कोरोना के पहले दौर में तो क्वारंटाइन और लॉकडाउन की अवधि, संक्रमण का डर, निराशा, ऊब, अपर्याप्त आपूर्ति, अपर्याप्त जानकारी, वित्तीय हानि, और कोरोना का कलंक जैसे तनाव के कई स्रोत मौजूद थे। उनका भी तो मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ा होगा? और उनका क्या, जो दोनों ही लहरों में किसी न किसी रूप में प्रभावित हुए?
कोविड-19 के जवाब में 24 मार्च 2020 के लॉकडाउन से लेकर कई चरणों को पार करते हुए आख़िरकार टीकाकरण तक का सफर सभी भारतीयों के लिए अलग-अलग अनुभव रहा होगा। जहाँ एक तरफ हमने ‘लॉकडाउन’ और ‘क्वारंटाइन’ जैसे कई नए शब्द सीखे, वहीं इन शब्दों के सही मायने में हमारे मन-मस्तिष्क पर पड़ने वाले प्रभावों की हमने उतनी सूक्ष्मता से चर्चा नहीं की, जितना आमतौर पर अपेक्षित है। दरअसल संकट प्रबंधन की अपनी सीमा होती है, खासकर उन देशों में, जहाँ आधारभूत ढाँचों की कमी होती है। इन देशों में भारत भी शामिल है। सरकारी संस्थान, गैर-सरकारी संगठन, नागरिक समूह, धार्मिक समूह और आम लोगों ने जरूरतमंदों की सेवा की, जिसमें कई तो मिसाल बनकर हमारे सामने हैं, पर समाज के सबसे कमजोर समूहों, जैसे शारीरिक रूप से अक्षम और मानसिक बीमारियों से पीड़ित लोगों को इन कोशिशों का फायदा नहीं मिल पाता। वे खुद अपनी व्यथा बताने की स्थिति में होते नहीं और समाज की निगाह बरबस उन पर जाती नहीं। इस पूरे काल खंड में मानसिक बीमारी के मुद्दे को सार्वजनिक बातचीत या नीति कार्यान्वयन में कोई विशेष स्थान नहीं मिला, अतः यह जरूरी है कि इस पर गहन चर्चा हो।
कोविड-19 का प्रारंभिक काल, रोग से जुड़ी अप्रत्याशित चीज़ों से भरा पड़ा था। न हमें कोरोना वायरस के बारे में जानकारी थी और न ही उससे बचने के उपायों के बारे में पता था। मीडिया के माध्यम से बीमारी के प्रसार की प्रकृति, सुरक्षा उपायों के महत्व आदि के बारे में पता चलता रहा, पर इस पूरी प्रक्रिया में मानसिक स्वास्थ्य फिर पीछे छूट गया। दरअसल स्वतः न दिखने वाली इन समस्याओं पर बरबस नज़र नहीं पड़ती है, जबकि मीडिया के माध्यम से और अन्य दूसरे माध्यमों से आम जनता के बीच इसकी चर्चा को जीवंत बनाये रखने की जरूरत है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकलन के अनुसार 2020 तक लगभग 20 प्रतिशत भारतीयों के किसी न किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित होने का अनुमान था। ऐसे में कोविड-19 ने अपना एक अलग ही प्रभाव डाला। आंकड़े बताते हैं कि विश्व में मानसिक, न्यूरोलॉजिकल और मादक द्रव्यों के सेवन से होने वाले विकारों का लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा भारत में है। लॉकडाउन के तुरंत बाद ही सरकारी तौर पर मानसिक समस्याओं के लिए नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेन्टल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज को नोडल संस्था घोषित कर दिया गया था, पर आम लोग जिन्हें किसी न किसी प्रकार की विशेषज्ञ सलाह या इलाज की जरूरत हो, उन तक इस सुविधा को पहुँचाना बहुत बड़ी चुनौती है। उपचार के अंतर की वजह से हमारे लिए यह चुनौती और भी बड़ी है। हमारी विशाल जनसंख्या के लिए महज 6,000 के आसपास मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर हैं और वे भी मुख्यतः शहरी क्षेत्रों में ही उपलब्ध हैं। मानसिक बीमारियों की व्यापकता दर और मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की संख्या के अनुपात में इस विशाल अंतर को ध्यान में रखते हुए मानसिक स्वास्थ्य सेवा की परिकल्पना करना हमारी सबसे बड़ी चुनौती है।
एक अनुमान के अनुसार, भारत में उन लोगों को जो, नैदानिक रूप से चिन्हित हैं और जिन्हें मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर की आवश्यकता है, उनमें से भी महज 70 प्रतिशत मरीजों को ही इलाज मिलता है। भारत में हर संभावित व्यक्ति मानसिक बीमारी की नैदानिक जांच से नहीं गुजरता है और कई तो बिना किसी निदान या सलाह के ही अपना जीवन गुज़ार देते हैं। यहाँ तक कि अन्यथा सामान्य समझे जाने वाले लोगों के लिए भी कोरोना की दो -दो लहरों से उबरना आसान नहीं रहा होगा। क्वारंटाइन से लेकर जीने की जद्दोजहद और अपनों को खोने के गम सहित कई अजीब और अप्रत्याशित वास्तविकताओं से भरे एकदम अलग अनुभव ने हमारे मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला होगा। इनमें से कई से तो हम एकदम अनजान हैं।
अनिश्चितताओं से भरे अपने अस्तित्व की कल्पना हममें से किसी ने भी नहीं की होगी। अनिश्चितता मिश्रित अनुभव हम पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हैं। अनपेक्षित समाचारों से उत्पन्न भय और उससे प्रेरित चिंता ने हम पर गहरा प्रभाव डाला है। कोरोना के शुरूआती दौर में लैंसेट पत्रिका ने क्वारंटाइन और लॉकडाउन जैसे चरम अलगाव के नकारात्मक परिणामों के रूप में पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस, भ्रम और क्रोध जैसी समस्याओं के होने की बात कही थी। अभी हाल में ही हमारी शोध टीम ने कोरोना की दूसरी लहर से प्रभावित भारतीयों में पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस की अप्रत्याशित संख्या दर्ज़ की है। कोरोना के पहले दौर में तो क्वारंटाइन और लॉकडाउन की अवधि, संक्रमण का डर, निराशा, ऊब, अपर्याप्त आपूर्ति, अपर्याप्त जानकारी, वित्तीय हानि, और कोरोना का कलंक जैसे तनाव के कई स्रोत मौजूद थे। उनका भी तो मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ा होगा? और उनका क्या, जो दोनों ही लहरों में किसी न किसी रूप में प्रभावित हुए?
कोरोना के बारे में डर और चिंता के परिणामस्वरूप भारी भावनात्मक प्रतिक्रियाएं देखी गयीं। यहाँ तक कि स्वास्थ्य पेशेवर भी इससे अछूते नहीं रहे। कोरोना के आरभिक चरण में ‘फ्रंटियर्स इन साइकियाट्री’ पत्रिका में चीनी लेखकों द्वारा प्रकाशित एक शोध ने बताया कि कोविड-19 का जवाब देने वाले एक तिहाई से अधिक चिकित्सा कर्मचारी अनिद्रा से पीड़ित थे। ये स्वास्थ्यकर्मी अपने अस्पताल से शिफ्ट के बाद भी नींद की कमी, उदासी और चिंता महसूस करते थे। पर हम जब भी फ्रंटलाइन योद्धा की बात करते हैं तो कोरोना मरीज़ों की देखभाल करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों के बारे में ही सोचते हैं। पुलिस, प्रशासन, गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से काम करने वाले हज़ारों लोग तो इस गिनती में भी नहीं आते, हालाँकि उनके अनुभव भी कमोवेश वैसे ही होंगे, जिसने स्वास्थ्यकर्मियों के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर छोड़ा। ये सारे लोग हमारी नज़रों के सामने आये ही नहीं। अभी भी ज्यादा देर नहीं हुई है। उन तमाम लोगों और उनके निकटतम परिवार वालों को मानसिक स्वास्थ्य के तमाम पहलुओं से वाकिफ कराया जाना चाहिए और आवश्यक हो तो उन्हें समुचित सेवा उपलब्ध करायी जानी चाहिए।
इस पूरे परिदृश्य का एक अन्य पहलू भी है। पहले जिन व्यवहारों को हम किसी खास बीमारी का लक्षण मानते थे, उनमें से कुछ अब सबको करने को कहा जा रहा है। जैसे, बार-बार हाथ धोने को ऑब्सेसिव कमपल्सिव डिसऑर्डर का लक्षण माना जाता है। कोरोना काल में अब इसे ही बार-बार करने को कहा जा रहा है। मानसिक रूप से स्वस्थ लोगों के लिए तो ये ठीक है, पर उनका सोचिये जो ऐसे ही कुछ लक्षणों का इलाज करा रहे थे और अब फिर उनको वही सब करने को कहा जा रहा है। मानसिक रोगों के लक्षणों में फेरबदल की एक जटिल प्रक्रिया है और इन चीज़ों को कालांतर में कैसे देखा जाएगा यह तो समय बताएगा, पर इसके प्रति लोगों में और खासतौर पर पेशेवर डॉक्टरों और मानसिक स्वास्थ्य सेवा से जुड़े लोगों में जागरूकता पैदा करने की जरुरत है।
कहानी के इन पक्षों को समझने के बाद, क्या संभावनाएं हैं हमारे पास? भारत जैसे विविधता से भरे देश में एक नुस्खा बनाना संभव नहीं है, जो सभी के लिए सामान रूप से उपयोगी हो। देश में मानसिक विकारों की महामारी बताती है कि प्रत्येक छठे भारतीय को मानसिक स्वास्थ्य सहायता की आवश्यकता है। वैसे 30-49 आयु वर्ग और 60 से अधिक उम्र वालों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं अधिक हैं। यह कम आय से भी जुड़ा हुआ है और शहरी क्षेत्रों में लोग इससे सबसे अधिक प्रभावित हैं। ऐसे में उन दैनिक श्रमिकों और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के बारे में भी विचार करने की आवश्यकता है, जो लॉकडाउन के दौरान अपने-अपने गाँव-घरों को चले गए थे और अब फिर से शहरों को लौटने को विवश हैं। मुझे इसमें एक उम्मीद की किरण दिखती है। लॉकडाउन ने हमें अनजाने में ऑनलाइन होना सिखा दिया। इंटरनेट सेवा के माध्यम से टेलीकाउंसलिंग, टेलीमेडिसिन और इसी सरीखे कई कदम उठाये जा सकते हैं, जो भविष्य में भारत में मानसिक विकारों से लड़ने में ही कारगर साबित नहीं होंगे, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को जन-जन तक पहुंचाने में भी कारगर होंगे।
कोरोना के इस छोटे से अंतराल में होने वाली घटनाएं बताती हैं कि मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या कितनी भयावह है। सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से हम आमतौर पर खतरे को नकारने वाले लोगों में आते हैं। पर कोरोना काल ने हमें जीवन में गुप्त जोखिमों की कल्पना करना सिखा दिया। यह घटनाक्रम हमें सामाजिक रूप से सजग और प्रियजनों के प्रति जिम्मेदार भी बनाता है। अब हम पहले से ज्यादा तैयार हैं। हम अपनों का भौतिक या डिजिटल दोनों ही माध्यमों से ध्यान रख सकते हैं। अब हमें उन सभी के प्रति संवेदनशील रहना है, जिनसे हम संपर्क में हैं। हमने कोरोना से लड़ने वाले देखे, असिम्पटोमैटिक मरीज़ की कल्पना करनी सीखी, और फिर वैक्सीन न लगवाने की जद्दोजहद के बीच वैक्सीन लगवाने वालों की लम्बी कतारें देखीं। यह बताता है कि धीरे-धीरे ही सही, पर मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी चेतना फैल सकती है, बशर्ते इसके लिए पूरे मनोयोग से कोशिश की जाये। मानसिक स्वास्थ्य हमारी सार्वजनिक बातचीत का हिस्सा होना चाहिए। इसके अलावा नीतिगत फैसला लेने वाले भी मानसिक स्वास्थ के महत्व को समझें और इसे सुदृढ़ करने की तरफ कदम बढ़ाएं। इसे नीति कार्यान्वयन का एक अहम् अंग बनाने की भी जरूरत है।
-प्रो. ब्रज भूषण
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