विख्यात स्विस भूवैज्ञानिक अर्नोल्ड हीम और उनके सहयोगी आगस्टो गैस्टर ने 1936 में मध्य हिमालय की भूगर्वीय संरचना पर जब पहला अभियान चलाया था, तो अपने यात्रा वृतान्त ‘द थ्रोन ऑफ़ द गॉड (1938) और शोध ग्रन्थ ‘सेन्ट्रल हिमालया: जियोलोजिकल आबजर्वेशन्स ऑफ़ द स्विस एक्सपीडिशन (1939) में उन्होंने टैक्टोनिक दरार व मुख्य केन्द्रीय भ्रंश की मौजूदगी को चिन्हित करने के साथ ही चमोली गढ़वाल के हेलंग से लेकर तपोवन तक के क्षेत्र को भूगर्भीय दृष्टि से संवेदनशील बताया था। यह ग्रन्थ भूवैज्ञानिकों के लिए बाइबिल से कम नहीं हैं। इसी के आधार पर मध्य हिमालय के भूगर्भ पर शोध और अध्ययन आगे बढ़ा। आज भूधंसाव के कारण अस्तित्व के संकट में फंसा जोशीमठ, ठीक तपोवन और हेलंग के बीच पड़ता है। इसके बाद 1976 में मिश्रा कमेटी ने भी अध्ययन कर जोशीमठ को संवेदनशील घोषित कर उपचार के सुझाव दिये। पिछले ही साल उत्तराखण्ड सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग ने भी जोशीमठ पर मंड़राते खतरे की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया। इन तमाम चेतावनियों के बावजूद जोशीमठ को बचाने के प्रयास तो नहीं हुए, अलबत्ता वहां भारी भरकम इमारतों का जंगल जरूर उगता गया। बढ़ती हुई आबादी द्वारा उपयोग किया हुआ पानी जोशीमठ के गर्भ में उतरता गया। आज उसी दलदल पर असह्य बोझ तले दबा जोशीमठ नीचे अलकनन्दा की ओर फिसलता जा रहा है।
अलकनन्दा की ओर फिसल रहा जोशीमठ
भारत-चीन सीमा के निकट देश का अंतिम शहर जोशीमठ तबाही के कगार पर है। कुछ समय से जोशीमठ के अलकनन्दा नदी की ओर फिसलने की गति अचानक तेज हो गयी है। जमीन के धंसने से समूचा जोशीमठ धंस रहा है। सैकड़ों भवन रहने लायक नहीं रह गयै हैं, कई जगह जमीन पर भी चौड़ी दरारें उभरने लगी हैं। कुछ स्थानों पर जमीन फटने से पानी बाहर निकल रहा है। भारत की चार सर्वोच्च धार्मिक पीठों में से एक ज्योतिर्पीठ की दीवारों पर भी दरारें आ गयी हैं। स्वयं शंकराचार्य अभिमुक्तेश्वरानन्द भी स्थिति को देखकर विचलित हैं। यह भारत-चीन सीमा के निकट देश के अंतिम शहर के धंसने का साफ संकेत हैं। भूवैज्ञानिक पहले ही इस शहर को तत्काल खाली कराने की चेतावनी दे गये हैं। उत्तराखण्ड सरकार तब जाग रही है, जब यह शहर अपनी कब्र के करीब पहुंच गया है। भारत सरकार के कानों पर तो अभी भी जूं तक नहीं रेंगती दिखाई नहीं दे रही।
भारत का बहुत महत्वपूर्ण शहर है जोशीमठ
जोशीमठ कोई साधारण शहर नहीं है। यह आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा सनातन धर्म की रक्षा के लिए देश के चार कोनों में स्थापित चार सर्वोच्च धार्मिक पीठों में से एक ज्योतिर्पीठ है। यह उत्तराखण्ड की प्राचीन राजधानी है, जहां से कत्यूरी वंश ने शुरू में अपनी सत्ता चलाई थी। यही से सर्वोच्च तीर्थ बदरीनाथ की तीर्थ यात्रा की औपचारिकताएं पूरी होती हैं। यहीं शंकराचार्य की गद्दी बिराजमान रहती है। फूलों की घाटी और नंदादेवी बायोस्फीयर रिजर्व का बेस भी यही नगर है। हेमकुंड यात्रा भी यहीं से नियंत्रित होती है। नीती-माणा दर्रों और बाड़ाहोती पठार पर चीनी हरकतों पर इसी नगर से नजर रखी जाती है। विदित है कि चीनी सेना बार-बार बाड़ाहोती की ओर से घुसपैठ करने का प्रयास करती रहती है। उन पर नजर रखने के लिए भारत तिब्बत सीमा पुलिस की बटालियन और उसका माउंटेंन ट्रेनिंग सेंटर यहीं है। यहीं पर गढ़वाल स्काउट्स का मुख्यालय और 9 माउंटेंन ब्रिगेड का मुख्यालय भी है। जोशीमठ के सैकड़ों घर, अस्पताल, सेना के भवन, मंदिर, सड़कें, प्रतिदिन धंसाव की जद में आती जा रही हैं। यह 20 से 25 हजार की आबादी वाला नगर अनियंत्रित व अदूरदर्शी विकास की भेंट चढ़ रहा है। एक तरफ तपोवन विष्णुगढ़ परियोजना की एनटीपीसी की सुरंग ने जमीन को भीतर से खोखला कर दिया है, दूसरी तरफ बाईपास सड़क जोशीमठ की जड़ पर खुदाई करके पूरे शहर को नीचे से हिला रही है ।
घरों का पानी भी बहा रहा है जोशीमठ को
भूवैज्ञानिकों के अनुसार जोशीमठ शहर मुख्यतः पुराने भूस्खलन क्षेत्र के ऊपर बसा है और इस प्रकार के क्षेत्रों में जल निस्तारण की उचित व्यवस्था न होने की स्थिति में जमीन में अन्दर जाने वाले पानी के साथ मिट्टी के पानी के साथ बह जाने के कारण भू-धंसाव की स्थिति उत्पन्न हो रही है। विगत फरवरी-2021 में धौलीगंगा में आयी बाढ़ से अलकनन्दा के तट के कटाव के उपरान्त इस समस्या ने गम्भीर स्वरूप ले लिया है। वैज्ञानिक भी मान रहे हैं कि घरों से निकला 25 हजार की जनसंख्या का मलजल भी जोशीमठ के नीचे की जमीन में फिसलन का काम कर रहा है। जलोत्सारण की उचित व्यवस्था न होने से इस तरह प्रतिदिन लाखों लीटर घरों का पानी जमीन के अंदर समा रहा है। यात्रा सीजन में तो आबादी का दबाव कहीं अधिक बढ़ जाता है।
रौतेला कमेटी की रिपोर्ट पर भी तत्परता नहीं दिखायी
भू-धंसाव व भू-स्खलन का अध्ययन कर कारणों का पता लगाने तथा उपचार हेतु संस्तुति करने के उद्देश्य से राज्य आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केन्द्र के निदेशक एवं भूविज्ञानी डॉ पीयूष रौतेला के नेतृत्व में जुलाई, 2022 में एक विशेषज्ञ दल का गठन किया गया था। इस रौतेला कमेटी ने भी शहर की जलोत्सारण व्यवस्था सुधारने और जोशीमठ के नीचे अलकनन्दा द्वारा किये जा रहे कटाव तथा भारी निर्माण रोकने का सुझाव दिया था। मगर कमेटी की रिपोर्ट पर अभी बैठकों का दौर ही चल रहा है। दरअसल सरकार की प्राथमिकता जोशीमठ को बचाने की नहीं, बल्कि कॉमन सिविल कोड और धर्मान्तरण कानून बनाने की थी।
मिश्रा कमेटी ने 1976 में आगाह किया था
दरअसल 1970 की अलकनन्दा की बाढ़ के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने 1976 में गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर महेशचन्द्र मिश्रा की अध्यक्षता में वैज्ञानिकों की एक कमेटी का गठन कर जोशीमठ की संवेदनशीलता का अध्ययन कराया था। इस कमेटी में सिंचाई एवं लोक निर्माण विभाग के इंजिनीयर, रुड़की इंजिनीयरिंग कालेज तथा भूगर्भ विभाग के विशेषज्ञों के साथ ही पर्यावरणविद चण्डी प्रसाद भट्ट को शामिल किया था। ( रौतेला एवं डॉ एमपीएस बिष्ट: डिजास्टर लूम्स लार्ज ओवर जोशीमठ: करंट साइंस वाल्यूम-98) इस कमेटी ने अपनी अध्ययन रिपोर्ट में कहा था कि जोशीमठ स्वयं ही एक भूस्खलन पर बसा हुआ है और इसके आसपास किसी भी तरह का भारी निर्माण करना बेहद जोखिमपूर्ण है। कमेटी ने ओली की ढलानों पर भी छेड़छाड़ न करने का सुझाव दिया था, ताकि जोशीमठ के ऊपर कोई भूस्खलन या नालों में त्वरित बाढ़ न आ सके। जोशीमठ के ऊपर औली की तरफ से 5 नाले आते हैं। ये नाले भूक्षरण और भूस्खलन से विकराल रूप लेकर जोशीमठ के ऊपर वर्ष 2013 की केदारनाथ जैसी आपदा ला सकते हैं।
अवैज्ञानिक विकास और बेतहाशा निर्माण का नतीजा है यह विनाश
जोशीमठ की धारक क्षमता के विपरीत वहां अवैज्ञानिक तरीके से विकास होता रहा। जोशीमठ का समुचित मास्टर प्लान न होने के कारण उसकी ढलानों पर विशालकाय इमारतों का जंगल बेरोकटोक उगता जा रहा है। हजारों की संख्या में बनी इमारतों के भारी बोझ के अलावा लगभग 25 हजार शहरियों के घरों का उपयोग किया गया पानी स्वयं एक बड़े नाले के बराबर होता है, जो जोशीमठ की जमीन के नीचे दलदल पैदा कर रहा है। उसके ऊपर सेना और आइटीबीपी की छावनियों का निस्तारित पानी भी जमीन के नीचे ही जा रहा है। निरन्तर खतरे के सायरन के बावजूद वहां आईटीबीपी ने भारी भरकम भवन बनाने के बावजूद मलजल शोधन संयंत्र नहीं लगाया। कई क्यूसेक अशोधित यह मलजल भी जोशीमठ के गर्भ में समा रहा है। यही स्थिति सेना के शिविरों की भी है। जोशीमठ के बचाव के बारे में अब सोचा जा रहा है, जबकि शहर बरबादी की कगार पर आ गया।
-जयसिंह रावत
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