Editorial

दोष जेपी का नहीं!

गुनहगार तो हैं मोरारजी देसाई, चरण सिंह, जनजीवन राम, राज नारायण और चंद्रशेखर, जो अपनी सत्ता-लिप्सा के चलते जनता पार्टी को एकजुट नहीं रख पाये और संघ को फिर से अपनी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी बनाने का मौक़ा दिया. फिर भी यह जेपी का ही प्रभाव था कि भाजपा ने गांधीवादी समाजवाद का रास्ता चुना.

भारत में जब से संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी का वर्चस्व बढ़ा है, अनेक बुद्धिजीवी निराशा में यह कहने लगे हैं कि इसके लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ज़िम्मेदार हैं. इनका आरोप है कि जेपी ने संघ परिवार को राजनीतिक स्वीकार्यता दिलायी, जिससे संघ और भाजपा को प्रसार में मदद मिली. यह आरोप इसलिए लगाया जाता है कि जेपी ने जिस सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन का नेतृत्व किया, उसमें विद्यार्थी परिषद, जनसंघ और आरएसएस के लोग शामिल थे.

याद दिलाना ज़रूरी है कि गुजरात और बिहार में महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी आदि के खिलाफ आंदोलन जेपी ने नहीं शुरू कराये थे, ये स्वत:स्फूर्त आंदोलन थे और विद्यार्थी परिषद समेत ग़ैरकांग्रेसी राजनीतिक दलों के छात्र और युवा संगठन उसमें शामिल थे. पटना में अब्दुल गफ़ूर की कांग्रेस सरकार की बेवक़ूफ़ियों और ज़्यादतियों से परेशान होकर ये युवा आंदोलनकारी मार्गदर्शन और नेतृत्व के लिए जेपी के पास गये थे, जिसे उन्होंने अपनी शर्तों पर स्वीकार किया था. पहली शर्त यह कि आंदोलन हर हाल में शांतिपूर्ण होगा और दूसरे उसका एजेंडा व्यापक व्यवस्था परिवर्तन का होगा। इसे बाद में उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का नाम दिया. सम्पूर्ण क्रांति का एजेंडा एक तरह से गांधी के ग्राम स्वराज और सर्वोदय का एजेंडा था. इसी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए जेपी ने अपने नायकत्व में निर्दलीय छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का गठन किया. जेपी का यह सारा कार्यक्रम सर्व धर्म समभाव, समता और सत्ता के विकेंद्रीकरण पर आधारित था, उसमें संघ के विचार का कोई अंश नहीं था. जेपी एक समाजशास्त्री थे और विचार परिवर्तन में विश्वास करते थे। ज़मींदारों का हृदय परिवर्तन कर उनसे भूदान करवाया गया और चम्बल के डाकुओं का हृदय परिवर्तन कर उन्हें मुख्य धारा में लाया गया. इसलिए जेपी तो संघ परिवार के कार्यकर्ताओं को गांधी के रास्ते पर लाने का प्रयोग कर रहे थे, जो आरएसएस को अछूत मानकर नहीं हो सकता था. इसलिए जेपी ने उनके सम्मेलन को भी संबोधित किया. किसी ज़माने में डॉ लोहिया ने ग़ैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत पर जनसंघ के साथ संविद सरकारें बनवायी थीं, तब भी जनसंघ हिंदू राष्ट्र के एजेंडे पर नहीं चल रहा था।

जेपी तो प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से भी मिलने गये और पूरी कोशिश की कि वे बिहार आंदोलन की उचित माँगें मान लें, लेकिन इंदिरा गांधी उन दिनों सत्ता के अहंकार और बेटे संजय गांधी के प्रभाव में थीं, चापलूसों से घिरी हुई थीं और गुप-चुप इमरजेंसी लगाने की तैयारी कर रही थीं. कम्युनिस्ट सोवियत रूस भी उन्हें इसी रास्ते चलने के लिए प्रेरित कर रहा था, इसीलिए उन्होंने जेपी को अमेरिकी एजेंट तक कह डाला. हालात ने अचानक नाटकीय मोड़ तब लिया, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गाँधी का रायबरेली से लोकसभा चुनाव रद्द कर दिया और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें संसद में मताधिकार से वंचित रखा. उस समय भी जेपी ने केवल नैतिकता के नाते प्रधानमंत्री से त्यागपत्र मांगा, पर वे अपना ध्यान और ताक़त पूरी तरह बिहार में सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन को सघन रूप से ज़मीनी सतह पर ले जाने में लगाना चाहते थे.

विपक्षी दलों के आग्रह पर जेपी ने 25 जून को रामलीला मैदान में रैली को संबोधित किया, जिसमें प्रधानमंत्री पर त्यागपत्र देने का दबाव बढ़ाने के लिए उनके निवास के बाहर सत्याग्रह का कार्यक्रम घोषित किया. इंदिरा गाँधी को उसी रात इमरजेंसी लगाकर सारे विपक्षी नेताओं और आंदोलनकारियों को जेल में डालने तथा नागरिकों के मौलिक अधिकार ख़त्म करने का बहाना मिल गया. संसद कठपुतली हो गयी और सुप्रीम कोर्ट ने सरेंडर कर दिया. यह जेपी का ही आत्मबल था कि मरणासन्न हालात में भी उन्होंने सारे विरोधी दलों का विलय कर जनता पार्टी बनवायी और आरएसएस की राजनीतिक शाखा का अलग अस्तित्व ही समाप्त कर दिया. जेपी ने देश को स्थायी रूप से तानाशाही के रास्ते जाने से रोका. जनता पार्टी की जीत के बाद उन्होंने गांधी समाधि राजघाट पर सांसदों से संकल्प करवाया. गुनहगार तो हैं मोरारजी देसाई, चरण सिंह, जनजीवन राम, राज नारायण और चंद्रशेखर, जो अपनी सत्ता-लिप्सा के चलते जनता पार्टी को एकजुट नहीं रख पाये और संघ को फिर से अपनी राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी बनाने का मौक़ा दिया. फिर भी यह जेपी का ही प्रभाव था कि भाजपा ने गांधीवादी समाजवाद का रास्ता चुना.

भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिक अभ्युदय के वास्तविक कारण हैं राजीव गांधी का राम मंदिर आंदोलन को ठीक से न सँभाल पाना, शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट को संसद से पलटना और वीपी सिंह का मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को बिना आम सहमति बनाये, निजी राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना. मुलायम सिंह, वीपी सिंह और लालू यादव में मुस्लिम समुदाय को रिझाने की होड़ ने भी आरएसएस को हिन्दू समाज को अपनी तरफ़ खींचने में मदद की. मायावती को मुख्यमंत्री बनने की इतनी जल्दी थी कि कांशीराम ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन तोड़कर भाजपा से गठजोड़ किया और गुजरात जाकर नरेंद्र मोदी का प्रचार किया. बिहार में नीतीश कुमार ने पुराने साथी लालू यादव को गच्चा देकर भाजपा के साथ सरकार चलायी.

भाजपा को पूर्ण बहुमत से सत्ता में लाने का सर्वाधिक श्रेय अन्ना आंदोलन को दिया जा सकता है, जिसमें शामिल लोगों की सूची बड़ी लंबी है. जो कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का मुक़ाबला कर सकती थी, वह न केवल अपने पुराने राजनीतिक सिद्धान्तों और कार्यक्रमों से हट गयी, बल्कि सारी शक्ति परिवार में केंद्रित कर ली. कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र की सांकेतिक बहाली एक शुभ लक्षण है. अब देखना यह है कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस को कितनी राजनीतिक ताक़त मिलती है!

-राम दत्त त्रिपाठी

Sarvodaya Jagat

Share
Published by
Sarvodaya Jagat

Recent Posts

सर्वोदय जगत (16-31 अक्टूबर 2024)

Click here to Download Digital Copy of Sarvodaya Jagat

2 months ago

क्या इस साजिश में महादेव विद्रोही भी शामिल हैं?

इस सवाल का जवाब तलाशने के पहले राजघाट परिसर, वाराणसी के जमीन कब्जे के संदर्भ…

2 months ago

बनारस में अब सर्व सेवा संघ के मुख्य भवनों को ध्वस्त करने का खतरा

पिछले कुछ महीनों में बहुत तेजी से घटे घटनाक्रम के दौरान जहां सर्व सेवा संघ…

1 year ago

विकास के लिए शराबबंदी जरूरी शर्त

जनमन आजादी के आंदोलन के दौरान प्रमुख मुद्दों में से एक मुद्दा शराबबंदी भी था।…

2 years ago

डॉक्टर अंबेडकर सामाजिक नवजागरण के अग्रदूत थे

साहिबगंज में मनायी गयी 132 वीं जयंती जिला लोक समिति एवं जिला सर्वोदय मंडल कार्यालय…

2 years ago

सर्व सेवा संघ मुख्यालय में मनाई गई ज्योति बा फुले जयंती

कस्तूरबा को भी किया गया नमन सर्वोदय समाज के संयोजक प्रो सोमनाथ रोडे ने कहा…

2 years ago

This website uses cookies.