे अमीर, जो राजनेताओं और पार्टियों को पर्याप्त रकम दान करते हैं, यह सब कालेधन की शक्ल में करते हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि उनका नाम सामने आए। वे सभी पार्टियों को चंदा देते हैं, लेकिन नहीं चाहते कि सत्ताधारी पार्टी को यह पता चले। राजनीतिक दल भी नहीं चाहते कि जनता को पता चले कि एक गरीब देश में कौन-से व्यवसायी उन पर उपकार कर रहे हैं, यह उनकी छवि को धूमिल कर सकता है। चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों को इतने पैसे की आवश्यकता क्यों पड़ती है, यह चिंता की बात है।
भारत में चुनावी लोकतंत्र तब आया, जब सामंती चेतना कायम थी। लोग कई कारणों से मतदान करते हैं, न कि केवल निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवार के प्रदर्शन के आधार पर। अक्सर लोग अपनी जाति और समुदाय के उम्मीदवारों को वोट देते हैं, चाहे वे कितने ही भ्रष्ट क्यों न हों। वे उम्मीद करते हैं कि यह व्यक्ति उनके सही या गलत काम करेगा। आजकल काम, चाहे सही हो या गलत, बाहुबल की माँग करता है। अक्सर धमकाने वाले दबंग लोग चुने जाते हैं, क्योंकि वे उन सही गलत कामों को करा सकते हैं। लोगों का कहना है कि वे उम्मीदवारों की ईमानदारी के बावजूद हारने वाले को वोट देकर अपना वोट बर्बाद नहीं करना चाहते हैं।
ऐसे लोग विरले ही होते हैं, जो लोगों की मदद करते हों और चुनाव जीतते हों। कभी-कभी ऐसे उम्मीदवार, जो निर्वाचन क्षेत्र से संबंधित भी नहीं होते हैं, निर्वाचन क्षेत्र के भीतर अपने समीकरणों के कारण चुनाव जीत जाते हैं। जाहिर है, जनता मतदान के समय प्रदर्शन के अलावा कुछ और तलाश रही होती है।
उम्मीदवार अपने निर्वाचन क्षेत्र में लोगों को यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि उनका दबदबा है और वे परिणाम दे सकते हैं। दबदबा दिखाने के लिए बड़ी-बड़ी रैलियों, रोड शो, पोस्टर, कट-आउट, सोशल मीडिया की बाढ़, वोट बैंक के रखरखाव आदि की जरूरत होती है। नकद और उपहार चुनाव के दिन से ठीक पहले वितरित किए जाते हैं। इन सभी के लिए बहुत अधिक धन की आवश्यकता होती है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने चुनाव के दौरान लोगों से अन्य राजनीतिक दलों से उपहार लेकर अपनी पार्टी के कथित ईमानदार उम्मीदवारों को वोट देने की अपील की थी, लेकिन ‘आपने हमारा नमक खाया है’ की प्रचलित सामंती चेतना के कारण यह सफल नहीं हुआ।
चुनावी बांड अपने घोषित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते
भारत में चुनाव महंगे हो गए हैं, क्योंकि समाज में सामंती चेतना व्याप्त है और उम्मीदवारों के प्रदर्शन के आधार पर मतदान शायद ही कभी होता है। राजनीतिक दलों के लिए बॉन्ड अवैध रूप से एकत्र की गई राशि से अधिक अतिरिक्त धन देते हैं। पार्टी के खातों का ऑडिट मदद नहीं कर सकता, क्योंकि ऑडिट केवल घोषित धन का होता है। इस प्रकार चुनावी बांड योजना राजनीतिक चंदे को साफ करने में सफल नहीं हो सकती।
-प्रो अरुण कुमार
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