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दहकते दिनों की दास्तान : कोरोना काल कथा; स्वर्ग में सेमिनार

पुलस्तेय की ‘कोरोना काल कथा’ देश विदेश में होने वाली परिघटनाओं का जहां जीवंत दस्तावेज प्रस्तुत करती है, वहीं अपने समय और समाज को ज्ञान की विभिन्न अनुशासनों के माध्यम से व्याख्या करने का भी काम करती है। पुलस्तेय की कथा का कैनवास इतना विस्तृत है कि उसमें राजनीति, दर्शन, साहित्य, मनोविज्ञान, कला, कहानी और इतिहास आदि एक साथ उभरकर एक ऐसा कोलाज बनाते हैं, जिसमें पाठक किसी जादुई संसार में खोता चला जाता है।

नम्या प्रेस, दरियागंज, दिल्ली से प्रकाशित डॉ आर अचल पुल्स्तेय की पुस्तक ‘कोरोना काल कथा; स्वर्ग में सेमिनार’ कोरोना काल की विसंगतियों और विडम्बनाओं का जीवंत दस्तावेज़ है, जो निश्चय ही पाठक के भीतर एक समझ पैदा करने में सहायक हो रही है।

कथाकार अचल पुलस्तेय कवि और लेखक ही नहीं, एक चिकित्सक भी हैं। सामाजिक विज्ञान के गहन अध्येता होने के साथ-साथ वे प्राकृतिक विज्ञान पर भी समान अधिकार रखते हैं. प्रकृति और वनस्पतियों से रचनाकार पुलस्तेय का गहरा नाता है, जिसे प्रस्तुत काल कथा में देखा जा सकता है-


कोरोना काल में जब सारी दुनिया थम सी गई थी, ताले में बंद थी, तब अचल पुलस्तेय की लेखनी अपने दारुण समय का चित्रांकन कर रही थी. उन्हीं के शब्दों में ‘ऐसे काल का इतिहास दो तरह से लिखा जाता है. जिसे इतिहास कहते हैं, वह वास्तव में घटनाओं का संवेदनहीन संकलन होता है, जिसका केंद्र सत्ता की विजय गाथा होती है, परंतु विकट काल का वास्तविक इतिहास कथाओं और कविताओं में होता है।‘

‘कोरोना काल कथा; स्वर्ग में सेमिनार’ ऐसे ही इतिहास कथा है, जिसके केंद्र में राजसत्ता नहीं, घरों में बंद आदमी है, उसकी पीड़ा है और समाधान भी। यह ऐसी कथा है, जिसमें अप्रवासी मजदूरों को लॉकडाउन के समय में भूखे प्यासे सड़क पर पुलिस की लाठी खाते, पैदल घर की ओर प्रस्थान करते देखा जा सकता है- ‘दिल्ली, मुम्बई, सूरत,बंगलुरु, पुणे आदि नगरों से लाखों श्रमिक कुल स्त्री, बालकों, शिशुओं सहित रक्तरंजित पाँव, खाली पेट पथरीले राजमार्गों पर दिवा रात्रि अनवरत चल रहे थे ।‘

पुलस्तेय की कथा का कैनवास इतना विस्तृत है कि उसमें राजनीति, दर्शन, साहित्य, मनोविज्ञान, कला, कहानी और इतिहास आदि एक साथ उभरकर एक ऐसा कोलाज बनाते हैं, जिसमें पाठक किसी जादुई संसार में खोता चला जाता है। इस किताब में जहां विश्वमनीषा का श्रेष्ठतम चिंतन परिलक्षित होता है, वहीं रचनाकार के जीवन का लोक पक्ष भी प्रबलतम रूप में सामने आया है. केवल भाषा ही नहीं, भोजपुरी समाज की संस्कृति और लोकमान्यताओं की उपस्थिति भी कथा में विशिष्ट तरह का लालित्य पैदा करती है। एक विशेष प्रकार के आस्वाद का अनुभव किया जा सकता है। रचनाकार की दृष्टि भारतीय जीवन और समाज के तमाम सारे अंधेरे कोने, अंतरे में भी गई है, जिसे देख समझकर सुखद आश्चर्य की अनुभूति होती है।

‘कोरोना काल कथा’ अपने समय का चित्रांकन ही नहीं है, वर्तमान की जड़ों को सुदूर अतीत में भी ढूंढने का प्रयास करती है। चरक, सुश्रुत, नागार्जुन, हनीमैन, लुकमान, हिप्पोक्रेट्स, मार्क्स और हीगल आदि की विचार दृष्टि समय और समाज के प्रति जो समझ पैदा करती है, उसके केंद्र में आम आदमी है. यह आदमीयत की कथा है, जो मात्र रचनाकार की कल्पना नहीं, एक निश्चित कालखंड का दस्तावेज भी है, जिसकी जड़ें इतिहास में काफी गहरे प्रविष्ट हैं। कथाकार एक तरफ प्राच्य विज्ञान की गहराइयों में जाकर कुछ ढूंढता-सा नजर आता है, तो वहीं पाश्चात्य ज्ञान की रोशनी में अपने देश और समाज को समझने की कोशिश भी करता दिखाई देता है ।कोरोना की चुनौती का सामना वैक्सीन की खोज से करने की कोशिश तो हुई ही है, आयुर्वेद और होमियोपैथी चिकित्सा विधियों का भी प्रयोग किया जारहा है, यह उल्लेखनीय है। यह उपन्यास देश दुनिया की दैनिक घटनाओं का ससंदर्भ दस्तावेज होने के अलावा अपनी साहित्यिक रमणीकता के कारण पठनीय हो गया है, जो कथाकार की सफलता का सबसे बड़ा प्रमाण है। अंततःवास्तविक समीक्षक तो पाठक ही होता है।

‘किसी आपद व्यापद का कारण मनुष्य ही होता है। यह मनुष्य ही नहीं प्रत्येक पदार्थ के साथ होता है, जैसे स्वर्ण की चमक ही उसका संकट है। पुष्प की मधुर मादक गंध ही उसके अस्तित्व के लिए अन्तकारक है। इसी प्रकार मनुष्य की बुद्धि ही मनुष्य के लिए संकट बन चुकी है । एक परमाणु की शक्ति के ज्ञान ने सत्ताप्रिय मनुष्य को आत्मध्वंसक बना दिया है।’

-उद्धव मिश्रा

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